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भारत की सम्प्रभुता आखिर कहां है ?

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[ किसी भौगोलिक क्षेत्र या जन समूह पर सत्ता या प्रभुत्व के सम्पूर्ण नियंत्रण पर अनन्य अधिकार को सम्प्रभुता कहा जाता है. सार्वभौम सर्वोच्च विधि निर्माता एवं नियंत्रक होता है यानि संप्रभुता राज्य की सर्वोच्च शक्ति है. परन्तु हमारे देश की राजसत्ता 1947 ई. की तथाकथित आजादी के बाद भी सम्प्रभुता सम्पन्न नहीं रहा है, इसका कारण यही रहा है कि भारत की आजादी लड़ कर हासिल नहीं की जा सकी है, बल्कि विभिन्न कारणों से कमजोर हो चुकी ब्रिटिश राजसत्ता ने एक नियम के तहत दी है, जिसका निहितार्थ यही है कि वह हमेशा ही गोरे अंग्रेज की जगह काले अंग्रेज राज करेंगे और ब्रिटिश हुकूमत का वफादार रहेंगे. तब से ही हमारा देश विदेशी हुकूमत की अप्रत्यक्ष निगरानी में रह रहा है, जिसकी ओर रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने ईशारा भर किया है, जिसे समझना हर देशवासियों को चाहिए ताकि वह अपनी सम्प्रभुता की रक्षा के लिए अपनी आजादी की मांग को एक बार फिर से उठा सके, जिसे भगत सिंह ने पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति का मार्ग बतलाया था. ]

भारत की सम्प्रभुता आखिर कहां है ?

भारतीय प्रधानमंत्री ने हाल ही मेंं रूस मेंं 21वी सेंट पीट्सबर्ग अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक फोरम के विस्तृत सत्र मेंं हिस्सा लिया था. सत्र के दौरान मेजबान NBC के मेगन केली द्वारा US के राष्ट्रपति चुनाव में रूस के दखल देने के सवाल पूछने पर रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन ने US इंटेलीजेंस कम्यूनिटी के बारे में बोलने के अलावा, कुछ पल रुके और इस अवसर का उपयोग दुनिया के तमाम देशो में सम्प्रभुता के स्तर पर बोलने में किया.

“पूरी दुनिया में ज्यादा देश नहीं है, जो सम्प्रभु हैं. मैं ये कहकर किसी की भावना नहीं आहत करना चाहता कि… सम्प्रभुता सीमित है. और मिलिट्री समझौते के साथ तो ये आफिसियली सीमित है. उनका समझौता हर प्रतिबंध का विवरण देता है और व्यावहारिकता में तो ये प्रतिबंध और ज्यादा सख्त होता है, जिसकी अनुमति हो उसके अलावा किसी और चीज की इजाजत नहीं होती, और कौन इसकी अनुमति देता है, वो नेता (जो बहुत दूर बैठे हैं) ? इसलिये वैश्विक स्तर पर ज्यादा देश नहीं है, जो सम्प्रभु हैं. और हम अपनी सम्प्रभुता की हिफाजत करते रहे हैं क्योंकि हम सम्प्रभु हैं. हम मूर्खतापूर्ण तरीके से इसे एंज्वाय कर सकते हैं पर सम्प्रभुता की जरुरत हमारे हितों की रक्षा के लिये जरूरी है, ये कोई खिलौना नहीं बल्कि हमें अपने विकास के लिये इसकी जरूरत है.”

और फिर, पुतिन अपने बगल मे बैठे भारतीय प्रधानमंत्री की तरफ सीधे मुखातिब हुये और उन्हें भारतीय सम्प्रभुता पर मंडरा रहे खतरे पर सीधे सम्बोधित करने लगे.

“भारत की अपनी सम्प्रभुता है. ये उनके पास है और इस पर उनका अधिकार है. और मैं माननीय भारतीय प्रधानमंत्री जी से कहूंगा, हालांकि कल रात हम डिनर पर एकांत में थे और हमारे बीच लम्बी बातचीत में भी ये मैंने कभी नहीं कहा था पर अभी मैं कहूंगा कि हम इंडिया को ऐसी स्थिति मेंं, जो किसी और के लिये तो लाभकारी होगी पर भारतीय लोगों (और रूस के भी) के लिये लाभकारी नहीं होगी. ऐसी तमाम कोशिशोंं के संदर्भ में हम भारतीय प्रधानमंत्री और उनकी लीडरशिप और उनके देश की स्थिति जानते हैं. भारत को, जिसकी नींव उसकी सम्प्रभुता, नेतृत्व के चरित्र और राष्ट्रीय हितों में है ऐसे गलत रास्ते पर नहीं जाना चाहिये और ना ही ऐसे लोगों की सलाह पर ध्यान देना चाहिये. परंतु दुनिया में भारत जैसे कुछ ही देश हैं और हमें ये ध्यान रखना चाहिये. भारत उनमें से एक है, चाइना का भी उदाहरण दिया जा सकता है, कुछ और भी देश हैं पर ज्यादा नहीं. और दूसरों को गाइड करने के ऐसे प्रयास, अपनी इच्छा देश के भीतर या बाहर के किसी व्यक्ति के ऊपर थोपना जारी रहा तो ये अंतर्राष्ट्रीय मामलों के लिये घातक होगा और मैं अपनी बात के अंत में कहना चाहूंगा कि जल्द ही इसका अंत होगा.”

पुतिन ने जो ये गम्भीर मुद्दा उठाया उसे रूस के विदेश मंत्री सर्गई लावरोव ने सेंट पीट्सबर्ग अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक फोरम के 2 हफ्ते बाद मास्को मे हुई एशिया और अफ्रीकी देशो की एकता और सहयोग पर एक कमेटी मीटिंग के दौरान और स्पष्ट किया. कांफ्रेंस के दौरान लावरोव ने जोर दिया कि “रूस ने परम्परागत तौर पर एशिया और अफ्रीकी देशों की सम्प्रभुता की आकांक्षाओं को समर्थन दिया है, और उल्लेख किया कि ‘अपना भविष्य अपने हाथो खुद तय करने की चाहत जोर पकड रही है’.”

रूस के मंत्री ने आगे कहा कि “ये स्थिति उपनिवेशीकरण के खिलाफ संघर्ष के दिनों में भी परिलक्षित हुई थी. ये दुबारा से स्वतः परिलक्षित हो रही है. हम जानते हैं कि हमारे कई पश्चिमी मित्र देश निजी एकपक्षीय हल के लिये इन क्षेत्रों को भौगोलिक राजनीतिक विवाद के क्षेत्र में बदलने की कोशिश कर रहे हैं. वो अपने तरीकों को दूसरों के आंतरिक समस्याओं में थोपने की कोशिश कर रहे हैं. हम जानते हैं कि वित्तीय, आर्थिक और कई अन्य परिस्थितियों को ध्यान मे रखते हुये इसका प्रतिरोध कर पाना कितना मुश्किल है. और फिर भी, हम देखते हैं कि अपने भविष्य तय करने का अधिकार अपने हाथ में रखने की इच्छा बलवती हो रही है. हम पूरी शक्ति से इसका समर्थन करते हैं, रूस कई वर्षों से इसी रुख का पालन करता रहा है.”

“हमें खुशी है कि हमारे सभी देश, रूस, एशिया, अफ्रीका के सभी देश, और लैटिन अमेरिका के ज्यादातर देश बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के समर्थक हैं. और हमारे सभी देशों ने यूएन जनरल सभा द्वारा पिछले दिसम्बर में पारित कई महत्वपूर्ण प्रस्तावों का समर्थन किया है. इन प्रस्तावों का लक्ष्य और अधिक न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था के बनने को प्रोत्साहन देना है. जिन आधारभूत सिद्धांतों का हमारा देश पालन करता है वो सब इसमें दृष्टिगोचर होते हैं. ये प्रस्ताव सम्प्रभु देशों के आंतरिक मामलों में दखल को रोकते हैं. ये राष्ट्रों के अपना भविष्य खुद तय करने के अधिकार के सम्मान के महत्व को भी दर्शाता है. इसके अतिरिक्त, ये किसी सैनिक कब्जे या अपने राष्ट्र के कानून थोपकर और अपने क्षेत्रीय सीमाओं का उल्लंघनकर सत्ता परिवर्तन की किसी कोशिश की सम्भावना से इनकार करता है.”

“वो देश जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मामलों में कई सदी तक इसकी आवाज उठाई है वो इस भूमिका को छोडने को तैयार नहीं हैं, हालांकि सोद्देश्य वो ये अब और उस तरह कर भी नहीं सकते जैसा उन्होंने पूर्व में किया है. परंतु हम और मैं जानते हैं कि आपका देश भी उस मुकाम पर है, हम अपने राष्ट्रहित की हिफाजत किसी को नुकसान की कीमत पर नहीं करते. हमारा इरादा बिलकुल साफ है. ये हर कोई समझ सकता है, और हम अंतर्राष्ट्रीय मामलों में सर्वसम्मति चाहते हैं.”

रूस के राष्ट्रपति और उनके विदेश मंत्री जो संकेत कर रहे हैं वो है भारत का झुकाव और निकटता. एक अध्ययन के अनुसार, वैश्विक कार्पोरेट नियंत्रण का नेटवर्क जिसे वैश्विक कुलीनतंत्र कह सकते हैं. यही वो झुकाव है जिससे भारत मे भू-राजनीतिक विवादों को न्यौता मिल रहा है, जो भारत को दूसरे देशों के साथ और ज्यादा विवादों में घसीट रहा है. सही शब्दों में इसी “वैश्विक नियंत्रण के लिये लडाई” को दूसरे देशों में फैलने से रोकने के लिये ही Non Alignment Movement (NAM) का गठन हुआ था. भारत ऐतिहासिक रूप से NAM का फाउंडर रहा है और तीसरी दुनिया के देशो को नेतृत्व देकर इसे अपने आप मे एक शक्ति बनाया था. परंतु भारत ने वेंजुएला में हुये पिछले NAM सम्मेलन मे ना जाकर एक बडे बदलाव का संकेत दिया है. ये 1979, जब कार्यवाहक प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह हवाना में हुये सम्मेलन में शामिल नहीं हुये थे, के बाद पहला NAM सम्मेलन था, जिसमें भारत के पीएम शामिल नहीं हुये.

फिर भी, अब भी, बहुत देर नहीं हुई है और इस संकट से उबरे विश्व में दुनिया के तमाम देश अब भी भारत की तरफ नेतृत्व के लिये देख रहे हैं. बस एक ही सवाल है कि भारत का नेतृत्व कौन करेगा ?

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