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भारतीय संविधान किसकी राह का कांंटा है ?

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भारतीय संविधान किसकी राह का कांंटा है ?

इस देश में गरीबों, वंचितों, शोषितों, पीड़ितों, दबे-कुचले-मसले दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों  के सामाजिक और राजनैतिक अधिकारों का संरक्षक यदि कोई है, तो सिर्फ वर्तमान “भारतीय संविधान” है, कोई राजनैतिक पार्टी नहीं. सत्ता में आने वाली हर राजनैतिक पार्टी संविधान की सौगंध लेती है कि वह उसके प्रावधानों के अनुसार राज्य  और समाज के कल्याण और व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कार्य करेगी.  संविधान के तीसरे भाग के अनुच्छेद 12 से 35 में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है. जैसे समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार, आदि-आदि.

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, जो भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक नीति निर्धारक है, को यह संविधान फूटी आंंख नहीं सुहाता, वह यह बात सामान्यतः छिपाती भी नही है. उसके मन में सबसे बड़ा कांंटा संविधान के उन अनुच्छेदों को लेकर है, जिनके कारण अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़ों को मौलिक अधिकारों के साथ उन्हें अतिरिक्त आरक्षण भी प्राप्त है.

अभी हाल ही का ताजा प्रकरण वर्ष 2015 का है. आरएसएस के सर संघचालक मोहन भागवत ने संविधान के पुनरीक्षण की बात की थी. आरएसएस के संस्थापक डा0 केशव बलिराम हेडगेवार के बाद, इस संगठन की बागडोर सम्भालने वाले माधव सदाशिव गोलवालकर जिन्हें अधिसंख्य गुरूजी के नाम से जानते हैं, ने स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ, संसद द्वारा संविधान को अवधारित किये जाने के बाद, उसमें हर वयस्क नागरिक को मताधिकार देने के सम्बन्ध में है, पर तत्काल जो प्रतिक्रिया दी थी वह बहुत तीखी थी. इस तीखी प्रतिक्रिया की पृष्ठभूमि में दलित समाज के ज्योतिबा फुले जैसे नेता जिन्होंने ब्राह्मण विरोधी आन्दोलनों का नेतृत्व किया, सदैव से रहे हैंं.

ज्योतिबा फुले ने सन् 1872 में “गुलामगीरी” नामक पुस्तक लिखी तथा ब्राह्मणों एवं उनके अवसरवादी शास्त्रों से निम्न जातियों की रक्षा के लिए “सत्यशोधक समाज” नामक संगठन भी बनाया था. वर्ष 1920 के बाद इस आन्दोलन ने जुझारू जन आन्दोलन का रूप ले लिया था. सत्यशोधक समाज ने जमींदारों और महाजनों के खिलाफ जोरदार आन्दोलन चलाया. आन्दोलनकारी न सिर्फ ब्राह्मण अधिपत्य के विरोध में थे, अपितु वे ब्रिटिश हुकूमत का भी जोरदार विरोध कर रहे थे. ऐसी ही परिस्थितियों के चलते हेडगेवार ने 1925 में नागपुर में आरएसएस की स्थापना की थी. संगठन की बागडोर सदैव से ही चित पावन महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों के ही हाथों में चली आ रही है. (पाठक, आरएसएस के कर्त्ताधर्त्ताओं के मन में दलितों के प्रति गहरी जमी नफरत की पृष्ठभूमि को भली प्रकार समझ रहे होंगें.)

हिन्दू कौन हैं और इस धरती के वासिंदों में उनका क्या स्थान है, गुरु जी ने अपनी पुस्तक “बंच ऑफ़ थोट्स” जो अंग्रेजी में लिखी है, में इसकी स्पष्ट झलक मिलती है,  “सर्वशक्तिमान, जिसने अपनी सत्ता को विराट पुरुष के माध्यम से अभिव्यक्त किया है, ही “हिन्दू” है. यद्यपि हमारे आदि पुरखों ने हिन्दू शब्द का उल्लेख नहीं किया, तथापि “पुरुष सूक्त” में उस सर्वशक्तिमान को परिभाषित किया गया है. जिसमें कहा गया है, सूर्य और चंद्रमा इस विराट पुरुष की आंंखें हैं, इसकी नाभि से आकाश और तारों की रचना हुई है. ब्राह्मण उसका सर है, क्षत्रिय भुजाएं, वैश्य उसकी जंघा और शुद्र उसके पांव हैं ”. इसका मतलब है, जिन लोगों की यह “चार वर्ण” व्यवस्था है, वही इस धरती के वाशिंदे “हिन्दू” हमारे भगवान् हैं. हमारे “राष्ट्र” की अवधारणा के मूल में ईश्वरत्व की यही श्रेष्ठ दृष्टि है, जिससे सिंचित हमारा चिंतन है और इसी ने हमारी सांस्कृतिक विरासत की विशिष्ट अवधारणाओं को पाला पोसा है. (सन्दर्भ बंच ऑफ़ थॉट्स).

अपनी वर्तमान परिस्थितियों में यदि ‘राष्ट्र’ की इस आधुनिक समझ को लागू करें तो निश्चित रूप जो निष्कर्ष निकलेगा, वह हमें बाध्य करेगा कि इस देश “हिन्दुस्थान” में हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू भाषा के साथ हिन्दू नस्ल ही ‘राष्ट्र’ की अवधारणा को पूरा करता है (We or Our Nationhood Defined).

इस देश में मराठा शासकों का वर्चस्व रहा है, उनके शासन में ब्राह्मणों के अतिरिक्त किसी को वेदमन्त्रों का पाठ करने का अधिकार नहीं था. यदि कोई इस राज्य व्यवस्था का उल्लंघन करते हुए पाया जाता था तो उसकी जबान काट दी जाती थी. भारतीय संविधान ब्राह्मणों की इस श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करता. वो शूद्रों द्वारा वेदमन्त्रों के पाठ को अपराध नहींं मानता. इसके बरबख्श वेदमंत्र के पाठ को अपराध मानने और दण्डस्वरुप शूद्रों की जवान काटने की ब्राह्मण वर्चस्ववादी व्यवस्था को ही अपराध ठहराता है. आरएसएस ब्राह्मणों की खोयी हुयी इसी श्रेष्ठता को पुनर्स्थापित करने की हामी है. ऐसी ही अन्य बहुत से कांटे हैं, जिन्हें हटाना वर्तमान संविधान को बदले बिना सम्भव नहीं है.

हो सकता है बीजेपी की राजनैतिक विजय पताका को लहराते देख आरएसएस के वर्तमान कर्त्ताधर्त्ताओं को गुरूजी की वैचारिक दृष्टि को कुछ समय के लिए ठन्डे बस्ते में डालना ही उचित लग रहा हो. ज्योतिबा फुले, बाबा साहब आम्बेडकर आदि दलित नेताओं के प्रति अपनी पुरातन मान्यताओं को दरकिनारे लगाना भी इसी रणनीति का हिस्सा हों, परन्तु आज तक आरएसएस ने स्पष्ट शब्दों में यह नहीं कहा कि वह गुरु गोलवालकर जी के “विराट पुरुष” की उक्त परिभाषा, यानी ब्राह्मणों को  “विराट पुरुष का सर और शूद्रों को पांंव” बताने वाली परिभाषा को खारिज करती है और ऐसे विचारों को अव्यवहारिक और समाज के लिए घातक मानती है. इस आलोक में, अचानक आरएसएस के मन मस्तिष्क में दलित नेताओं के प्रति पैदा हुआ राग छद्म है, राजनैतिक हित साधन के उद्देश्य किया ही जान पड़ता है.

बीजेपी शासित राज्यों में दलितों को मानसिक रूप से प्रताड़ित और सामाजिक रूप से बेइज्जत करने, मसलन महिलाओं को छोटे-मोटे अपराधोंं के लिए नंगा करके घुमाने, थूका हुआ चटवाने, युवाओं को नंगा करके पीटने, झूठे अपराधिक मुक़दमें कायम करने, उच्च वर्ण वालों के मोहल्लों से दलित की बरात निकालने, घोड़े पर दूल्हे के बैठने का विरोध करने, अपहरण और बलात्कार करने वगैरह के मामले कम होने के बजाय बढ़े हैं जो आये दिन अखबारों और टीवी की सुर्खियांं बन रहे हैं. कई मामलों में तो प्रतिष्ठित पदधारी राजनेताओं के नाम भी जुड़े होते हैं. भले ही इनमें सरकारों की संलिप्तता न हो, पर आमजन में सरकारों के प्रति धारणा तो अच्छी नहीं बन रही. उनके मन में यह धारणा बनना स्वाभाविक है कि समाज में दलितों के खिलाफ अपराधकारित करने वालों को कहीं न कहीं सरकार की क़ानून व्यवस्था की भूमिका लचर व थुलथुली है.

इसी 20 मार्च को दलित उत्पीडन पर सुप्रीमकोर्ट के फैसले पर जो विवाद सड़कों पर विरोध प्रदर्शन, मारपीट, आगजनी, लूटपाट, सरकारी सम्पत्तियों का नुकसान वगैरह वगैरह का तांडव हुआ, उसके तत्काल बाद केंद्र ने आश्वासन दिया कि वह इस सम्बन्ध में अध्यादेश जारी करेगी. केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बार-बार आश्वासन देने के बावजूद भी अभी तक जारी हुआ नहीं है. देश का दलित इसे अभी भूला नहीं है. न ही प्रमोशन में आरक्षण और युनिवर्सिटियों में नियुक्तियों में आरक्षण पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को पलटवाने के कोई गंभीर प्रयास ही किये जाते दिख रहे हैं. दलितों पर अत्याचार की घटनाओं में इजाफे को लेकर गुजरात ख़ासा बदनाम है. दलित उत्पीडन के मामलों में सजा दिलाने में गुजरात के आंकडें बताते हैं कि वह सबसे फिसड्डी राज्य है.

आरएसएस मुम्बई में “रामभाऊ म्हालगी सुबोधिनी” नाम की संस्था के माध्यम से “इन्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेमोक्रेटिक लीडरशिप”, “नेतागीरी का कौशल सिखाने वाले कोर्स” में ग्रेजुएट, पोस्ट-ग्रेजुएट की डिग्रियां प्रदान करने वाली यूनिवर्सिटी, जो कहने को 1982 से स्थापित है, परन्तु अचानक गतिविधियों में आई तेजी या अन्य कारणों से चर्चा में आ गई है, के माध्यम से बाकायदा प्रशिक्षित युवा नेताओं की एक विशाल फ़ौज खड़ी कर रही है. ये खबर चौंकाती है क्योंकि अपनी तरह का यह अनूठा विश्वविद्यालय है जो नेतागिरी का कौशल सिखायेगा. आरएसएस की विचारधारा में रचे-पचे परिवारों के बच्चों ही नहीं, बड़े बड़े कॉरर्पोरेट घरानों के अधिकारी और कर्मचारी भी नेतागिरी के कौशल में पारंगत होने की चाहना रखने वालों में शामिल हैं. तो आरएसएस के अनुभवी प्रचारक और बीजेपी के खुर्राट नेता, प्रशिक्षुओं को नेतागिरी के कौशल विकास की ट्रेनिंग देने वालों में शामिल हैं.

इधर वर्ष 1956 से स्थापित विश्वविद्यालयों को मान्यता प्रदान करने वाली संस्था ‘यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन’ (UGC), यानी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को तोड़ कर नयी संस्था ‘हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ़ इंडिया’ (HECI), यानी भारतीय उच्च शिक्षा आयोग गठित करने जा रहा है. यूजीसी को तोड़ कर एचईसीआई का गठन करने के पीछे क्या सरकार की मंशा, नेतागिरी में ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स कराने वाले निजी क्षेत्र के इस या इस जैसे अन्य विश्वविद्यालयों को मान्यता दिलाने की है ?

रामभाऊ म्हालगी सुबोधिनी विश्वविद्यालय नरेंद्र मोदी और योगी जैसे नेताओं के कितने क्लोन तैयार करेगा यह तो अभी भविष्य के गर्त में है. जो भी हो, अगर आरएसएस को हिंदुत्व की अपनी परिभाषित व्यवस्था को मूर्त रूप देने की राह में, वर्तमान भारतीय संविधान कांंटा नजर आये तो इसमें गलत क्या है ?

– विनय ओसवाल

देश के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक
सम्पर्क नं. 7017339966

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ROHIT SHARMA

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