ये कोई बाहर के लोग हैं या आक्रमणकारी हैं. इस देश के नहीं हो सकते. ये न कबीर को जानते हैं न जायसी, नानक या रैदास को. प्रेमचंद, रेणु या कृष्णचंदर के उपन्यासों-कहानियों में जो समाज दिखता है ये उससे भी नहीं आते हैं, इनके आसपास वो किरदार दिखते ही नहीं है. टैगौर की नज़रों से देखें तो ये इंसान भी नहीं दिखते, विवेकानंद जिस हिंदू धर्म को शिकागो में बता कर आये, ये उस धर्म के भी नहीं हैं. ये न अंबेडकर को मानते हैं न उनके लिखे संविधान को.
ये भारत की नदियों, पहाड़ों और जंगलों के दुश्मन हैं, देश की कला और संस्कृति को नष्ट करने में लगे हैं. इस देश की भाषायें भी इन्हें नहीं सुहाती. साहित्यकारों की हत्या करते हैं, किताबें जलाते हैं.
हम जिस समाज में जिये, जैसे लोगो के बीच बड़े हुये, जिन रवायतों को बड़ों से सीखा और छोटों को सिखाया वो इनमें नहीं दिखती. कुछ अजीब से हिंसक और अपराधी दिखते हैं ये लोग. ये लोग इस देश की बच्चियों के साथ बलात्कार कर रहे हैं और बलात्कारियों के पक्ष में जुलूस भी निकाल रहे हैं.
सरे आम हत्यायें कर रहें हैं, बैंक लूट रहे हैं, उद्योग बंद कराने में तुले हैं, देश का पैसा बाहर भेज रहे हैं, यूनिवर्सिटियों को बर्बाद करने में लगे हैं. छात्रों को पीट रहे हैं.
इस देश के गांव-शहर इनकी नफ़रत के निशाने पर हैं. वो शहर जो सैकड़ों सालों में लोगों ने बसाये, उन्हे एक पहचान दी. हर शहर ने कुछ खास दिया इस देश को विज्ञान, कला, साहित्य, पकवान, पहनावा और न जाने क्या क्या. ये उस पहचान को मिटाने में जुटे हुये हैं. ये काम तो अंग्रेज़ों ने भी नहीं किया जो ये कर रहे हैं. अंग्रेज़ से भी ज्यादा हिंसक और क्रूर हैं. सब नेस्तनाबूत कर रहे हैं.
न जाने ये कौन लोग हैं, किस समाज या संस्कृति से इनका ताल्लुक है, मजहब क्या है इनका. इस देश के तो बिलकुल नहीं हैं, कहीं बाहर से आये हैं ये लोग.
- प्रशांत टंडन
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