जगदीश्वर चतुर्वेदी
(निजी) संपत्ति के संबंधों ने औरत को भी संपत्ति बना दिया. (निजी) सम्पत्ति संबंधों से निकलने में ही औरत को मुक्ति है. धर्म और तीर्थ स्थलों के विकास का अर्थ है पुंसत्व और पितृसत्ता का विकास. मोदी सरकार का यह प्रधान एजेंडा है. पितृसत्ता धुरी है औरत के शोषण और दमन की. धर्म के पर्व पुंसत्व के पर्व हैं. आज स्त्री का पर्व महिला दिवस है. धर्म के पर्व पर घर से बाहर निकलकर देखो, पुंसत्व का जश्न दिखाई देगा. सहज में समझ में आ जाएगा भारत क्यों आधुनिक नहीं बना. औरतें कष्ट में क्यों हैं ?
मोदी पर मुग्ध औरतें
मोदी पर मुग्ध औरतें फेसबुक में कम हैं लेकिन मतदाताओं में ज्यादा हैं. सवाल यह है भाजपा को औरतों के वोट क्यों मिलते हैं, जबकि यह खुला सच है औरतों के बारे में मोदी के आधुनिक विचार नहीं हैं. फेसबुक पर सक्रिय मोदी भक्त औरतें वैज्ञानिक विवेचना की अपेक्षा आसपास के लोगों की बातों और अंधविश्वासों से ज्यादा प्रभावित हैं.
मोदी भक्त औरतों में बड़ा अंश उन औरतों का है जो अपने लिए रक्षक चाहती हैं. स्त्री की स्वतंत्र, मुक्त और स्वायत्त भूमिका को अस्वीकार करती हैं. ये वे औरते हैं जो आज्ञा-पालन के समय स्वतंत्र रहने का दिखावा करती हैं. अन्य अवसरों पर शांत रहने का दिखावा करती हैं. इनमें एक वर्ग ऐसी औरतों का भी है जो निरंकुशता और अत्याचार को अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर स्वीकार करती हैं. इनमें वे औरतें भी हैं जो कहने को किताबों का सम्मान करती हैं लेकिन शब्दों के अर्थ समझे बिना पन्ने पलटती रहती हैं. वे मोदी पर बोल रही हैं लेकिन मोदी की राजनीति को बिना जाने, मोदी और संघ के स्त्री के प्रति अनुदार नजरिए को बिना जाने.
जो औरतें मोदी के मुखड़े में देश का मुखड़ा देख रही है उनके बारे में यही कहेंगे कि उनको देश की समझ पैदा करनी होगी. देश कोई नेता का मुखड़ा नहीं है. देश कोई दलीय विचारधारा नहीं है. वे मोदीप्रेम में इस कदर मगन हैं कि उनको किसी भी किस्म का मोदी विरोधी विचार पसंद नहीं है. एक नागरिक के नाते, एक स्त्री के नाते उनका मोदीबोध वस्तुत: लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों के निषेध की विचारधारा के बुनियादी आधारों पर टिका है. यह मोदीबोध सुविधाबोध है.
औरत का लक्ष्य है स्वतंत्रताबोध
औरतों के पक्ष में फेसबुक पर लिखते ही अनेक मित्र हैं जो यह कहने लगते हैं कि भाई साहब ! शैतान औरतों का भी ख्याल कीजिए. उन मर्दों का भी ख्याल कीजिए जो औरतों के लगाए मिथ्या आरोपों के शिकार होते हैं. सच है कि समाज में ऐसी औरतें भी हैं जो दुष्ट हैं और परेशान करती हैं लेकिन इनसे भी हजार गुना ज्यादा संख्या उन औरतों की है जो सचमुच में पीडित हैं, दमन की शिकार हैं और अधिकारहीन अवस्था में जी रही हैं.
संविधान में समानता के अधिकार के बावजूद वे अधिकारहीन हैं. इन अधिकारहीन औरतों पर ही पुरुषों के हमले सबसे ज्यादा हो रहे हैं. लोग सोचते हैं कि औरतें घर में रहती हैं तो सबसे ज्यादा सुरक्षित हैं लेकिन सच यह है कि वे घर में सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं. अधिकांश औरतें आज भी पुरुष जगत के अंतर्गत ही जिंदगी जी रही है.
वे हर समय पुरुष के पूरक के रूप में सेवा करती रहती हैं. वे जहां एक ओर पुरुष के पूरक की तरह काम करती हैं वहीं दूसरी ओर उसे चुनौती भी देती हैं. इस विरोधाभासी स्थिति के कारण ही वे समाज में अपनी जगह बनाती हैं. औरत बचपन से यही सीखकर बड़ी होती है कि औरत को पुरुषों की बातें माननी चाहिए फिर कालान्तर में इसी धारणा से वह मुठभेड़ करती है.
औरत की समूची संरचना इस कदर बनी होती है कि वह आलोचना, जांच-पड़ताल आदि से बचती है. वह पुरुष के मूल्यांकन और राय की आराधना करती है. वह पुरुष को रहस्यमय मूर्ति की तरह देखती है. स्त्री की दृष्टि में शक्ति ही महान है इसलिए वह पुरुष की शक्तिशाली के रुप में पूजा करती है.
स्त्री में अनुकूलन की प्रबल प्रवृति होती है. सीमोन के शब्दों में कहें तो पुनर्निर्माण और विध्वंस उसका सहज स्वभाव नहीं है. वह विद्रोह की अपेक्षा समझौते पसंद करती है. चूंकि स्त्री को घर-परिवार की चौखट से बांध दिया गया है. फलतः वह उसी में रमण करती रहती है. ऐसी स्थिति से लोकमंगल और स्वतंत्रता के बारे में उससे सकारात्मक पहल की उम्मीद कम ही करें. घर के बंधनों से उसे मुक्त करो, वह स्वतंत्रता और लोकमंगल के सवालों पर सक्रिय मिलेगी.
स्त्री को समर्थ बनाने के लिए उसे घर से बाहर निकालना जरुरी है. उसको सार्वजनिक तौर पर विभिन्न सवालों पर बोलना चाहिए. स्त्री के लिए अस्पृश्यता के सभी दायरों तोड़ने की जरुरत है. औरत सुरक्षित रहे, आत्मनिर्भर बने और मानवीय जीवन जिए इसके लिए उसके अंदर स्वतंत्रता का बोध पैदा करने की जरुरत है.
स्त्री समाज का शत्रु है बल का शासन
महिला दिवस पर उलटी सीधी बातें करके इस दिन की महत्ता को कम करने की कोशिश न की जाय. यह दिन औरतों को ख़ैरात में नहीं मिला है. यह उनके श्रम, सौंदर्य और मानवीय स्वभाव की स्वीकृति और महिमा का दिन है. औरतों के बारे में सकारात्मक सोचें. यह पुरुषों की शिक्षा का दिन भी है.
भारत के मर्दों में स्त्री विरोधी संस्कार बड़े मजबूत हैं. इसका आदर्श नमूना है घर. घरेलू कामकाज में भारत के मर्द मात्र 19 मिनट प्रतिदिन ख़र्च करते हैं. घर सिर्फ़ औरत का नहीं होता. भारत के पुरुषों में घरेलू कामकाज के प्रति जो विरक्ति है वह चिंता की चीज़ है. दैनन्दिन घरेलू कामकाज में समान हिस्सेदारी करें भारत के मर्द, तब ही औरत को राहत मिलेगी.
8 मार्च का दिन औरतों का है. देखना है पुरुष क्या करते हैं अपने घर में औरतों के लिए ? क्या यह संभव है महिला दिवस पर औरतें खाएं, पीएं, नाचें, गाएं और घर के सब काम मर्द करें, औरत आनंद करे.
उल्लेखनीय है औरतें श्रम करके देश और परिवार बनाती हैं. औरतें श्रम न करें तो देश की अर्थव्यवस्था बैठ जाय.
औरतें घर न देखें तो घर बैठ जाय. विज्ञापन और मीडिया में काम न करें तो बाज़ार और मीडिया बैठ जाय. औरत हमारे समाज की संचालक शक्ति हैं. समाज बदले इसके लिए पहली शर्त्त है कि औरत के जीवन में हस्तक्षेप बंद हो. हर स्तर पर स्त्री पर समाज और परिवार का हस्तक्षेप सबसे बड़ी बाधा है.
हमें स्त्री पर विश्वास करना चाहिए. उस पर संदेह करना छोडें. स्त्री को निषेध और हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है. कम से कम आज अपने घर के सारे कामों से अपने घर की महिलाओं को मुक्ति दें और महिलाओं को पुरुष बढ़िया खाना खिलाएं.
यह पूजा का दिन नहीं है, कुछ बेहतर जानते हो तो स्त्री के बारे में लिखो. महिला दिवस का मतलब है स्त्री को आलोचनात्मक रूप में देखो, लिखो. स्त्री को महान और देवी न बनाओ।स्त्री को कृपाकांक्षी न बनाओ. वह स्त्री है और उसकी स्त्री के रूप में स्वायत्त पहचान है. स्त्री को हर स्तर पर स्वायत्तता दो.
स्त्री और समाज का सबसे बड़ा शत्रु है बल का शासन. बल के शासन के हिमायतियों को हर स्तर पर बेनकाब करने की जरूरत है. बल के शासन के कुछ रूप हैं- हैसियत का शासन, प्रतिष्ठा का शासन, शक्ति या सत्ता का शासन आदि.
बल के शासन के बहाने स्त्री को बंधक बनाए रखने के बारीक उपायों को समाज में लागू किया जा रहा है. बल, सत्ता, हैसियत आदि के प्रति प्रेम और आकर्षण पैदा करके यह काम किया जा रहा है. समाज के लिए सबसे बुरी धारणा है- ‘यह परंपरा अब तक चली आ रही है, इसलिए तुम भी मानो.’ इस धारणा ने औरतों को विशेष रूप से नुकसान पहुंचाया है.
औरतों की मुक्ति के सवालों को जब रैनेसां के दौरान उठाया गया तो समाज सुधार के सवालों पर तो ध्यान दिया गया लेकिन मूर्तिपूजा के विरोध को उसके साथ जोड़कर देखना बंद कर दिया. स्त्री मुक्ति के सवाल उठाते हुए रैनेसांकालीन सुधारकों ने स्त्रीमुक्ति और मूर्तिपूजा विरोध को एक साथ पेश किया. क्योंकि पुरानी तमाम आस्थाओं और मान्यताओं में मूर्तिपूजा सबसे अमानवीय, सर्वाधिक झूठी और विनाशकारी है. इसकी हमारे सामाजिक मनोविज्ञान में गहरी जड़ें हैं.
इसके बहाने प्रकृति और ईश्वर के आदेश पर सबकुछ स्वीकार कर लेने पर जोर दिया गया. इसको मानने का अर्थ है स्थापित प्रथाओं और सामान्य भावनाओं को मानना, और यही वह बिन्दु है जहां से औरत की वैचारिक गुलामी का नया पाठ रचा गया. स्त्री मुक्ति के सवालों को हम जब तक मूर्तिपूजाविरोध से जोड़कर पेश नहीं करेंगे, स्त्री की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं होगा.
औरत का सबसे बड़ा शत्रु है तर्क और बुद्धि का शासन, औरत को इसके विकल्प के रूप में स्त्री स्वायत्तता और न्याय केन्द्रित शासन चाहिए. स्त्री प्रेम और सम्मान नहीं न्याय और स्वायत्तता चाहती है. स्त्री को निषेध नहीं, स्वतंत्र विकास चाहिए, नियमों की पाबंदी नहीं निजी स्वायत्तता चाहिए. स्त्रियों को शासन नहीं समानता का माहौल चाहिए.
बुर्जुआजी ने औरतों के साथ सबसे ज्यादा विश्वासघात किया है
जो लोग आए दिन बुर्जुआप्रेम में डूबे रहते हैं और हमारे बीच में बुर्जुआ प्रचारक की तरह काम करते हैं, वे जान लें कि बुर्जुआजी ने औरतों के साथ सबसे ज्यादा विश्वासघात किया है. जिस भारत पर हम गर्व करते नहीं थकते और जिसके बारे में इन दिनों आरएसएस के लोग राष्ट्रवाद का नकली बिगुल बजा रहे हैं वे हमें बताएं औरतों को इस राष्ट्र ने क्या दिया है ? क्या हमारा राष्ट्रवाद औरतों की बदहाली के लिए जिम्मेदार नहीं है ?
कांग्रेस और दूसरे बुर्जुआ दलों को भी सोचना चाहिए कि उन्होंने औरतों के साथ किस तरह विश्वासघात किया है. आज भी औरतें संवैधानिक हकों के बावजूद मातहत हैं, व्यापक सामाजिक उत्पीड़न की शिकार हैं, दोयमदर्जे के नागरिक का जीवन जी रही हैं. औरतों के नजरिए से भारत राष्ट्र को देखेंगे तो यह राष्ट्र बर्बर और उत्पीड़क नजर आएगा. क्या औरतों की दुर्दशा के लिए बुर्जुआजी और उनके पिछलग्गुओं को माफ किया जा सकता है ?
औरतों में व्याप्त कुरीतियां और पुराने मूल्य बोध
महिलाओं को पितृसत्तात्मक विचारधारा से मुक्त करने की आज सबसे बड़ी चुनौती है. इस चुनौती का सामना करते हुए हमें जहां एक ओर पुरूषों में इसके स्वरूप और चरित्र को निशाना बनाना चाहिए वहीं दूसरी ओर औरतों में व्याप्त कुरीतियों और आदतों को निशाना बनाने की जरूरत है. मुश्किल यह हो गयी है कि महिलाओं की कुरीतियों पर ज्योंही विवेकपूर्ण बहस आरंभ करते हैं तो महिलाएं नाराज हो जाती हैं. कहने लगती हैं, आप तो खामखाह औरतों की आलोचना कर रहे हैं.
औरतों का समाज में व्यापक योगदान है. हर स्तर पर औरत निवेश कर रही है, लेकिन उसके दिलो-दिमाग में पुराने मूल्य छाए हुए हैं. पुराने मूल्यों से लदा व्यक्ति समाज के लिए सही गति नहीं दे पाता. वहीं दूसरी ओर 70 साल के विकास के बावजूद महिलाओं का मानसिक तानाबाना यदि हम बदल नहीं पाए हैं तो इसमें समाज की असफलता तो है ही, लेकिन समाज से भी ज्यादा स्त्रियां इसके लिए जिम्मेदार हैं.
औरत बदले इसके जरूरी है वह पुराने मूल्यों और मान्यताओं के प्रति खुलकर आलोचनात्मक बहस चलाएं, पुराने मूल्यों को अस्वीकार करे. औरतों में पुराने मूल्यों के प्रति प्रेम सबसे बड़ी बाधा है, इस बाधा को गिराने की जरूरत है. पुराने मूल्यों के बोझ से औरत जितना जल्दी मुक्त होगी समाज उतनी ही तेजी से बदलेगा. औरत बदलेगी तब ही समाज बदलेगा. नए समाज के लिए नए मूल्यबोध से युक्त महिला समाज का निर्माण करना आज सबसे बड़ी चुनौती है.
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर महिलाओं के अंदर व्याप्त मूल्यों को लेकर आलोचनात्मक बहस होनी चाहिए. महिलाओं में बढ़ रही दुष्प्रवृत्तियों को लेकर खुला सामाजिक विमर्श होना चाहिए. महिलाएं अच्छी होती हैं, उनके गुणों पर जोर दें, लेकिन महिलाओं में बढ़ रही कुरीतियों-कुप्रथाओं और रूढ़िवाद भी भी इस दिन खुलकर वस्तुगत समीक्षा करने की जरूरत है. महिलाओं के प्रति इससे सम्मान कम नहीं होगा बल्कि सम्मान बढ़ेगा.
हमने नए प्रगतिशील दृष्टिकोण में औरतों में व्याप्त कुरीतियों पर कभी खुलकर हमला नहीं किया है. आज के दिन कम से कम औरतों में व्याप्त कुरीतियों, कुसंस्कारों और रूढ़िवाद की चर्चा जरूर करें, इससे महिलाओं के प्रति विवेकवादी नजरिया विकसित करने में मदद मिलेगी.
सवाल यह है आधुनिक विकास के क्रम में औरत का जिस गति से रूपान्तरण होना चाहिए वह क्यों नहीं हो पाया ? औरतों को पुराने सड़-गले मूल्यों में बांधे रखने वाली ताकतें और भी अधिक ताकतवर होकर सामने आई हैं. यह स्थिति कैसे बदले इस पर सोचें.
औरत की महिमा अनंत है और उसके गुण भी अनंत हैं. लेकिन एक बड़ा गुण है. औरत को जानना हो तो उसकी अनुभूति को जानो. औरत के लिए उसकी अनुभूतियां मूल्यवान हैं. औरत की अनुभूतियों का सम्मान करें और सुखी समाज बनाएं.
‘स्त्री के प्रति असभ्यता’ हमारी चिंता में क्यों नहीं है !
औरत सभ्य होती है, लेकिन औरत के अंदर अनेक ऐसी आदतें, परंपराएं और मूल्य हैं जो उसे असभ्यता के दायरे में धकेलते हैं. औरत को संयम और सही नजरिए से स्त्री के असभ्य रुपों को निशाना बनाना चाहिए. असभ्य आयाम का एक पहलू है देवीभाव. औरत को देवीभाव में रखकर देखने की बजाय मनुष्य के रुप में, स्त्री के रुप में देखें तो बेहतर होगा.
औरत में असभ्यता कब जाग जाए यह कहना मुश्किल है लेकिन असभ्यता के अनेक रुप दर्ज किए गए हैं. खासकर औरत के असभ्य रुपों की स्त्रीवादी विचारकों ने खुलकर चर्चा की है. हमें भारतीय समाज के संदर्भ में और खासकर हिन्दू औरतों के संदर्भ में उन क्षेत्रों में दाखिल होना चाहिए जहां पर औरत के असभ्य रुप नजर आते हैं.
औरत की असभ्य संस्कृति के निर्माण में पुंसवाद की निर्णायक भूमिका है. इसके अलावा स्वयं औरत की अचेतनता भी इसका बहुत बड़ा कारक है. मसलन्, जब कोई लड़की शिक्षित होकर भी दहेज के साथ शादी करती है, दहेज के खिलाफ प्रतिवाद नहीं करती तो वह असभ्यता को बढ़ावा देती है. हमने सभ्यता के विकास को शिक्षा, नौकरी आदि से जोड़कर इस तरह का स्टीरियोटाइप विकसित किया है कि उससे औरत के सभ्यता के मार्ग का संकुचन हुआ है.
हमारी शिक्षा लड़कियों को सभ्य कम और अनुगामी ज्यादा बनाती है. औरत सभ्य तब बनती है जब वह सचेतन भाव से सामाजिक बुराईयों के खिलाफ जंग करती है. औरत की जंग तब तक सार्थक नहीं हो सकती जब तक हम उसे आम औरत के निजी जीवन तक नहीं ले जाते. हमारे सभ्य समाज की आयरनी यह है कि वह सभ्य औरत तो चाहता है लेकिन उसे सभ्य बनाने के लिए आत्मसंघर्ष करने की प्रेरणा नहीं देता. मसलन्, औरतों में दहेज प्रथा के खिलाफ जिस तरह की नफरत होनी चाहिए वह कहीं पर भी नजर नहीं आती.
औरत सभ्य है या असभ्य है यह इस बात से तय होगा कि वह अपने जीवन से जुड़े बुनियादी सवालों और समस्याओं पर विवेकवादी नजरिए से क्या फैसला लेती है ? समाज ने स्त्री के लिए अनुकरण और निषेधों की श्रृंखला तैयार की है और उसे वैध बनाने के तर्कशास्त्र, मान्यताएं और संस्कारों को निर्मित किया है. इसके विपरीत यदि कोई औरत अनुकरण और निषेधों का निषेध करे तो सबसे पहले औरतें ही दवाब पैदा करती हैं कि तुम यह मत करो, ऐसा मत करो, परिवार की इज्जत को बट्टा लग जाएगा.
औरत को बार-बार परिवार की इज्जत का वास्ता देकर असभ्य कर्मों को करने के लिए कहा जाता है. खासकर युवा लड़कियों के अंदर दहेज प्रथा के खिलाफ जब तक घृणा पैदा नहीं होगी, औरत को सभ्य बनाना संभव नहीं है. औरत सभ्य बने इसके लिए जरुरी है कि वह उन तमाम चीजों से नफरत करना सीखे जो उसको सभ्य बनने से रोकती हैं. दहेज प्रथा उनमें से एक है.
औरत के अंदर असभ्यता का आधार है अनुगामी भावबोध. जब तक औरतें अनुगामी भावबोध को विवेक के जरिए अपदस्थ नहीं करतीं वे सभ्यता को अर्जित नहीं कर पाएंगी. समाज में अनुगामी औरत को आदर्श मानने की मानसिकता को बदलना होगा.
औरतें, खासकर लड़कियों की सचेतभाव से मूर्खतापूर्ण हरकतें करना
औरत को असभ्य बनाने में दूसरा बड़ा तत्व है, औरतों और खासकर लड़कियों का सचेतभाव से मूर्खतापूर्ण हरकतें करना, मूर्खता को वे क्रमशः अपने जीवन का आभूषण बना लेतीं हैं. तमाम किस्म के स्त्रीनाटक इस मूर्खतापूर्ण आचरण के गर्भ से निकलते हैं. स्त्री की मूर्खतापूर्ण हरकतें अधिकांश पुरुषों को अच्छी लगती हैं. फलतः लड़कियां सचेत रुप से मूर्खता को अपने जीवन का स्वाभाविक अंग बना लेती हैं. इससे स्त्री की छद्म इमेज बनती है. स्त्री सभ्य बने इसके लिए जरुरी है कि वह छद्म इमेज और छद्म मान्यताओं में जीना बंद करे.
छद्म इमेज का आदर्श है लड़कियों में फिल्मी नायिकाओं को आदर्श मानने का छद्मभाव. मसलन्, माधुरी दीक्षित, रेखा, ऐश्वर्या राय में कौन सी चीज है जिससे लड़कियां प्रेरणा लेती हैं ? क्या सौंदर्य-हाव-भाव आदि आदर्श हैं ? यदि ये आदर्श हैं तो इनसे सभ्यता का विकास नहीं होगा. सौंदर्य के बाजार और प्रसाधन उद्योग का विकास होगा.
यदि इन नायिकाओं के कैरियर और उसके लिए इन नायिकाओं द्वारा की गयी कठिन साधना और संघर्ष को लड़कियां अपना लक्ष्य बनाती हैं तो वे सभ्यता का विकास करेंगी और पहले से ज्यादा सुंदर दिखने लगेंगी. ये वे नायिकाएं हैं जिन्होंने अपने कलात्मक जीवन को सफलता की ऊंचाईयों तक पहुंचाने के लिए कठिन रास्ता चुना और समाज में सबसे ऊंचा दर्जा हासिल किया. अपने अभिनय के जरिए लोगों का दिल जीता.
कहने का अर्थ है कि फिल्मी नायिका से सौंदर्य टिप्स लेने की बजाय, उसके सौंदर्य का अनुकरण करने की बजाय, कलात्मक संघर्ष की भावनाएं और मूल्य यदि ग्रहण किए जाते तो देश में हजारों माधुरी दीक्षित होतीं ! दुर्भाग्य की बात है कि हम यह अभी तक समझ नहीं पाए हैं कि औरत का सौंदर्य उसके शरीर में नहीं उसकी सभ्यता में होता है ! औरत जितनी सभ्य होगी वह उतनी ही सुंदर होगी. सभ्यता के निर्माण के लिए जरुरी है कि औरतें स्वावलंबी बनें. अनुगामी भाव से बचें.
औरत को थाने नहीं लोकतांत्रिक महिला संगठन चाहिए
औरतों के साथ हिंसाचार कानून और सरकार बदलने मात्र से नहीं थमेगा. औरतों को संगठित होकर लंबे संघर्ष के लिए कमर कसनी होगी. औरत की सुरक्षा का मामला मात्र जेण्डर प्रश्न नहीं है, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का सवाल है. पितृसत्ता के वर्चस्व के सभी रुपों के खिलाफ संघर्ष का मामला है. यह औरत के स्वभाव को बदलने का मामला भी है.
औरतों की लड़ाई मात्र कानूनी लडाई नहीं है और नहीं यह सरकार पाने की लडाई है. वह सामाजिक परिवर्तन की लडाई है. इसमें जब तक औरतें सड़कों पर नहीं निकलेंगी और निरंतर जागरुकता का प्रदर्शन नहीं करेंगी, तब तक स्थितियां बदलने से रहीं. इन दिनों पुंस हिंसाचार का जो तूफान समाज में चल रहा है उसमें इजाफा ही होगा.
आयरनी है कि औरतों के ऊपर हो रहे हिंसाचार के खिलाफ औरतें अभी तक सड़कों पर निकलने को तैयार नहीं हैं. कहीं पर भी हजारों-लाखों औरतों के जुलूस नजर नहीं आ रहे. स्थिति इतनी भयावह है कि पीड़िता को देखकर भी हम अनदेखा कर रहे हैं. पुरुषों के लिए बलात्कार एक खबर होकर रह गयी, वहीं औरतों के लिए जुल्म. महिला दिवस मात्र मीडिया खबर.
औरत को संघर्ष की प्रक्रिया में लाना होगा
हमें इस दायरे से निकलकर औरत को संघर्ष की प्रक्रिया में लाना होगा. औरत संघर्ष करेगी तो हिंसाचार थमेगा. हमें औरत को संघर्ष करने के लिए प्रेरित करना होगा. हमें औरतों को सामाजिक हलचलों से दूर रखने की मनोदशा बदलनी होगी. औरतों को भी अ-राजनीतिक होकर जीने की आदत और अभ्यासों को त्यागना होगा. औरत को अ-राजनीतिक बनाने से पुंस समाज को लाभ मिला है.
औरत अ-राजनीतिक न बने हमें उसके उपाय खोजने होंगे. औरतों में सामाजिक-राजनीतिक जागरुकता पैदा करने के उपायों पर विचार करना होगा और यह काम औरतों के बिना संभव नहीं है. पहली कड़ी के तौर पर औरतों को अखबार पढ़ने, टीवी न्यूज देखने और राजनीतिक खबरों में दिलचस्पी लेने की आदत डालनी होगी. औरत को सीरियल संस्कृति और मनोरंजन संस्कृति के बंद परकोटे से बाहर निकालना होगा. मनोरंजन की कैद में बंद औरत अपनी रक्षा नहीं कर सकती. यह वह औरत है जो सामाजिक-राजनीतिक भूमिका से संयास ले चुकी है.
यह सच है औरतें रुटिन कामों को सालों-साल करती रहती हैं और घरों में बैठे हुए बोर होती रहती हैं, लेकिन इससे भी बड़ा सच यह है कि सीरियल या मनोरंजन प्रोडक्टों का रुटिन आस्वादन और भी ज्यादा बोर करता है. उनका अहर्निश आस्वादन सामाजिक तौर पर निष्क्रिय बनाता है.
औरत सामाजिक तौर पर निष्क्रिय न बने इसके लिए औरतों को यह जानना होगा कि वह जिसे आनंद या मनोरंजन समझ रही है, वह तो उनकी बोरियत बढ़ाने वाला संसाधन है. औरत को मनोरंजन की नकली भूख को खत्म करने के लिए मनोरंजन के असली और कारगर रुपों को अपनाना होगा. औरतें अ-राजनीति के दायरे के बाहर आएं इसके लिए जरुरी है कि वे अपनी पहल पर लोकतांत्रिक महिला संगठनों की शाखाएं अपने मुहल्ले में खोलें और नए सिरे से सामाजिक सवालों पर मिलने-जुलने और काम करने का सिस्टम तैयार करें.
आज स्थिति यह है कि भारत के अधिकांश मुहल्लों में महिला संगठन नहीं हैं. महिला संगठनों के बिना आप महिलाओं को नहीं बचा सकते. महिलाओं को हर इलाके में थाने नहीं महिला संगठनों की जरुरत है. महिलाओं के इस तरह के संगठनों की जरुरत है जो निरंतर महिलाओं के सवालों पर सोचें और महिलाओं को सक्रिय-शिक्षित करें. महिलाएं सक्रिय-शिक्षित और संगठित बनेंगी तब ही हिंसाचार रुकेगा.
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