आज की विषम परिस्थतियों से हम सब वाकिफ हैं. अघोषित आपातकाल के दौर में लूट-छूट, भोग और शोषण पर टिकी सत्ता आम जनता के हर तबके-मजदूरों, किसानों, छात्र-युवाओं, लेखकों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं, संस्कृतिकर्मियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, शिक्षाविदों, पत्रकारों, मानवाधिकारवादियों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं पर सुनियोजित और संस्थाबद्ध हमले कर रही है. घोर प्रतिक्रियावादी, ब्राह्मणवादी, फासीवादी मोदी सरकार के सत्ता में आते ही सरकार द्वारा साम्राज्यवादियों-पूंजीपतियों की जी-हुजूरी व आमजन के अधिकारों पर हमले में अचानक तेजी आयी है.
उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की जो प्रक्रिया चल रही है, उससे आम जन बेहाल है. उसके लोकतांत्रिक शक्तियों पर नंगा नाच जारी है. तर्क और वैज्ञानिक चेतना की धार को कुंद करने की कोशिशें तेज हो गयी हैं. देश में गजब का लोकतंत्र चल रहा है – आलोचना करिये तो पुलिस केस, सवाल करिये तो सीबीआई रेड, विरोध करिये तो गोली. स्थिति इतनी भयावह हो गयी है कि जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ रहे, विस्थापन का दंश झेल रहे, गरीबी की अंतहीन सीमा पर खड़े पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के लिए सरकार की नई आर्थिक नीतियां उन्हें खत्म करने का पैगाम साबित हो रही हैं. आज अल्पसंख्यकों को विकास के ठोस अवरोधक की तरह, किसानों को उतावले समूह की तरह तथा दलितों को राष्ट्रहित के लिए हिंसक की तरह पेश किया जा रहा है.
6 जून, 2018 की सुबह 6 बजे के आसपास नागपुर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष तथा लम्बे समय से महिला और दलित अधिकारों पर काम करनेवाली प्रोú सोमा सेन, कई अरसों से मानवाधिकारों के बहाली की लड़ाई लड़ रहे इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स लॉयर के महासचिव एडवोकेट सुरेन्द्र गडलिंग, मराठी पत्रिका विद्रोही के संपादक तथा जाति-उन्मूलन से सम्बन्धित आन्दोलन रिपब्लिकन पैंथर के संस्थापक सुधीर ढावले, मानवाधिकार कार्यकर्त्ता तथा राजनैतिक कैदियों की रिहाई समिति (सी.आर.पी.पी.) के सचिव रोना विल्सन तथा गढ़चिरौली में खनन क्षेत्रें में ग्राम सभा के साथ कार्यरत् विस्थापन विरोधी कार्यकर्ता तथा प्राइम मिनिस्टर्स रूरल डेवलपमेंट फेलो रह चुके महेन्द्र राउत को महाराष्ट्र पुलिस द्वारा नागपुर, पुणे और दिल्ली में अलग-अलग जगहों से गिरफ्रतार किया गया. यह गिरफ्रतारी कोरोगांव में हुए प्रदर्शन के नाम पर की गयी है.
महेश राउत राज्य तथा कॉरपोरेट्स द्वारा जमीन हथियाने, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के खिलाफ स्थानीय समितियों के साथ आदिवासी हकों के लिए लड़ रहे थे. एडवोकेट गडलिंग ऐसी ही लड़ाईयों को कोर्ट में लड़ रहे थे. ये ऐसी बहुत-सी दलितों तथा आदिवासियों का कोर्ट में प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जिन्हें झूठे आरोपों तथा कठोर कानूनों के अन्तर्गत आरोपी बनाकर गिरफ्रतार किया गया है. इसी तरह प्रो. सोमा सेन भी राज्य द्वारा किये जा रहे दमन विरोधी मानवाधिकार आन्दोलनों से गहन रूप से जुड़ी रही है. शिक्षक तथा कार्यकर्त्ता दोनों ही भूमिकाओं में वे जिन्दगी की कड़वी सच्चाईयों को सामने लाती रही हैं. सुधीर ढावले जाने-माने दलित अधिकार कार्यकर्त्ता तथा लेखक हैं तो वहीं रोना विल्सन वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं. वे आफसप्पा, पोटा, यू.ए.पी.ए. जैसे कठोर कानूनों के मुखर विरोधी रहे हैं.
स्पष्ट है कि भीमा कोरेगांव एक बहाना है. इन्हें इसलिए गिरफ्रतार किया गया है ताकि इन सामाजिक कार्यकर्ताओं को न्याय की लड़ाई, दमन तथा आदिवासी क्षेत्रें में प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ लड़ने से रोका जा सके.
इस शासन व्यवस्था में कार्यकर्त्ताओं पर हमला नई बात नहीं है. तर्कपूर्ण विचारकों नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पनसारे, एम. एम. कलबुर्गी तथा गौरी लंकेश की जघन्य हत्या दक्षिणपंथी हिन्दुत्व समूह के द्वारा दिनदहाड़े कर दी गयी थी. जुनेद, अखलाक तथा पहलू खान जैसे साधारण लोगों को पीट-पीट कर मार डाला गया. झारखण्ड में मजदूर संगठन समिति जैसे पंजीकृत ट्रेड यूनियन को प्रतिबंधित कर दिया गया. अधिकारों के लिए लड़नेवाले समूहों तथा व्यक्तियों को काम करने से रोका गया तथा झूठे आरोपों में फंसाया गया. उत्तर प्रदेश के चन्द्रशेखर आजाद ‘रावण’ तथा झारखण्ड के बच्चा सिंह जैसे जन-नेताओं, तीस्ता सीतलबाड़ जैसे पत्रकारों, शिक्षाविद्, छात्र-कार्यकर्त्ताओं, कार्टूनिस्ट तथा जनता की आवाज को उठानेवालों को कठोर कानूनों के अन्तर्गत गिरफ्रतार किया जा रहा है.
मीडिया ट्रायल, झूठी खबरों की संस्कृति तथा सोशल मीडिया द्वारा अभियान चलाकर जनमानस में उन लोगों के खिलाफ जहर घोला जा रहा है, जो सत्ता के सामने सच बोलने का साहस कर रहे हैं. ऐसा करके बाकी लोगों के दिलों में भी डर बिठाया जा रहा है. तमिलनाडु के तूतीकोरिन में स्टारलाईट कॉपर फैक्ट्री के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे नागरिकों की पुलिस द्वारा हत्या यह साबित करने के लिए काफी है कि राज्य विभिन्न तरीकों से अपने लोगों का दमन करने पर तुली है. भविष्य में भी इनका एकमात्र लक्ष्य होगा-बड़े पैमाने पर कॉरपोरेट पूंजी को स्थापित करना, जनवादी अधिकारों को पूरी तरह से छीन लेना, विरोध के हर स्तर को निर्ममतापूर्वक कुचल देना, अंधराष्ट्रवाद के सहारे पूरे राष्ट्र को फासीवादी राष्ट्र में बदल देना.
इसलिए अगर हम शोषण-दमन के आधार पर टिकी शासक वर्गों की समग्र आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था के खिलाफ गोलबन्दी के मुहिम से चुक गये तो हिटलर के फासीवादी राष्ट्र के खिलाफ आवाज उठानेवाले विख्यात जर्मन कवि मार्टिन नायमोलर की यह पंक्ति सार्थक सिद्ध होगी –
पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आये / और मैं कुछ नहीं बोला – क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था । / तब वे ट्रेड यूनियनवादियों के लिए आये और मैं कुछ नहीं बोला, क्योंकि मैं ट्रेडयूनियनवादी नहीं था / तब वे यहूदियों के लिए आये / और मैं कुछ नहीं बोला / क्योंकि मैं यहूदी नहीं था / तब वे मुझे लेने आये / तो मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं था.
– संजय श्याम
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