बिहारी गरीब होते हैं, गंदे होते हैं, बिहारियों को बोलने नहीं आता है, ‘र’ और ‘ड़’ में फर्क नहीं मालूम. कहां पर “स“ और कहा पर “श“ का प्रयोग करना है, बिहारियों को नहीं मालूम … बाकी शहरों में गंदगी फैलाये रहते हैं. कामचोरी और शेखी बघारना जानते हैं. धूर्त होते हैं. एक बिहारी ट्रेन हमारी … आदि आदि.
“दूर देश के राही“ किताब में एक जगह पढ़ने को मिला था आम्रपाली एक्सप्रेस, हावड़ा मेल, हावड़ा एक्सप्रेस, मुजफ्फरपुर-अमृतसर एक्सप्रेस, महानन्दा एक्सप्रेस, श्रमजीवी एक्सप्रेस, विक्रमशिला एक्सप्रेस, अवध-असम एक्सप्रेस जैसी गाड़ियां आती है, लपककर चढ़ना होता है, अपने झुंड के लदे लोगों को चढ़ाना होता है … बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से होकर जो गाड़ियां उत्तर-पश्चिम की ओर जाती है, उनकी छत पर भी तिल रखने की जगह न हो, तो यकीन मान लीजिए कि गाड़ी पंजाब और दिल्ली जा रही है.
गाड़ी में जहां किसी स्टेशन पर डीजल की जगह बिजलीवाला इंजन लगता है, वहां छत पर बैठने वालों को उतार दिया जाता है … उतरने-उतारे जाने पर गाड़ियां बदलते अपनी मंजिल तक जाने का ‘कष्ट’ कुछ खास नहीं है. झिड़की, गाली और कभी-कभार हलका डंडा खा जाने का दर्द भी खास नहीं होता. खास होता है कम ऊंचाई वाले प्लेटफार्म की छत, सिग्नल या किसी अन्य चीज से टकराकर या नींद की झपकी आने पर सीधे छत से लुढ़क जाना, गिरकर खत्म हो जाना या अपाहिज बन जाना, लाश का भी पता न चल पाना, अपने झुंड के लोगों को भी इस ‘गायब’ होने की भनक न लगना. ऐसा एकाध बार नहीं होता, प्रायः होता रहता है. ऐसे कितने लोग मरते हैं, अपाहिज होते हैं, इसका रिकॉर्ड कहीं नहीं मिलेगा.’
आज गुजरात में बिहारी को पीटा जा रहा है. कल महाराष्ट्र में पीटा जा रहा था. परसों कहीं और पीटा जाएगा. जब कोई गरीब बिहारी अपनी मां के पेट में होता है तो वह किसी अन्य राज्य का मजदूर बनकर पेट में पल रहा होता है. यह बिहारी होने की नियति है. आपके लिए बेहद यह सरल होगा कहना कि यहां की सरकार के नीति के कारण ऐसा हुआ है, जिसके दोषी बिहारी स्वयं हैं तो मैं इसे बेहद संकीर्ण सोच कहता हूं। पेट के अंदर पल रहे मजदूरों की तकलीफ को सिर्फ वह दिहाड़ी मजदूर ही समझ सकता है, जो दूर देश में बिना किसी आश्रय के अपने लोगों के लिए आश्रय ढूंढ रहा है.
बिहारी को लेकर गाली खूब सुना है. दिल्ली में रहना हुआ है मेरा. नजदीक से बिहारियों के लिए अपमानित करने वाली बातें सुनी है. बिहारी हूं तो इस तकलीफ को महसूस किया हूं. हमारी भाषा बेहद औसत दर्जे की है. ‘हैं’ और ‘है’ कहां बोलना होता है, हमें नहीं मालूम. हम बिहारी ‘मैं’ को ‘हम’ कहते हैं, बांकियों को सहित्यकी वर्तनी अशुद्धि लगता है लेकिन हम बिहारियों को यह संस्कार लगता है. दिल्ली में रहते हुए बहुत ताने सुना हूं … चलने-बोलने से लेकर कपड़े पहनने तक … भाषा की तो पूछो मत … भाषा की समस्या से बांकियों को क्या परेशानी होती है, मुझे समझ में नहीं आया. हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आये लोगो की भाषा बेहद खड़ी है. ‘मन्ने’ और ‘तन्ने’ को वे गर्व से बोलते हैं और पूरा दिल्ली गर्व महसूस करता है. देश भी गर्व महसूस करता है. महाराष्ट्र से आये लोग मराठी बोलते हैं, तो तकलीफ नहीं होती है. दक्षिण से आये लोग अपनी भाषा बोलते हैं, तो तकलीफ नहीं होती है, तकलीफ सिर्फ बिहारी भाषा से होती है ! यह विडंबना है. समाज का बेहतर पोषण सामाजिक सहिष्णुता से होता है. क्षेत्रवाद और वैमनस्य की भाव से देश आगे नहींं बढ़ सकता. भाषा की दिक्कत आर्थिक पैमाने पर है. सामाजिक पैमाने पर है.
दुनिया के वे तमाम देश जो विकास क्रम में अपने सीमित संसाधनों के बावजूद बेहतर पोजिशन में खड़े हैं, उनके यहां भाषाई एकजुटता है. भारत एक बहुसंस्कृति और बहुआयामी दर्शन वाला देश है, यहां कई भेद हैं, लेकिन इस भेद में आप किसी से नफरतभरा भेद करेंगे तो तकलीफ दीर्घकाल का होगा. कहां से दिक्कत फंस जाएगी, आपको अनुमान भी नहीं होगा. मैं केरला, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश को श्रीलंका यूं ही नहीं कहता हूं. बाल ठाकरे सिर्फ बिहार या किसी अन्य हिंदी भाषी से नफरत वाला आंदोलन का नेता नहीं था बल्कि यह वही ठाकरे था जो दक्षिण भारतीयों के लिए नारा दिया था “लुंगी उठावो, पुंगी बजाओ“ … देश सिर्फ एक सीमित भूगोल से देश नहीं बन सकता है. राज्य की परिभाषा को संविधान ने समझाया है, उसमें सिर्फ भूमि और सरकार के कारण राज्य नहीं है. इसके अलावे भी कारण है, जिसे हम सभी को समझना होगा. समझने से ज्यादा जरूरी अपने अंतरमन में झांकना होगा.
महाराष्ट्र में जब बिहार-यूपी वालों को पकड़-पकड़ के पीटा जाता है, तो यह देश भारत नहीं रह जाता है. पिटाई खाने वाले लोग इस देश को अपना देश नहीं मान सकते. उनके लिए अंग्रेज और मराठा मानुष के नारे देने वालों में ज्यादा फर्क नहीं है. जो देश अपने नागरिक को अपने ही देश में सुरक्षा नहीं दे सकता वह देश उस व्यक्ति के लिए किस काम के !
जब किसी के प्रति घृणा का षड्यंत्र रचा जाता है तो उसके व्यापक आयाम होते हैं. केरल में बाढ़ आई है, पूरा देश केरल के साथ है. मीडिया से लेकर तमाम लोग केरल को अपना शरीर मान रहे हैं. प्रकृति आपदा पर किसका अधिकार होता है ? केरल का दर्द हमारा दर्द है, लेकिन मैं यहीं पर याद दिलाना चाहता हूं कि बिहार के 20 जिले हर साल बाढ़ से प्रभावित होता है. उतने ही सुखाड़ से प्रभावित होता है. बिहार में बाढ़ से हर साल हजारों लोग मर जाते हैं. हजारों पशु बह जाते हैं, फसल डूब जाती है. फिर बिहार के बाढ़ का मजाक उड़ाया जाता है. यहां की बाढ़ प्रकृति आपदा न होकर सिर्फ सरकार की लापरवाही होती है. अगर यह सरकार की लापरवाही है तो यह किसकी सरकार है ? क्या बिहार के लोग चाहते हैं कि वे साल के 7 महीने उजड़े हुए स्थिति में रहें ?
पिछले दिनों नालंदा मेडिकल कॉलेज के अंदर बारिस का पानी घुस गया था. अस्पताल के अंदर मछलियां तैरने लगी थी, वेंटिलेटर के अंदर तक मछलियां घुस गई थी. पत्रकार लोग हंसते हुए रिपोर्टिंग करते हैं. बिहार का मजाक उड़ाया जाता है. क्यों उड़ाया जाता मजाक ? क्या पटना का बाढ़ पटना वाले ने बुलाया था ? केरल की बाढ़ प्रकृति आपदा है तो पटना की बाढ़ प्रकृति आपदा क्यों नहीं ? फिर बिहार पर आप हंसते क्यों हैं ? बिहार की बाढ़ को बिहारियों ने देखा है, जिया है. बाढ़ के बाद तहस-नहस होकर फिर से तनकर खड़े होना बिहारियों ने सीखा है. बिना किसी मदद के धरती को फाड़कर उसमें फसल उगाकर बिहारी हर साल अपने को संवारना जानता है. आप इस तकलीफ और तकलीफ के बाद मुस्कुराते हुए बिहारियों के चेहरे को ठीक 4 महीने बाद देखेंगे. हमारे लिए बाढ़ और सुखाड़ हमारी आदतों में शुमार है. भाषा से लेकर गाली और गाली से लेकर पूरी शिद्दत से हुई बेइज्जती में भी मुस्कुराकर आगे बढ़ जाना बिहारियत है.
- रंजन यादव
Read Also –
घृणा की आग में जलता गुजरात
सरकार की हर योजना गरीब की जेब काट सरकरी खजाने को भरने वाली साबित हो रही है
जाति परिवर्तन का अधिकार, तोड़ सकता है दलित और गैर दलित के बीच खड़ी दीवार
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]