Home गेस्ट ब्लॉग इतिहास : पुण्य प्रसुन बाजपेयी और अनजाना फोन कॉल

इतिहास : पुण्य प्रसुन बाजपेयी और अनजाना फोन कॉल

24 second read
0
0
647

[ भगत सिंह ने कहा था, ‘व्यक्ति को मार कर विचारों को नहीं मारा जा सकता.’ किशन जी उर्फ कोटेश्वर राव को पाशविकता की हद तक क्रूर पुलिस ने बर्बर तरीके से हत्या कर दी थी, जिस बर्बरता की गवाह वे तस्वीरें हैं, जो उन दिनों मीडिया में आई थी. परन्तु किशन जी की बर्बर हत्या कर के भी उनके विचारों को नहीं मारा जा सका. पेश के कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी के विचार जो प्रसिद्ध पत्रकार पुण्य प्रसुन वाजपेयी के कलम से 23 अगस्त, 2009 को एक अनजानी फोन कॉल के माध्यम से निकला था. ]



इतिहास : पुण्य प्रसुन बाजपेयी और अनजाना फोन कॉल

20 अगस्त की शाम मोबाइल पर एकदम अनजाना सा नंबर आया तो मैंने फोन को साइलेंट मोड में डाल दिया लेकिन जब वही नंबर लगातार तीसरी बार मोबाइल पर उभरा तो मेरे ’हैलो’ कहने के साथ ही दूसरी तरफ से आवाज आई, ’अब आप दंगों का इंतजार करें.’ मैं चौंका. ’आप कौन बोल रहे हैं ?’ ’हम बोल रहे हैं.’ ’हम कौन ?… मैंने आपको पहचाना नहीं.’ ’हम नक्सली….लालगढ वाले किशनजी .’ मैं चौका – ’तो क्या आप लालगढ में दंगों की बात कर रहे हैं ?’ ’जी नहीं, हम जसवंत सिंह की बात कर रहे हैं. आप तो उसी खबर में लगे होंगे. इसीलिये कह रहा हूं, यह तो बीजेपी का पुराना स्टाइल है. जब कुछ ना बचे तो उग्र हिन्दुत्व की बात कर दो. अयोध्या भी तो इसी तरह उठा था और हाल में कंधमाल में भी आरएसएस ने ऐसा ही किया. कर्नाटक में भी ऐसा ही कुछ हुआ.’

मुझे झटका लगा कि कोई नक्सली कैसे इस तरह अचानक एकदम अनजान से मुद्दे पर टिप्पणी कर सकता है. कुछ गुस्से में मैंने टोका, ‘क्या लालगढ़ में सीआरपीएफ ने कब्जा कर लिया है.’ ‘मैंने आपको लालगढ़ पर बात करने के लिये फोन नहीं किया है, लालगढ़ में तो हमारा कब्जा बरकरार है, आप आ कर देख सकते हैं. यह भी देख सकते हैं कि कितनी बडी तादाद में इस पूरे इलाके के आदिवासी ग्रामीण हमारे साथ कैडर के तौर पर जुड़ रहे हैं. सरकार के कहने पर मत जाइयेगा कि उसने लालगढ में कब्जा कर लिया है और माओवादी भाग गए हैं. पुलिस-सीआरपीएफ सिर्फ शहरों तक पहुंचती है, जहां दुकानें होती हैं. दुकानें खुल जाएं … धंधा चलने लगे तो सरकार मान लेती है कि सब पटरी पर आ गया. लेकिन आप गांव में अंदर आकर देखेंगे तो आप समझेंगे कि सरकारी नजरिया किस तरह आदिवासियों को, ग्रामीणों को देखता-समझता ही नहीं. मैंने फोन इसलिये किया कि जिस तरह लालगढ़ को आप समझना नहीं चाहते, वैसे ही विभाजन के दौर को कोई राजनीतिक दल समझना नहीं चाहता.’

बातों का सिलसिला बढ़ने के साथ मेरी जिज्ञासा भी बढती गई. मैंने पूछ ही लिया, ‘क्यों, आपने जसवंत सिंह की किताब पढ़ ली है ?’ ‘लगभग पढ़ ली है.’ ‘तो क्या वह लालगढ़ तक पहुंच गई ?’ ‘हम सिर्फ लालगढ़ तक सीमित नहीं है और पढ़ने-पढ़ाने को हम छोड़ते भी नहीं हैं. हम आपसे कह रहे हैं कि विभाजन को लेकर सिर्फ जिन्ना-नेहरु-पटेल का खेल तो अब बंद करना चाहिये. देश की जो हालत है उसमें मीडिया को अपनी भूमिका तो समझनी चाहिये. आप तो लगातार उस किताब पर चैनल में प्रोग्राम कर रहे हो, आप ही बताइए कि किताब में 1919 से लेकर 1947 तक के दौर की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का कोई जिक्र है जिसके आधार पर लीग और कांग्रेस की राजनीति का खांचा खिंचा जा रहा है ? सच तो यह है कि इसमें सिर्फ उन राजनीतिक परिस्थितियों को ही अपने तरीके से या यूं कहें कि अभी के परिपेक्ष्य में टटोला गया है, जिन्हें़ विभाजन से जोड़ी जा सके.’

‘उसमें नेहरु-पटेल और जिन्ना के साथ-साथ वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन को भी किसी फिल्मी कलाकार की तरह सामने रखा गया है. गांधी को भी एक भूमिका में फिट कर दिया गया है जिससे उन पर कोई अंगुली ना उठे. आपको यह समझना चाहिये कि जहां राजनीति पर से लोगों का भरोसा उठ रहा है, वहां राजनेता ही दूसरे माध्यमां में घुस रहे है. जिन्ना पर यह किताब ना तो स्कॉलर की लगती है ना ही पॉलिटिशियन की.’



‘लेकिन राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में लिखी किताब में आप उस दौर के सामाजिक ढांचे पर बहस क्यां चाहते हैं ? ‘…क्योंकि बिना उसके सही संदर्भ गायब हो जाते हैं. आप ही बताइये, भारत लौटने पर गांधी ने समूचे देश की यात्रा कर क्या देखा ? आप एक लाइन में कह सकते हैं कि देश को देखा. लेकिन सच यह नहीं है. गांधी ने उस जमीन को परखा जो भारत को जिलाये हुये है, जो उसकी धमनियों से होकर बहने वाला खून है, उसके फेफडों के अंदर जाने वाली हवा है. किसान-मजदूर के बगैर भारत की कल्पऩा नहीं की जा सकती इसलिये गांधी ने सबसे पहले उसी मर्म को छुआ.’

‘जसवंत की किताब में एक जगह लिखा है कि नेहरु-जिन्ना और गांधी तीनों ने पश्चिमी तालीम हासिल की थी. नेहरु-जिन्ना तो पश्चिमी सोच में ही ढ़ले रहे और उसी आधार पर भारत-पाकिस्तान के उत्तराधिकारी बन कर खुद को उबारते चले गये लेकिन गांधी में भारतीय तत्व था. लेकिन जसवंत सिंह यह नहीं बताते कि यह भारतीय तत्व कौन सा था ? वह गांधी ही थे जिन्होंने किसान आंदोलन को दबाया. गांधी शांति की वकालत करते हुये सीधे कहते थे कि ‘यदि जमींदार आप पर उत्पीड़न करें तो आपको थोड़ा सह लेना चाहिये. यदि जमींदार आपको परेशान करें तो मैं किसान भाई से कहूंगा कि वह लड़ें नहीं बल्कि मैत्रीपूर्ण रुख अपनायें. गांधी की कथनी-करनी का फर्क जसवंत को रखना चाहिए जो अंग्रेजों के लिये मददगार साबित हो रहा था. चम्पारण, खेड़ा और बारडोली के किसान आंदोलन इस बात के सबूत हैं कि गांधी किसानों को बंधक बना रहे थे क्योकि एक तरफ वह ग्राम स्वराज अर्थात परम्परागत हिन्दू ग्रामीण समाज के आत्मनिर्भर ढ़ांचे को जिलाना चाहते थे, पर उसके लिए बहुसंख्यक ग्रामीण समाज की आर्थिक और सामाजिक अस्मिता और नेतृत्वकारी शक्तियां को आगे बढ़ाना उन्हे स्वीकार नहीं था. गांधी वाकई भारतीय मूल को ना समझते तो नेहरु-जिन्ना दोनों ही विभाजन के नायक भी ना हो पाते जैसा जसवंत लिख रहे हैं लेकिन इस मूल को तो सामने लाना चाहिये … क्योंकि गांधी परम्परागत ग्रामीण समाज को तोड़ कर उस पर थोपे गए जमींदारों और साहूकारों के जरिये ही अपनी राजनीति कर रहे थे.’

‘मिसाल के लिये बारडोली में चलाये गये गांधीवादी रचनात्मक कार्यक्रम को ही लें. 1929 ई. तक बारह सौ चरखे बारडोली में चलाये जा रहे थे लेकिन सभी धनी पट्टीदार परिवारों में थे. गरीब किसानों के घर एक भी चरखा नहीं था, जबकि चरखा लाया ही गरीब परिवारां के लिए गया था. फिर अस्पृश्यता हटाने के सवाल पर तो इतना ही कहना काफी होगा कि 1936 ई. तक एक भी अछूत छात्र बारडोली क्षेत्र के पट्टीदार मंडल द्रारा चलाये जा रहे आश्रमों और होस्टल में भर्त्ती नहीं हुआ था. गांधी जी का रचनात्मक कार्यक्रम तो पट्टीदारों और बंधुआ मजदूरों के बीच संबंधों में भी कोई अंतर नहीं ला पाया था.’

‘लेकिन जसवंत की किताब में मूलतः नेहरु और पटेल पर चोट की गई है. सही कह रहे हैं. किताब में एक जगह लिखा गया है कि नेहरु और पटेल को समझ ही नहीं थी कि विभाजन के बाद देश कैसे चलाना है ? हो सकता है बीजेपी इसी से रुठी हो, लेकिन किसान-मजदूर की बात करने वाली बीजेपी को समझना चाहिये कि लौह पुरुष पटेल भी किसानों के हक में खडे नहीं हुए. साहूकार और बंधुआ किसानों को लेकर गांधी के सबसे बडे प्रतिनिधि वल्लभ भाई पटेल ने गरीब किसानों को सलाह दी, ‘सरकार तुम्हें और साहूकार को अलग-अलग करना चाहती है …. यह तो पतिव्रता नारी से अपने पति को छोड देने की मांग जैसा हुआ.’ जसवंत को किताब में बताना चाहिये कि पटेल का लोहा किस तरह घनी पट्टीदार और बनियों के लिये बज रहा था.’

‘जसवंत तो खुद राजस्थान से आते हैं. उन्होंने अपनी किताब में गांधी को कैसे क्लीन चीट दे दी जबकि राजस्थान के राजपूताना इलाकों में मोतीलाल तेजावत ने रियासती जुल्म के खिलाफ जब किसानों को एकजुट किया तो रियासत ने अंग्रेजों के फौज की मदद से भीलों पर गोलियां बरसा दी थी. गांधी जी ने उस वक्त भी इस गोलीकांड की निंदा नहीं की. देखिये किताब इसलिये बेकार है क्‍योंकि इसमें जनता को जोड़ा ही नहीं गया है.’

‘नेहरु के जरिये कांग्रेस पर अटैक करने से जसवंत को लगता होगा कि उन्होंने अपना राजनीतिक धंधा पूरा कर लिया, जबकि कांग्रेस पर अटैक करना था तो सहजानंद सरस्वती का जिक्र करना चाहिये था. चर्चा किसान सभा के संगठन की होनी चाहिए थी. 2 अक्टूबर, 1937 ई. को पटेल ने राजेन्द्र प्रसाद को पत्र लिख कर आगाह किया कि भविष्य में किसान सभा बहुत बडी बाधा उत्पन्न करेगी. हमें इसके गठन के खिलाफ खड़े होना होगा. इसी के बाद से धीरे-धीरे कांग्रेसियों ने सहजानंद सरस्वती का बायकॉट करना शुरु किया. बंबई में तो गांधी, जमुनालाल बजाज, सरदार पटेल, राजगोपालाचारी और राजेन्द्र प्रसाद ने एक बैठक में सहजानंद को हिंसक, तोड़क और उपद्रवी तक घोषित कर दिया.’



‘आपका यह तो नहीं कहना है कि स्थितियां अभी भी नहीं बदली हैं ?’ ‘आप यह माने या ना माने … हम यह नहीं कहते कि किताब में हिंसक आंदोलन का जिक्र होना चाहिए. सवाल यह है कि नेहरु – जिन्ना सरीखे चरित्र किस तरह खडे हो रहे थे ? उन सामाजिक परिस्थितियों का जिक्र अगर किताब में नहीं है तो मीडिया को तो करना चाहिए, क्योंकि आपने ही ठीक सवाल रखा … स्थिति बदली कहां है ? सहजानंद सरस्वती किसान सभा में गरीब और मंझोले किसानों का ज्यादा प्रतिनिधित्व चाहते थे. यह मांग हर क्षेत्र में आज भी है. जसवंत सिंह को सिर्फ धर्म के नाम पर आरक्षण दिखाई देता है. वह किताब में लिखते भी हैं कि धार्मिक आरक्षण राजनीति का हथियार बन गया है. जसवंत तो इस्लामिक राष्ट्र को भी बकवास बताते हैं लेकिन हिन्दू राष्ट्र पर खामोश हो जाते हैं, जिसे सावरकर ने ही सबसे पहले उठाया. नेपाल में जब कम्युनिस्ट सत्ता में आये तो बीजेपी को लगा एकमात्र हिन्दू राष्ट्र ध्वस्त हो गया. तो वह लगे विरोध करने. और मीडिया भी उसे तूल देता है, क्योंकि बाकी वर्गों को छूने पर देश में आग लग सकती है.’

‘जसवंत सिंह की किताब में विभाजन को लेकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले किरदार खत्म कहां हुए हैं … वैसे ही किरदार तो अब भी राजनीति और समाज में मौजूद हैं. और उन्हें उसी तरह किताब लिखकर या मीडिया से प्रचारित कर के स्थापित किया जा रहा है. मेरा आपसे सिर्फ यही कहना है कि आप किताब को हर कैनवास में रखकर बताएं. चाहे किताब में कैनवास ना हो, नहीं तो भविष्य में यही बडे नेता हो जाएंगे जो किताब लिखने पर निकाले जा रहे हैं या जो निकाल रहे हैं.’

‘तो आप लोग किताब क्यो नहीं लिखते ?’ ‘हम लिखते भी हैं और बताते भी हैं, लेकिन लेखन का धंधा नहीं करते. किस तरह बहुसंख्यक तबके को दरकिनार कर सबकुछ प्रचारित किया जाता है, यह तो आप लालगढ़ से भी समझ सकते हैं. लालगढ़ में हमारी ताकत बढ़ी है तो सरकार कह रही है ऑपरेशन सफल हो गया. आप आईये ..देखिये, अंदर गांव में स्थिति क्या है लेकिन इसी तरह जसवंत की किताब को भी देखिये.’ यह कह कर किशनजी ने फोन काट दिया.

किशन जी वही शख्सन हैं, जिसने लालगढ में आंदोलन खडा किया. असल में किशनजी माओवादी संगठन के पोलित ब्यूरो सदस्य कोटेश्वर राव हैं. यह तथ्य लालगढ़ में हिंसा के दौर में खुल कर उभरा था लेकिन सवाल है कि जो तथ्य विभाजन को लेकर नक्‍सली खींच रहे हैं, उसपर कोई राजनेता कभी कलम चलायेगा ?





Read Also –

गढ़चिरौली एन्काउंटर: आदिवासियों के नरसंहार पर पुलिसिया जश्न
सुकमा के बहाने: आखिर पुलिस वाले की हत्या क्यों?
सेना, अर्ध-सेना एवं पुलिस, काॅरपोरेट घरानों का संगठित अपराधी और हत्यारों का गिरोह मात्र है
क्रूर शासकीय हिंसा और बर्बरता पर माओवादियों का सवाल

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]

[ लगातार आर्थिक संकट से जूझ रहे प्रतिभा एक डायरी को जन-सहयोग की आवश्यकता है. अपने शुभचिंतकों से अनुरोध है कि वे यथासंभव आर्थिक सहयोग हेतु कदम बढ़ायें. ]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

चूहा और चूहादानी

एक चूहा एक कसाई के घर में बिल बना कर रहता था. एक दिन चूहे ने देखा कि उस कसाई और उसकी पत्नी…