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चुनावी जमीन “दरकने की रोकथाम” का पहला चरण कश्मीर

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चुनावी जमीन “दरकने की रोकथाम” का पहला चरण कश्मीर

संसदीय चुनावों की सम्भावित घोषणा से काफी पहले, बीजेपी को देश भर में अपनी जमीन के दरकने का अंदाजा हो गया है. कश्मीर में पीडीपी से अपना पीछा छुड़ाना, उसी जमीन के दरकने की “रोकथाम की योजना” का पहला चरण है.

देश जब 2019 में, पांच साला संसदीय चुनाव के लिए मतदान कर रहा होगा, तब तक जम्मू-कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी गठबंधन से नाखुश लोगों की यादों में, यह प्रश्न धूमिल हो चुका होगा कि – “बीजेपी ने वैचारिक रूप से, अपनी धुर विरोधी पीडीपी के साथ सत्ता में साझीदार बनना क्यों पसंद किया? 2019 में मतदान करते हुए जो मंजर उसकी आँखों के सामने होगा वो यह कि- बीजेपी कश्मीर में आतंक की कमर, उसी कठोरता से तोड़ रही है, जिस कठोरता की अपेक्षा उससे की थी. इन कठोर कदमों से, पूरे देश में बीजेपी के समर्थक और सहानुभूति रखने वाले मतदाता, बीजेपी के समर्थन में पूरी ताकत से लामबंद हो चुके होंगे.

बीजेपी ने, जम्मू-कश्मीर में, पीडीपी के साथ तीन साल दो माह 18 दिन, सरकार चलाने के बाद उसे, इस बात की भनक भी नहीं लगने दी कि वह गठबंधन तोड़ने की घोषणा करने जा रही है. जम्मू-कश्मीर की मुख्यमन्त्री मेहबूबा मुफ़्ती को, इसकी सूचना राज्यपाल ए एन वोहरा ने दी. समझा जाता है, राज्यपाल के लिए, बीजेपी का यह कदम अप्रत्याशित नहीं था. पिछले मंगलवार को जब बीजेपी के महासचिव राम माधव ने उनसे मुलाक़ात की थी, तभी समर्थन वापसी का दिन तय हो गया था.

इसी माह 19 जून, दोपहर दो बजे के लगभग बीजेपी ने कश्मीर में पीडीपी सरकार से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया है, दिल्ली में, यह खबर मीडिया को देते हुए बीजेपी के महामंत्री राम माधव ने, अपनी पार्टी के जम्मू प्रदेश के नेताओं की मौजूदगी में पीडीपी पर आरोप लगाते हुए मिडिया से कहा कि – सरकार पर शान्ति बहाली और विकास कार्यों को अंजाम देने में आ रही दिक्कतों का हवाला दिया. उन्होंने कहा- “ हमने देश हित और सूबे की तस्वीर बदलने के लिए पीडीपी के साथ सरकार बनायी थी, लेकिन घाटी में कट्टरता कम होने के बजाय बढ़ गयी. ऐसे में गठबंधन सरकार में आगे बढना सम्भव नहीं है. हिंदी में बोलते-बोलते, अचानक अंग्रेजी में उन्होंने कहा – ”Keeping in mind the larger interest of India’s integrity and security, keeping in mind the fact that Jammu and Kashmir is an integral part of India, in order to bring control over the situation prevailing in the state, we have decided that it is the time the reins of power in the state be handed over to Governor,” राम माधव ने यह भी कहा कि रमजान के महीने में सुरक्षा बलों की कारवाही पर एक तरफा रोक लगाने के केंद्र सरकार के आदेशों के जबाब सुझाया कि सरकार का रवैया हतोत्साहित करने वाला रहा. जम्मू कश्मीर के चर्चित पत्रकार सुजात बुखारी की हत्या कर देना और हत्यारों का साफ़ बाख कर भाग जाना, वो भी उस इलाकें में, जहांं सरकारी कार्यालय है और सुरक्षा की दृष्टि से सम्वेदनशील इलाका है, चौंकाता है.

उधर, जम्मू-कश्मीर में मीडिया की सम्बोधित करते हुए कहा कि – ‘बांंह मरोड़ने की नीति जम्मू-कश्मीर में सफल नहीं हो सकती. जम्मू-कश्मीर देश का हिस्सा है कोई दुश्मन का इलाका नहीं. हमने बड़े उद्देश्यों के लिए गठबंधन किया था.’

गौर करने वाली बात है, सत्ता के दोनों साझीदारों में से किसी ने एक दूसरे पर कोई ऐसा गम्भीर आरोप नहीं लगाया जिससे भविष्य में होने वाले चुनावों में, जरूरत पड़ने पर, किसी तरह की आपसी समझ बनाने और बातचीत करने के रास्ते ही बन्द हो जाये. दोनों ने ही तत्काल प्रेस के सामने जो प्रतिक्रियाएं दी वह बहुत सधी हुई, सुविचारित और अपने-अपने राजनैतिक उद्देशों को सामने रख कर दी है.

कश्मीर देश का स्वर्ग है. उसकी खोई इस पहचान को फिर से स्थापित करने के लिए मोदी ने अपनी “फितरत” के अनुरूप जो वादे किए और समय-समय पर जो घोषणाएं की, मसलन कश्मीर में आई भीषण बाढ़ की तबाही से निबटने के लिए 11000 करोड़ के पैकेज की तत्काल घोषणा, इसे पूरा देश तो जानता है पर, कश्मीर के बाढ़ पीड़ित नहीं जानते कि वो कैसे और कहाँ खर्च हो गया. यह कश्मीर का युवा और तबाही का शिकार हुए लोग जानना चाहें तो इसमें गलत क्या है.

देश का कोई हिस्सा इतना संवेदन नहीं है जितना कश्मीर है. “जुबान और जमीनी हकीकत” के फर्क की, फितरत ने जो घाव युवाओं को दिए हैं वो सुरक्षा बलों की गोलियों से हुए घावों से ज्यादा गहरे और तकलीफदेह हैं. वैसे तो कश्मीर में चुनाव 2020 में होने हैं, अभी काफी वक्त है, पर बीजेपी उसकी भरपाई, कभी जम्मू-कश्मीर में कर पाएगी, भविष्य के गर्त में छुपा है. अलबत्ता हिंदी जुबान बोलने वाले राज्यों की पट्टी में करने की कोई कोर कसर वो नहीं छोड़ेगी, इतना तो निश्चित है. बुरहानवानी के जनाजे के साथ फैले असंतोष के बाद, एक दिन भी ऐसा नहीं गुजारा जिसे उदाहरण के तौर पर पेश किया जा सके कि उस दिन कश्मीर में पूरी तरह शांति रही हो.

कश्मीर के जम्मू और लद्दाख सम्भागों में अप्रत्याशित जीत हांसिल कर बीजेपी ने अपने धुर वैचारिक विरोधी पीडीपी के साथ गलबहियां कर और अटल बिहारी बाजपाई द्वारा बनायी राह पर चलने के सब्ज बाग़ दिखा कश्मीर में पहली बार सरकार ही नहीं बनायी देश और दुनिया को यह संदेश देने में भी कामयाबी हांसिल की, कि वह न केवल कश्मीरियों की समस्या हल करने के लिए गंभीर है, बल्कि बीजेपी के प्रति बनी यह धारणा कि वह मुसलमानों की हितैषी नहीं है, भी नितांत झूठ है.

यूँ तो जम्मू-कश्मीर सरकार पर, गठन के बाद से ही गर्दिशों के ग्रहण मंडराने लगे थे. जनवरी 2016 में, सरकार गठन के दस माह बाद ही मुफ़्ती साहब की म्रत्यु होगई. प्रदेश राज्य राज्यपाल शासन में चला गया, (कश्मीर में राष्ट्रपति शासन नही राज्यपाल शासन लगता है) इस दौरान बीजेपी ने, उनकी बेटी और पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ़्ती से फिर बात चित के दौर चलाए पर बात बनेगी इसकी सम्भावनाएं भी धूमिल पड़ने लगी थीं. पर कोशिशें जारी रही. तीन महीने बाद राज्य की पहली महिला मुख्यमन्त्री के रूप में प्रदेश की बागडोर उनको सौंपने का सेहरा भी, अप्रैल 2016 में,बीजेपी के सर बंध गया. इस सब का हांसिल ये भी रहा कि, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत की यह साख और मजबूत हुयी कि, कश्मीर में स्वतन्त्रता की मांग, पाकिस्तान प्रायोजित ही है. स्थानीय कश्मीरियों की नहीं है. और इस मांग की आड़ में पाकिस्तान कश्मीर में आतंकी गतिविधियाँ चलाता है और( स्थानीय युवाओं को उकसाता, भड़काता हैं.

पीडीपी ने कश्मीर में सुरक्षाबलों की कार्यवाही पर रमजान के महीने में लगी एक तरफ़ा रोक के दौरान, हाल ही में, 11000 ऐसे युवा और बच्चों को जिनपर सुरक्षाबलों पर पत्थर से हमला करने के आरोप पहली बार लगे को, एक मुश्त रिहा करने के आदेश, भारत सरकार के गृहमंत्री से, इस आधार पर करा लिए थे कि इससे सद्भावना का संदेश जायगा. अब बीजेपी से अलग हो कर, भारत सरकार पर, कश्मीर समस्या के हल के लिए, हुर्रियत कोंफरेंस के नेतृत्व में 20-22 अलगाववादी संगठनों, और पाकिस्तान के साथ त्रि-पक्षीय बातचीत करने के लिए, उन्हें टेबल पर बुलाने की अपनी पुरानी मांग को, हवा दे सकती है. क्योंकि उसे भी, कश्मीर में अपनी दरक चुकी चुनावी जमीन को बचाने की फिकर सताने लगेगी.

पूरी दुनिया में सर उठा रही तानाशाही और दम तोड़ते लोकतंत्र से इतर भारत में लोकतंत्र, सर उठा के कैसे चले? अब यह तो भारत के मतदातों को ही तय करना है. जम्मू-कश्मीर का शासन तो गवर्नर के कन्धों के सहारे केंद्र सरकार की मर्जी से चलेगा, जम्मू-कश्मीर के मतदाताओं की मर्जी से नहीं. चर्चित कठुआ रेप काण्ड में जांच को प्रभावित करने, जिसमें बीजेपी के पदाधिकारियों और मंत्रियों की संलिप्तता होने की गंभीर चर्चाएँ घाटी के खुशनुमा वातावरण को गर्म करती रही हैं, लोगों में संदेह पैदा करती हैं कि, अपराधियों को सजा मिल पाएगी? शायद गठबंधन टूटने के पीछे यह भी कारण होने की बात की जारही है.

जो भी हो, जम्मू-कश्मीर की स्वतंत्रता की मांग कर रहे, संगठनों, जिन्हें अलगाववादी के नाम पर जाना-पहचाना जाता है, के समर्थक उग्रवादियों की कमर तोड़ने में बीजेपी कोई कसर नहीं छोड़ेगी. इसका सीधा लाभ उसे 2019 के संसदीय चुनावों में मिलेगा. निशाने पर जो हैं, वो नहीं बदलेगें, क्या सिर्फ लड़ाई का मैदान बदलेगा? हिंदी जुबान बोलने वाले इलाकों में अब, झूठ अफवाह और आरोप के सहारे, लोगों को गुनाहगार ठहराकर, पीट-पीट कर मार डालने की घटनाए, जो गाहे-बगाहे अखबारों की सुर्खियांं बनती रही हैं, में कोई कमी आएगी? परिणामों के लिए प्रतीक्षा तो करनी ही होगी.

– विनय ओसवाल

वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विशेषज्ञ
सम्पर्क नं. 7017339966

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ROHIT SHARMA

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