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100 साल बाद, एक बहादुर युवक की शहादत…कायरों के लिए नफरती प्रोपगेंडे का टूल बन गई है

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100 साल बाद, एक बहादुर युवक की शहादत...कायरों के लिए नफरती प्रोपगेंडे का टूल बन गई है
100 साल बाद, एक बहादुर युवक की शहादत…कायरों के लिए नफरती प्रोपगेंडे का टूल बन गई है

असेम्बली बमकांड प्रोपगंडा इवेंट था. ऐसी योजना, जिससे नौजवान भारत सभा, HSRA और उसके विचार को चर्चा मिले. जनता के जेहन में छाये, टाकिंग पॉइंट, हॉट ईशु बन जाये. घटना से कोई हीरो निकले, जो संगठन के विचार का मैस्कॉट बन जाये. जहां जहां जाये, उस विचार का प्रसार हो.

ये क्रांति का विचार था, जैसी 10 साल पहले रूस में हुई. सदियों से जमे सम्राट को पटककर गद्दी से हटा दिया था. भारत जैसे मरे हुए समाज में इस विचार को रोपने का प्रयास, ये इवेंट था.

तो बम फूटेगा, चर्चा होगी। बम फोड़ने वालों पर देशद्रोह का मुकदमा चलेगा. जवाब में पोलिटिकल स्पीच दी जाएगी, जिसे अखबार कवर करेंगे. रोज रोज लोगों को पढ़ने को मिलता. उनके भीतर जोश आयेगा, युवा क्रांति पर दौड़ने लगेगा. जगह जगह क्रांति होने लगेगी. अब उन 20-22-25 साल के लड़कों का रूमानी सपना तो यही था.

सेफ खेला. असेम्बली में बम फेंके, जिसमें मारक छर्रे थे ही नहीं, वे महज साउंड बम थे. निहायत अहिंसक पटाखे..!! धमाके के शॉकवेव से भी किसी को चोट न लगे, इसके लिए बम को खाली बैंचों पर फेंका.

यूं भी असेम्बली मेम्बर्स गोरे विदेशी नहीं, भारतीय ही थे. अपने लोगों को बम से मारने का कोई तुक नहीं. धमाका तो सरकार के बहरे कानों को सुनाने के लिए था. धूमधाम के बाद वे नहीं भागे. नारेबाजी, पर्चे फेंकने का कार्यक्रम हुआ. पर्चो में पोलिटिकल स्टेटमेंट था.

पटाखे और पर्चे फेंकने से कोई फांसी वांसी नही होती. बटुकेश्वर दत्त को हुई भी नहीं. 8-10 साल जेल के बाद छूट गए. लेकिन भगतसिंह, दूर लाहौर के डेढ़ साल पुराने, एक पुलिस अफसर के अनसुलझे मर्डर केस में लिप्त पाए गए.  उनका मामला 302 का बन गया. फांसी, बमकांड केस में नहीं हुई. प्लान में ये ट्विस्ट आएगा, भगतसिंह ने इसकी कल्पना की थी..या नहीं, हम नहीं जानते.

मूल योजना में हीरो, भगतसिंह को ही बनाया जाना था. वे शानदार वक्ता थे, खासकर अंग्रेजी अच्छी बोलते. सारे अंग्रेजी अखबार उनकी जानदार स्पीच हाथों-हाथ लेते.

हीरो जैसा हैट वाला जो फोटो आप देखते हैं, बम फेंकने के 2-3 दिन पहले उन्होंने कश्मीरी गेट के एक फोटोग्राफर से खिंचवाई थी. उसी तरह बन ठनकर, जैसे आप दूल्हा बनने के लिए कोट पेंट पहनकर जाते हैं. योर बेस्ट लुक.. !!!

फोटो डेवलप होकर आती, उसके पहले भगत और बटुकेश्वर कस्टडी में थे. सरकार की तरफ से उनकी फोटो जारी नही हुई थी. फोटो तो क्रांतिकारियों ने अपनी तरफ से प्रेस को भेजी. स्टोरी को एक गुड लुकिंग यंग फेस जो देना था.

दरअसल, उनकी गिरफ्तारी के बाद पुलिस की सरगर्मी के बीच, स्टूडियो से फोटो की धुली हुई फोटो और नेगेटिव, उनके साथियों ने कैसे प्राप्त की, अलग ही किस्सा है.

आगे मुकदमे में भगतसिंह के बयान, महफ़िल लूट रहे थी. यूं लगता, वे कटघरे में वे नहीं, उल्टा ब्रिटिश सरकार है. भगत उसकी पॉलिसीज एक्सपोज कर रहे थे. मीडिया हर शब्द छापता. दिनों दिन भगत सिंह की लोकप्रियता बढ़ रही थी.

अब कोर्ट बोलने न देती. ओम बिरला की तरह माईक ऑफ. तो भगतसिंह ने और फायदा उठाया. कहा कि वो मुक़दमे का बहिष्कार करेंगे, भूख हड़ताल करेंगे. उनके साथी कैदी भी यही करने लगे. एक साथी की भूख से मौत हो गयी. सरकार के इकबाल की धज्जियां उड़ रही थी.

डिफेंडेन्ट बहिष्कार करे, तो मुकदमा कैसे बढाये. अब सरकार नया बिल लाई. इसके तहत अभियुक्तों की गैरमौजूदगी में मुकदमा चलाया जा सकता था. बिल सेन्ट्रल असेम्बली में आया तो पुरजोर विरोध, तेज बहादुर सप्रू और मोहम्मद अली जिन्ना ने किया.

जिन्ना बोले- जो शख्स भूख हड़ताल पर गया है, उसकी भी आत्मा है. उसे अपने उद्देश्य पर भरोसा है. वो आम अपराधी नहीं, जिसने महज एक हत्या को अंजाम दिया हो. उस दिन असेम्बली का वक्त ख़त्म हो गया. जिन्ना ने अगले दिन बहस जारी रखने की बात कही.

नेहरू गांधी तो सदन के सदस्य नहीं थे लेकिन मदन मोहन मालवीय थे. खड़े हुए, और जिन्ना के समर्थन में बोले- महोदय, क्या हम सदन की अवधि 15 मिनट आगे नहीं बढ़ा सकते ? अवधि आगे नहीं बढ़ी.

अगले दिन जिन्ना देर तक, औऱ जमकर बरसे. भगत सिंह के लिए क़ानून मरोड़ने की कोशिश को इंसाफ की हत्या बताया. नतीजतन सदन ने बिल गिर गया. इसका क्रेडिट जिन्ना को मिलना चाहिए. पर सरकार यह कानून आर्डिनेंस बनाकर लाई.

इसके तहत एक ट्रिब्यूनल बना. इसके 3 में 1 जज भारतीय थे. नाम आगा हैदर.. उन्होंने विरोध दर्ज किया तो उन्हें हटा दिया गया. ट्रिब्यूनल ने भगत और उनके साथियों को पेशी के बिना, एब्सेन्स में ही फांसी की सजा सुनाई.

अब फांसी को मुल्तवी रखने की तमाम कोशिशें गांधी, नेहरू और कांग्रेस ने की. प्रिवी काउंसिल में अपील किया मदन मोहन मालवीय ने. केस लड़ने को वकील आसफ अली थे, जो कांग्रेस ने मुहैया कराया. यह सब रिकॉर्ड पर है. लेकिन जब एक्यूजड को ही सरफरोशी की तमन्ना हो, तो दूसरे क्या ही कर सकते हैं.

आखिर भगतसिंह असेम्बली की ओर बढ़ते हुए जिस जनप्रचार के मिशन पर निकले थे, उसका सर्वश्रेष्ठ तरीका शहादत ही थी. वे इसे हाथ से जाने कैसे दे सकते थे.

तो इस पूरे घटनाक्रम में अपनी शहादत को सुनिश्चित करते भगतसिंह हैं. उन्हें बचाने की कोशिश करते जिन्ना हैं, मालवीय हैं, गांधी हैं, नेहरू हैं. मुस्लिम लीग है, कांग्रेस है. जो कहीं भी नहीं दिखाई देते, वो लोग हैं सावरकर, मुंजे, हेडगेवार, हिन्दू महासभा, और आरएसएस. एक बयान तक नहीं मिलता. बल्कि इस समय मदद मांगने आये, चंद्रशेखर आजाद के दूत यशपाल को, सावरकर ने जिन्ना की हत्या की सुपारी जरूर ऑफर की थी.

तो आज का घृणित सत्य है कि तब ये जो लोग मुंह मोड़कर, बिलों में घुसे हुए थे, पर आज बढ़ बढ़कर सवाल करते है. दूसरों पर आरोप मढ़ते हैं. 100 साल बाद, एक बहादुर युवक की शहादत…कायरों के लिए नफरती प्रोपगेंडे का टूल बन गई है.

  • मनीष सिंह 

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ROHIT SHARMA

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