सत्ता में आने के पूर्व भाजपा के कई लुभावन नारों में एक प्रमुख नारा था – ‘अब न सहेंगे पेट्रोल-डीजल की मार, अबकी बार मोदी सरकार’. पिछली सरकार के कामकाज से असंतुष्ट जनता ने इनकी बातों को राहत के विकल्प के तौर पर देखा और इनकी बातों और इनके कमल पर मुहर लगा दी. लेकिन सत्ता में आतें ही मोदी सरकार ने अपने वादों को ‘जुमला’ कहना शुरू कर दिया. अपने 4 साल पूरे होने पर मोदी सरकार अपनी उपलब्धियां गिना रही है लेकिन पेट्रोल-डीजल के मामले में चुप्पी साधे हुए है.
मनमोहन सरकार के समय कच्चे तेल की कीमत 100 डॉलर प्रति बैरल थी और उस समय पेट्रोल पर कुल 43 प्रतिशत टैक्स लगता था. मोदी सरकार के कार्यकाल में तो ज्यादा समय तक कच्चे तेल की कीमत घटती गई या स्थिर रही. जनवरी, 2016 ई. में तो कच्चे तेल की कीमत 28 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई थी. साफ है उस दौर में सरकार ने बहुत अच्छी कमाई की और चाहती तो इस गिरावट का फायदा जनता को दे सकती थी. जनता भी इसी आशा में थी. पर हुआ ठीक इसका उल्टा.
ज्यादा से ज्यादा कमाई करने के चलते सरकार ने पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद-शुल्क बढ़ा दिया. पिछले चार सालों में सरकार ने नौ बार पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाया और सिर्फ एक बार इसमें कटौती की. परिणाम यह हुआ कि 2014-15 में मोदी सरकार को पेट्रोलियम सेक्टर से मिलने वाला राजस्व 3,32,620 करोड़ रूपये थो, जो 2016-17 में बढ़कर 5,24,304 करोड़ रूपये तक पहुंच गया. 2017-18 के पहले 6 महीनों में ही सरकार को पेट्रोलियम सेक्टर से मिलने वाला राजस्व 3,81,803 करोड़ रूपये पहुंच गया, जो कि 2014-15 के पूरे साल से ज्यादा है.
सरकार ने तेल को मोटी कमाई का बेहतरीन जरिया मान लिया है इसलिए इसे जीएसटी के दायरे से भी बाहर रखा है. हलांकि पेट्रोलियम और पेट्रो-उत्पादों को 1995 ई. के एक्ट की धारा-2 के तहत् आवश्यक वस्तुओं की सूची में शामिल किया गया है, पर सरकार की नीति देखिए – दिल्ली में पेट्रोल की रिफाइनरी लागत पर करीब सौ फीसदी तक और डीजल पर करीब 50 फीसदी तक टैक्स लिया जाता है.
मोदी सरकार की तरफ से कई मंत्री विकास कार्यों का हवाला देकर पेट्रोल-डीजल की कीमतों में वृद्धि का औचित्य साबित करते रहते हैं किन्तु इससे अर्थव्यवस्था के बांकी क्षेत्र कितने प्रभावित होते हैं, इस प्रश्न पर बगलें झांकने लगते हैं.,
आज का दौर ‘पेट्रोल-डीजल बिन सब सून’ का दौर आ गया है. सरकारों का ध्यान केवल शहरों को चकाचौंध करने पर है. सरकारों के लिए विकास का मतलब शहरों में चमचमाती सड़कें, लक्जरी गाड़ियां, बड़े-बड़े मॉल हैं. इसलिए महानगरों को छोड़कर सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का सर्वत्र अभाव है. इसलिए निजी वाहन लोगों की मजबूरी है. यही कारण है कि पेट्रोल-डीजल की आसमान छूती कीमतों के वाबजूद भी भारत में इसकी खपत दिन-व-दिन बढ़ती ही जा रही है. वैश्विक परिस्थितियां जिस तरह बदल रही है, उसके मद्देनजर भारत में पेट्रोल-डीजल क्रमशः 100 और 90 रूपये प्रति लीटर पहुंचने की आशंका निर्मूल नहीं है. इसके लिए सरकार के पास दो उपाय हैं. एक यह कि वह पेट्रोलियम पदार्थों की राशनिंग करें और दूसरा उक्त वस्तुओं पर लगाया जाने वाला कर घटाकर जनता को राहत दें. सरकार की मुश्किल यह है कि पहला काम अलोकप्रिय है, और दूसरा खजाने में कटौती.
हिन्दुस्तान के पड़ोसी छोटे-छोटे मुल्कों में यहां की तुलना में इनके दाम काफी कम है. पड़ोसी मुल्क नेपाल में भारत द्वारा पेट्रोलियम पदार्थ की आपूर्ति होती है. भारत-नेपाल सीमा के रक्सौल इंडियन ऑयल का एक बड़ा तेल डिपो है, जहां रेल के माध्यम से प्रतिदिन 300 से 400 तेल टैंकर नेपाल ऑयल निगम को जाती है और बिडंबना देखिए कि भारत से नेपाल जाकर वही पेट्रोल-डीजल की कीमतों में 15-17 रूपये प्रति लीटर सस्ता मिलता है. यह दर्शाता है कि हमारे देश में सरकार चाहे केन्द्र की तो हो या राज्य की, वह पेट्रोल-डीजल पर भारी भरकम कर लगाकर आम जनता का तेल निकाल रही है.
जीएसटी लागू होने के बाद भ्रम हुआ था कि सरकार पेट्रोलियम पदार्थों को उसके अन्तर्गत लाकर कुछ राहत प्रदान करेगी परन्तु केन्द्र सरकार की ढ़िलाई और राज्यों की रूसवाई ने सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया, जिससे सरकारी मुनाफाखोरी पूर्ववत् जारी रही. अब जबकि पानी गर्दन से ऊपर आने को है, आमजन को कमर कसकर तेल का पैसा पीकर सरकार के मोटे हुए गर्दन को पकड़कर उसे तेल पर लगे आवश्यक कर कटौती करने के लिए मजबूर करने की जरूरत है.
- संजय श्याम
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