गुजरात के कुछ हिस्सों से बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों पर अत्याचार की हृदय विदारक तस्वीरें देखने को मिली. उत्तर भारतियों के पलायन की खबरें लगातार आ रही हैं. उनकी बस्तियां जलाई जा रही हैं और घर फूंके जा रहे. ट्रेन भी मह्फूज़ नहीं.
बताया जा रहा है कि एक 14 महीने की बच्ची के साथ हुए रेप की वारदात के बाद यह एक स्वतस्व्फुर्त घटना है जो कि कोई भी गैर-भक्त मानने को तैयार नहीं है.
2002 में गोधरा की घटना के बाद हुए सम्प्रदायिक दंगों के समर्थन में इसी तरह की दलीलें दी जाती थी और आज भी दी जाती है. दरअसल, अखलाक, पहलू खांं, नजीब की हत्या के बाद भी इसी प्रकार हत्या को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया गया. 80 के दशक में असम आंदोलन के समय या 90 के दशक में महाराष्ट्र में और हाल फिलहाल कर्नाटक में भी यही pattern रहा.
जो लोग मोदी जी की घृणित सम्प्रदायिक राजनीति के मत्थे सारा दोष मढ़कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं, वे इस समस्या की जड़ तक पहुंच नहीं सकते.
ये सही है कि मोदी जी इसी घृणा की राजनीति की उपज हैं और इसे आगे बढ़ाने में उनका योगदान स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक ऐसा काला अध्याय है जिसे आने वाली पीढियांं न सिर्फ याद करेंगी वरन उसका दंश झेलने को अभिशप्त होंगी.
फिर भी बात यहीं पर खत्म नहीं होती. लोग पूछेंगे 80 में मोदी जी कहां थे ? कर्णाटक, महाराष्ट्र में मोदी जी कहां थे ? और सवाल वाजिब है.
दरअसल, इसके लिए भारत की राजनैतिक, अर्थिक और सामजिक संरचना को समझना होगा.
भारत एक राजनीतिक अस्तित्व बना पहली बार अंग्रजों के शासन काल में लेकिन स्वतंत्र भारत 117 रियासतों में बंटा हुआ एक भौगोलिक सत्य था. ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो विश्व में प्राचीन युग और मध्य युग में कोई भी इतना बड़ा भू भाग एक संप्रभु, राजनीतिक, समाजिक रूप से एक देश नहीं था.
19 वीं सदी में बनी राष्ट्र की अवधारणा रोमन साम्राज्य के दिनों की राष्ट्र की अवधारणा का विस्तार भर था, जिसके तहत एक भू-खंड में रहने वाली अर्थिक ताकतें, या पूंजी के वाहक एक-दूसरे के सहयोग के बिना जब अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराते पाया तो एक आर्थिक consortium के तौर पर एक राष्ट्र अस्तित्व में आया. इस पूंजी की प्रतिस्पर्धा का फल दो विश्व युद्धों के रूप में मानवता को मिला.
आज की परमाणु सम्पन्न विश्व में तृतीय विश्व युद्ध की संभावना ना के बराबर है लेकिन अर्थिक गणित पर बने हुए राष्ट्र अपने पूंजीवादी अन्तरविरोधों के फलस्वरूप implode कर रहे हैं.
असम से लेकर गुजरात की ताजा घटनाओं के पीछे यही अन्तर विरोध सक्रिय है. भारत का एकांगी अर्थिक विकास vertical भी है और horizontal भी. वर्टिकल तौर पर विकास क्षेत्रीय संपन्नता को जन्म देता है और horizontal तौर पर अमीरी-गरीबी की खाई को.
उपरी तौर पर देश और समाज एक रहता है लेकिन अन्दर ही अन्दर ये लाखों टुकड़ोँ में बंटा रहता है और ज़रा-ज़रा सी बात या अनुकूल वातावरण पाकर यह बिखराव साफ़ दिख जाता है.
पूंजी का sectoral concentration गरीब इलाके के लोगों को अमीर इलाकों की तरफ स्वाभविक रूप से ढकेकता है. संपन्न इलाके के पूंजीपति पहले तो गरीब इलाकों से सस्ते श्रम के आयात को बढ़ावा अपने हित में देते हैं, फिर शुरु होती है तथाकथित भीतरी-बाहरी की लड़ाई.
दरअसल आयातित मजदूर जड़ विहीन proletariate होते हैं, जो सही राजनैतिक शिक्षा के अभाव में lumpenise भी हो जाते हैं. लेकिन यह दशा सार्वजनिक नहीं होती, व्यक्तिगत होती है. ठीक वैसे जैसे पूरा समाज सम्प्रदायिक घृणा का गुलाम नहीं होता या criminal नहीं होता, कुछ लोग होते हैं. इन तत्वों की करनी का फल पूरे समाज को भोगना पड़ता है.
दूसरी तरफ, तथाकथित भीतरी लोग सिकुड़ती आर्थिक ज़मीन पर तथाकथित बाहरी लोगों का कब्जा देख कर असन्तोष और गुस्से से भरे होते हैं. समाज बारूद के ढेर पर बैठे हुए उस बच्चे की तरह होता है जिसके परखच्चे ज़रा सी आग लगने पर उड़ना तय है.
यही अर्थिक विषमताएं घृणा और अविश्वास की राजनीती को जन्म देती है, जिसके उपज नरेंद्र मोदी हैं.
फिर भी मैं बताना चाहूंंगा कि स्वतंत्रता के बाद जिस तरह भारत की अर्थवयवस्था पूंजीपतियों और उनके दलालों के हाथों आ गई, उस process की स्वाभविक परिणति साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, जातिवाद और अमीरी-गरीबी के फर्क के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता था. हम पतन्नोशील पूंजीवाद के सबसे वीभत्स युग में जी रहे हैं और इसके लिए कई पीढियांं जिम्मेदार हैं.
आखिर में –
लम्हों ने खता की थी
सदियों ने सजा पाई है.
- सुब्रतो चटर्जी
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