Home गेस्ट ब्लॉग बेरोजगारी और गरीबी का दंश झेलता भारत की विशाल आबादी

बेरोजगारी और गरीबी का दंश झेलता भारत की विशाल आबादी

15 second read
0
1
1,295

बेरोजगारी और गरीबी का दंश झेलता भारत की विशाल आबादी

वैश्वीकरण की प्रक्रिया, जिसे कि भाजपा सरकार कांग्रेस से भी तेजी से लागू कर रही है-जैसे, हाल में लागू किए गए नोटबंदी, जीएसटी, रिटेल या खुदरा व्यापार एवं भवन निर्माण में 100% विदेशी निवेश आदि. यह पूंजीवाद का नवीनतम चरण है. देश में यह नई आर्थिक नीति के नाम से साल 1991में लागू की गई. इसका बुरा प्रभाव पूरे अर्थव्यवस्था के विकास, विशेषकर रोजगार, पर बहुत तेजी से पड़ रहा है. विकास का एक पहलू यदि उत्पादन है तो दूसरा पहलू रोजगार है. अब दुनिया भर में अर्थशास्त्रियों का कहना है कि रोजगार विहीन विकास हो रहा है. तब चुनावी वायदे में भाजपा जोरदार ढंग से वादा किया कि प्रति वर्ष 2 करोड़ रोजगार का सृजन सरकार करेगी लेकिन केन्द्र में शासन के चौथे साल में रोजगार के नाम पर पकौड़ा बेचने वाले, चना बेचने वाले को गिनाने लगे. श्रमशक्ति की बदतर स्थिति का जायजा, अर्जुन सेन गुप्ता कमिटि के रिर्पोट से जाहिर है. इसके अनुसार 78% लोग (अर्थात् करीब 94 करोड़ आबादी) 6 रुपया से 20 रु. प्रतिदिन पर जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं. योजना आयोग ने प्रति दिन प्रति व्यक्ति 26 रु. तक उपभोग करने वाले ग्रामीणों को गरीबी की श्रेणी में रखा है और शहरी गरीब 32 रु- तक उपभोग खर्च करते हैं. ऐसे देश में राष्ट्रपति का वेतन दोगुणा बढ़ाकर अन्य भत्ता एवं सुविधाओं के अलावे 5 लाख रूपया, प्रधानमंत्री का एक लाख 65 हजार, दफ्रतरशाही में सर्वोच्च पदों पर तीन लाख एवं अन्य दफ्रतरशाही के लाखों के वेतन एवं सुविधाएं आदि कहा जा सकता है कि श्रमशक्ति के भूखे रहने की कीमत पर है. अतः देश की तरक्की के लिए मात्र देश की आय में वृद्धि आवश्यक नहीं बल्कि आय का अनुकूल वितरण करने का सवाल है. यह पूंजीवादी लोकतंत्र में तो संभव नहीं दिखाई देता है. श्रमशक्ति की आय का बढ़ना आवश्यक है क्योंकि उसके बिना मांग में बढ़ोतरी नहीं होगी. आइये देखते हैं करीब चार दशकों में भारत में श्रमशक्ति की स्थिति क्या है ?

2011 जनगणना के अनुसार कोई भी व्यक्ति जो किसी आर्थिक कार्यकलाप में मुनाफा/ लाभ या बिना मुनाफा या लाभ के लिए भागीदारी करता है उसे श्रमिक या कामगार कहा गया है. जनगणना 2011के अनुसार श्रमिकों की आबादी 48 करोड़ 17 लाख 43 हजार 311 है या कार्य भागीदारी दर 39-8 फीसदी. इनमें मात्र 2 करोड़ 95 लाख ही संगठित क्षेत्र में सम्मानजनक वेतनभोगी हैं. बाकी के श्रमशक्ति में कई श्रेणी के किसान, खेतिहर मजदूर, छोटे -छोटे विनिर्माण इकाई के मजदूर या ठेका मजदूर, रिक्शाचालक, ठेला चालक, बढ़ई, दर्जी, हस्तकार, शिल्पकार, चर्म शिल्पी, घरेलू कामगार, रेजा, कुली, ईंट भट्टा में काम करने वाले श्रमिक, स्वास्थ्य कर्मी, आशा कर्मी, आंगन बाड़ी सेविका, मध्याह्न भोजन रसोईया, खोमचा वाला, टोकरी वाले, फेरी वाले, मनरेगा श्रमिक, बढ़ई, सफाई कर्मी आदि हैं. कुल कामगारों में महिला की संख्या 14 करोड़ 98 लाख 77 हजार 381 है या महिला कार्य भागीदारी दर 25.5 है. यह पिछले जनगणना 2001 की 27 फीसदी की तुलना में कम ही है. पुरुष श्रमशक्ति की आबादी 33,18,65,930 है या कार्य भागीदारी-दर 53.3 फीसदी है. वहीं बिहार में श्रमशक्ति की संख्या 3,47,24,987 (कार्य भागीदारी दर है 33.4%)जिसमें पुरुष श्रमिकों की संख्या 2,52,22,189 (46.5% भागीदारी दर) हैं और महिला श्रमशक्ति 95,02,798(19-1% भागीदारी-दर) है. जाहिर है पुरूष और स्त्री भागीदारी दर में काफी अंतर है जहां तक बिहार और भारत का सवाल है. श्रमशक्ति का यह लिंग भेद इस प्रदेश में 1981 और 1991 के तुलना में 2001 में कुछ कम हुआ.

साल 1981 में स्त्री श्रमशक्ति की आबादी बिहार में 11 फीसदी थी तो थोड़ा बढकर साल 1991 के दौरान करीब 12 फीसदी हो गई और 2001और 2011 में बढ़कर 19 और 19.1 फीसदी हो गई. तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो पुरूष भागीदारी दर चार दशकों में 49 से 46.5 फीसदी के बीच रहा अर्थात चार दशकों की लम्बी अवधि भी स्त्रियों और पुरूषों के भागीदारी दर में व्याप्त गहरी खाई को पाटने में असमर्थ रही है. अतः बिहार में देश की आर्थिक नीतियां स्त्री सशक्तीकरण करने के बजाए स्त्री श्रमशक्ति और पुरूष श्रमशक्ति के बीच खाई बढ़ा रही है.

अब सवाल उठता है कि क्या सभी को साल के बारह महीने काम मिलता है ? क्योंकि इसपर उनके बेकारी का जायजा लिया जा सकता है. इसका जवाब है देश में मात्र 75.2 फीसदी को ही 183 दिन/ 6 महीने या उससे अधिक का काम मिलता है जिन्हें मुख्य कामगार की श्रेणी में रखा गया है. छः महीने काम करने के बावजूद इन्हें अधिकांशतः सम्मान जनक जीने के लिए आमदनी नहीं होती है. जिन्हें छः महिना या 183 दिनों से कम काम उपलब्ध होता है उन्हें सीमान्त श्रमशक्ति की श्रेणी में रखा गया है. देश में 11,92,96,891 (24.8%)सीमान्त श्रमशक्ति हैं. इनमें बड़ी संख्या स्त्री कामगारों की है. ये हाशिये पर हैं 6,05,80320 (40%). कुल सीमान्त श्रमशक्ति में से करीब 80% को 3 महीने से 6 महीने तक काम मिलता है। अधिकांशत: इनमें से असंगठित रोजगार में हैं जिन्हें काम करने के बाद भी न्यूनत्तम पारिश्रमिक भी नसीब नहीं हो पाता है. अन्य शब्दों में कह सकते हैं कि मेहनतकश को एक बेला फांका ही बिताना पड़ता है. इनमें वैसे श्रमशक्ति भी हैं जो स्वंय रोजगार करते हैं या बीड़ी मजदूर, धुपबती बनाने वाले, माला बनाने, आदि का काम करते हैं. खेतिहर, खेतिहर मजदूर, ठेका मजदूर आदि हैं. देश में 1981 और 1991 में 9 फीसदी सीमान्त श्रमशक्ति थें जिनका अनुपात 2001 में अचानक बढ़कर 22-2 फीसदी हो गया. यानी नई आर्थिक नीति के दस साल बाद का समय. अतः वैश्वीकरण या नई आर्थिक नीति ने रोजगार के मामले में अर्थव्यवस्था को चरमरा कर रख दिया.

बिहार में औसत देश की तुलना में मुख्य श्रमशक्ति और भी कम हैं यानी 61-5 फीसदी श्रमिकों (संख्या में देखें तो 2,13,59,611) को 183 दिन या इससे अधिक दिन काम मिला अर्थात 10 में से 6 श्रमशक्ति को 183 दिन या इससे अधिक दिन काम मिला. कुल स्त्री श्रमशक्तियों में से मात्र 40 लाख 88 हजार 921 यानी 43% ही मुख्य कामगार हैं जो कि पुरूष श्रमशक्ति की तुलना में 18.5% कम हैं। यानी 57% स्त्री कामगार साल में करीब छः महीने या इससे बेकार रहती हैं. स्त्री सीमान्त श्रमशक्ति का अनुपात 1981 में मात्र 5 फीसदी था जो कि 1991 में बढ़कर 24% हो गया और 2001 में तो 53% हो गया. एक तो स्त्री कामगार की संख्या ही पुरूष कामगार की तुलना में बहुत कम है, इसके बाद भी ये हाशिये पर हैं. हाल में आये नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे-4 के अनुसार तो महिलाओं की बेकारी पिछले दस सालों में और भी बढ़ी है. औसत देश के संदर्भ में जहां 2005-06 में 43% विवाहित महिलाओं को रोजगार मिला था वहीं 2015-16 में मात्र 31» को ही रोजगार मिला. सर्वे के एक साल पहले यानी 2014-15 में 81% महिलाओं ने बेरोजगार बताया.

भाजपा सरकार का दो करोड़ रोजगार प्रति वर्ष देने का वादा जाने कहां गया ? अब तो लाखों-लाख सरकारी कार्यालयों, विश्वविद्यालयों, सरकारी अस्पताल आदि संस्थानों में बहाली लंबित है. इस आशय का संसद में जवाब तलब भी हुआ है. यहां तक कि आई. टी. सेक्टर और अन्य स्थानों में नई तकनीकी, ऑटोमेशन यानी आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस आदि के चलते रोजगार कम हो रहा है. नौकरी के बीच में भी उच्च तकनीकी प्रशिक्षित लोगों का नौकरी छूट रहा है. रही-सही कसर नोटबंदी और जीएसटी (साम्राज्यवादी नीति) ने पूरी कर दी है. यदि समाचार देखें तो गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश एवं अन्य जगहों में 20 से 25 लाख लोग बेकार हुए. फरवरी 2018 में केन्द्र सरकार ने आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़े वाला हिस्सा तो पेश ही नहीं किया जिससे देश का हाल मालूम हो सके. हाल में जब ये आया भी तो उसमें संगठित क्षेत्र (सरकारी एवं निजी क्षेत्र) में रोजगार के आंकड़ें 2012 के बाद के नहीं दिये गए यानी छिपा लिया गया. महंगाई बेतहाशा बढ़ी है. पेट्रोल को जीएसटी से बाहर रखकर कम्पनियों को बेहिसाब मुनाफा कमाने और विदेश में तेल बेचने का मौका दिया है. यह कौन सी देश-भक्ति है ?

आर्थिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि सरकार खेतिहरों को भी मारने का काम कर रही है. ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी कि केन्द्र सरकार ने अनाज एवं अनाज उत्पाद का आयात अचानक से बढ़ा दी. 2016-17 में करीब 9589 करोड़ का अनाज एवं इसके उत्पाद का आयात किया जो कि 2014-15 में 718 करोड़ ही था. कुल खाद्य पदार्थ आयात में 8.8 फीसदी दाल का आयात था जो कि 2013-14 में मात्र 0-5 फीसदी था. स्थिति ऐसी हो गई कि देश में किसानों का दाल लागत मूल्य पर भी नहीं बिका. ऐसे ही अन्य कामों को कर देश को विदेशी कर्ज के दलदल में हुक्मरान तीव्र गति से धकेल रहे हैं और अपने मुद्रा रूपये की कीमत डॉलर की तुलना में लगातार तेजी से घटने पर विवश कर रहे हैं. बैंकों से देश के बड़े-बड़े औद्योगिक घराने भारी कर्ज लेकर बैठे हुए हैं उनसे वसुलने की बात तो दूर इस बाबत बोलने की भी ताकत नहीं है. ऐसे में साम्राज्यवादी नीतियों की गुलामी करने वाली सरकारें नौकरी या बेकारी का समाधान नहीं कर सकती है. ऐसी आर्थिक नीतियों का हमारे देश में पढाई नहीं होती है इसलिए अधिकांश शिक्षित लोगों को इन नीतियों के बारे में जानकारी नहीं है. इन आर्थिक नीतियों का देश में पर्दाफाश करना होगा जो कि हर जागरूक नागरिक का कर्तब्य है. शोषण और प्ऱताड़ना पर आधारित व्यवस्था जहां आदमी का आदमी द्वारा शोषण हो ऐसी व्यवस्था से निजात पाने के लिए लामबन्द होकर व्यवस्था में आमूल परिवर्तन के लिए संघर्ष करना होगा.

  • डॉ. मीरा दत्त
    संपादिका, तलाश

Read Also –

मोदी सरकार की नई एमएसपी किसानों के साथ खुला धोखा
धार्मिक नशे की उन्माद में मरता देश
‘उस ताकतवर भोगी लोंदे ने दिया एक नया सिद्धान्त’
खतरे में लोकतंत्र और उसकी प्रतिष्ठा

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिय…