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अरूण श्रीवास्तव : अपने नेताओं की, धार्मिक आयोजनों में भागीदारी को बहुत से वामपंथी, सही ठहराने की कोशिश करते हैं. पर एक मार्क्सवादी अच्छी तरह जानता है कि यह आचरण अवसरवादिता के अलावा और कुछ भी नहीं है और एक कम्युनिस्ट के लिए पूरी तरह अस्वीकार्य है.
नेता, संगठन की चेतना का मूर्त रूप होता है. सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी के हर सदस्य के लिए मार्क्सवादी होना तथा आलोचक होना पहली और अनिवार्य शर्त है. कम्युनिस्ट पार्टी के नेता के लिए, उसकी व्यक्तिगत सोच या कर्म तथा उसकी पार्टी की सामूहिक चेतना या व्यवहार में कोई अंतर्विरोध नहीं होना चाहिए और मार्क्स ने समझाया था कि हर आलोचना धर्म की आलोचना से शुरू होती है. जनता का फ़ौरी समर्थन हासिल करने के लिए कम्युनिस्ट को झूठ नहीं बोलना चाहिए. कम्युनिस्ट जनता का समर्थन तथा विश्वास अपने आचरण से जीतता है, न कि सामंतवादी तथा बुर्जुआ विचारों का समर्थन करके क्योंकि जनता उन विचारों के वशीभूत है और वे जनता को फ़ौरी तौर पर मानसिक शांति प्रदान करते हैं.
जितेन्द्र जीत : क्रान्ति की देवी के सामने नतमस्तक
नवनीत नव : सी.पी.एम. वाले इतने बेशर्म हैं कि अब यह कुतर्क कर रहे हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने के लिए नास्तिक होना कतई जरूरी नहीं. यह कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य होने की शर्त नहीं है.
चलिए देखते हैं इनके कुतर्कों की सच्चाई. आस्तिक-नास्तिक की बात बाद में करेंगे. सबसे पहले कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने के लिए कम से कम कम्युनिस्ट तो होना ही चाहिए. कम्युनिस्ट कौन होता है ? जो मार्क्सवाद को मानता हो. सही ? और मार्क्सवाद क्या है ? मार्क्सवादी सिद्धांत के तीन स्तम्भ हैं. मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र, मार्क्सवादी दर्शन यानि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और वैज्ञानिक समाजवाद. अभी फिलहाल के लिए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की बात करते हैं. इसकी फिलॉसॉफी है भौतिकवाद यानि इसके अनुसार भूत द्रव्य यानि पदार्थ ही सर्वोपरि होता है. चेतना पदार्थ पर निर्भर करती है. पदार्थ से इतर चेतना का अस्तित्व नहीं होता. हालांकि मानवीय चेतना पदार्थ को प्रभावित करती है लेकिन यह पैदा तो पदार्थ से ही होती है. जाहिर है पदार्थ से अलग या इससे ऊपर कोई चेतना नहीं है, मतलब कोई भी ऐसी शक्ति नहीं है जो प्रकृति से ऊपर हो. मतलब कोई ईश्वर भी नहीं है. मार्क्स एंगेल्स लेनिन सबने यह बात स्पष्टता के साथ लिखी है. फिर यह फिलॉसॉफी भौतिकवादी है और इसकी पद्धति द्वंद्वात्मक यानि यह हर चीज को सम्पूर्णता में देखती है, टुकड़ों में नहीं, हर चीज को गति में देखती है, ठहराव में नहीं और निरन्तर बदलाव में विश्वास रखती है. यह बदलाव पदार्थ के अंदर के अंतर्विरोधों की वजह से होता है और ये अंतर्विरोध पदार्थ का गुण होते हैं.
बहरहाल यह तो स्पष्ट है कि कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने के लिए कम्युनिस्ट होना जरूरी है और कम्युनिस्ट होने के लिए द्वंद्वात्मक भौतिकवादी होना जरूरी है. जो द्वंद्वात्मक भौतिकवादी होता है वह बाई डिफ़ॉल्ट नास्तिक होता है. वह ईश्वरीय सत्ता में विश्वास नहीं रखता इसलिए यह एक घटिया तर्क है कि कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने के लिए नास्तिक होना जरूरी नहीं. बहुत शातिराना बात है ये.
अब इनका दूसरा तर्क है कि जनता से जुड़ने के लिए जनता की आस्था को भी अपनाना जरूरी है. क्या सच में ? यह पूंजीवाद है. पूंजीवाद में तो जनता के विचार भी पूंजीवादी होते हैं. तो क्या कम्युनिस्टों को भी पूंजीवादी हो जाना चाहिए ? बिल्कुल भी नहीं. कम्युनिस्ट का काम जनता की चेतना के स्तर को ऊपर उठाने का होता है, ना कि जनता की चेतना के स्तर तक खुद को लेकर जाने का. लेनिन अपने लेख “समाजवाद और धर्म” में लिखते हैं कि नास्तिकता का प्रसार करना हमारे कार्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है. इसके लिए हमें उन परिस्थितियों पर चोट करनी चाहिए जिनकी वजह से जनता धार्मिक होती है, यानि व्यवस्था के ऊपर. जाहिर है लेनिन स्पष्ट हैं. रूस की बोल्शेविक पार्टी हो या चीन की कम्युनिस्ट पार्टी, किसी ने भी जनता से जुड़ने के लिए जनता की आस्था का सहारा नहीं लिया और सफलता से क्रांति का नेतृत्व भी किया. तो इनका यह तर्क भी बिल्कुल बकवास है. अगर नास्तिक होने से जनता से कोई कट जाता है तो सबसे ज्यादा कटे हुए भगत सिंह होने चाहिए थे जो डंके की चोट पर खुद को नास्तिक घोषित करते थे लेकिन भारत की जनता के दिलों में भगत सिंह से ज्यादा कौन बसा हुआ है ?
एक वरिष्ठ साथी हैं. मुझे कहने लगे कि आप मार्क्सवादी हो, फिर भी सी.पी.एम. की आलोचना क्यों करते हो ? मैंने कहा मार्क्सवादी हूँ, भक्त नहीं. जो गलत होगा उसकी आलोचना तो करूँगा ही. मार्क्स ने भी कहा है कि हर चीज पर सवाल खड़ा करो, तो जाहिर है.
विजय राज बली माथुर : 1964 में भाकपा का विभाजन कहने के लिए तो चीनी आक्रमण का समर्थन और विरोध के नाम पर हुआ था लेकिन उसके पीछे असलियत यही थी कि ब्राह्मण कामरेड्स को लगा कहीं obc और sc कामरेड्स हावी न हो जाएँ इसलिए सुरक्षित ठिकाना तलाशा गया था. फिर तीन वर्ष बाद 1967 में नकसलबाड़ी आंदोलन के नाम पर माकपा के ब्राह्मण वाद के विरुद्ध बगावत व एक और विभाजन हुआ जिसके बाद तो काम्यूनिस्ट आंदोलन के विभाजन – दर – विभाजन का सिलसिला चल निकला तथा आज सौ से अधिक गुट या पार्टियां मौजूद हैं. सभी गुट और पार्टियां खुद को ‘ नास्तिक ‘ (एथीस्ट) घोषित करती हैं व कार्ल मार्क्स एवं शहीद भगत सिंह की आड़ लेती हैं.
इधर कुछ वर्षों में बंगाल CPM से कामरेड्स भाजपा में शामिल हुये हैं और केरल CPM में भाजपा कार्यकर्ता शामिल किए गए हैं. अब राहुल कांग्रेस की ही तरह CPM भी पोंगा – पंथ का सहारा लेती दीख रही है.
अजय कबीरः एक कम्युनिस्ट का कार्य सड़े गले संस्कृति में हिस्सा लेना नहींं, एक नई संस्कृति तैयार करना है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए विभिन्न विषयों पर गोष्ठी, वैज्ञानिक समाजवाद की समझ के लिए वर्कशॉप और वर्तमान समस्याओं के विरोध के लिए विभिन्न आंदोलन करना न कि पुरातन सांस्कृतिक कार्यक्रमों में, फूलों की गठरी सर पर रखना, अलग अलग पोशाक में, अलग अलग वेशभूषा में पिछड़ी चेतना से लैस जनता के साथ करतब दिखाना. इन सबमें तो दक्षिणपंथी आलरेडी पीएचडी हैं, उन्हें करने दें.
प्रो. घासी राम : बौद्ध धर्म स्वीकार करने पर भारत के वामपंथी बाबा साहब अंबेडकर की घनघोर आलोचना करते हैं लेकिन जब सीताराम येचुरी सर पर कर्मकांड ढो रहे हों भले ही वो कोई सामान्य त्योहार हो, हालांकि भारतीय त्यौहारों में धार्मिकता का पुट हरेक में होता ही है, तो भी उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि केरल में अखंड रामायण का पाठ क्यों करा रहे हैं और पिछले साल तो जन्माष्टमी तक मनाई थी सीपीएम ने.
आप ग़लत बात को कबतक सही ठहराते रहेंगे जबकि जनता के प्रति वफादारी को कोई सालों पहले ही ताक पर रख दिया हो. सीपीआई, सीपीएम, फारवर्ड ब्लाक, सीपीआई एमल लिबरेशन आदि आदि का पतन और होना बाकी है. ये भारतीय सत्ताधारियों के सेफ्टी वॉल्व हैं इन्हें बचाने की कोशिश आपके किसी काम नहीं आएगी…अति वामपंथियों!
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