
हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
व्हाइट हाउस में ट्रंप-जेलेंस्की बहस के वीडियो वायरल हुए. अब इस बहस के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस निर्मित कई वीडियोज वायरल हो रहे हैं. किसी में दिख रहा है कि आपस में गर्मागर्मी करते दोनों नेता अचानक से उठ खड़े होते हैं और जेलेंस्की ट्रंप को जोर से धक्का देते हैं. ट्रंप गिर जाते हैं. इधर ट्रंप के उपराष्ट्रपति वेंस यह सब देख कर उठते हैं और गिरे हुए ट्रंप को उठाने के बजाय जेलेंस्की को दे दनादन देने लगते हैं.
एक और वीडियो में दोनों राष्ट्रपति बहस करते लड़ने लगते हैं और उठ कर एक दूसरे पर मुक्कों की बरसात करते एक दूसरे पर गिर जाते हैं. ऐसे ही और कई वीडियोज़. तकनीक के मामले में हमारी तरह की सामान्य समझ रखने वाले लोग ऐसे वीडियो देख कर यह फर्क ही नहीं कर पा रहे कि इसमें आर्टिफिशियल क्या है. बनाने वाले कल्पनाशील व्यक्तियों ने ऐसा बनाया है कि असली लग रहा है.
यह डरावना है. इसका मतलब है कि आमलोगों के ऐसे वीडियो बना कर दूसरों को थोड़ी देर के लिए भ्रमित कर देना आसान हो गया है. आप सफाई देते रहिए कि यह एआई से बनाया गया है.
साइबर अपराध के मामले में भारत दुनिया के अग्रणी देशों में शामिल है. इसका कोई ठोस और त्वरित निदान खोजा नहीं जा सका है. खुद पुलिस के लोग भी इनसे निपटने के लिए ट्रेनिंग ही ले रहे हैं. छल से ओटीपी मांग कर एकाउंट खाली कर देने से शुरू होकर मामला अब डिजिटल एरेस्ट तक आ पहुंचा है. अधिकतर मामलों में अपराधी पकड़े नहीं जाते और ठगा जाने वाली आदमी सिर धुनता तकनीक को कोसता रह जाता है.
पहले आदमी ने तकनीक का विकास कर अपनी जिंदगी आसान बनाई. अब तकनीक उसके सिर पर चढ़ कर नाच रही है. एआई तकनीक अभी शैशवावस्था में है. बावजूद इसके, इसका जलवा नजर आ रहा है. वो कहते हैं न कि पूत के पांव पालने में ही नजर आने लगते हैं तो एआई नामक पूत, जो अभी पालने में ही है, के शुरुआती जलवे बता रहे हैं कि जब वे जवान होंगे तो कितने कहर बरपाएंगे.
यह बहस का विषय है कि एआई रोजगार के बाजार को कितना प्रभावित करेगा, लेकिन इस पर कोई संशय नहीं कि आने वाले समय में कोई आपकी आवाज इतनी सफाई से निकाल कर मोबाइल पर आपके मित्रों, परिजनों को भ्रमित कर देगा कि आप खुद संशय में पड़ जाएंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है.
भले ही भारत जैसे अर्द्ध शिक्षित देश में स्मार्टफोन करोड़ों हाथों में पहुंच चुका है लेकिन तकनीकी दक्षता का अपेक्षित विस्तार नहीं हो पाया है. ठगों के लिए ऐसे लोग नरम चारा हैं. डिजिटल एरेस्ट तो पढ़े लिखे बड़े लोगों का ही हो रहा है, जिनके एकाउंट में लाखों रूपये हैं.
एआई का खतरा सिर्फ आर्थिक मामलों में ही नहीं, यह समाजिक और पारिवारिक आपदाओं का भी कारण बनने वाला है. एक लेख में पढ़ रहा था कि एआई तकनीक का विकास तो तेजी से हो रहा है लेकिन इसके साइड इफेक्ट्स से बचाव के कारगर तरीकों पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया जा रहा है. डिजिटल ज्ञान का सामान्य लोगों में अभाव मामले को और अधिक पेचीदा बना रहा है.
आज ट्रंप जेलेंस्की के बीच मुक्केबाजी के कृत्रिम विडियोज आनंदित हो कर लोग देख रहे हैं. लेकिन, कल इसकी जद में सामान्य लोग भी आ सकते हैं. खुदा खैर करे…!
प्रोपेगेंडा फिल्मों की लाइन सी लगी है आजकल. ऐसे दौर में, जब बड़े बड़े न्यूज चैनल प्रोपेगेंडा फैलाने में लगे हों, जब राजनीति प्रोपेगेंडा को अपना प्रभावी हथियार बना ले तो यह सवाल बेमानी हो जाता है कि ऐसी फिल्मों में दरअसल पैसा लगा कौन रहा है.
अब जब, इतिहास के किसी अध्याय को लेकर प्रोपेगेंडा का वितान रचना है तो लोगों के बीच ऐतिहासिक पात्रों को लेकर गलत तथ्य पहुंचाना कोई बड़ी बात नहीं. कुछ ऐसा ही हुआ प्रोपेगेंडा फिल्मों की नवीनतम कड़ी छावा के साथ, जब महाराष्ट्र के एक परिवार ने इसे बनाने वालों के ऊपर एक सौ करोड़ का मानहानि का मुकदमा दर्ज कर दिया.
उनका आरोप था कि उनके पूर्वजों के बारे में फिल्म में जो दिखाया गया है वह ऐतिहासिक साक्ष्यों से कतई मेल नहीं खाता और इससे उनकी प्रतिष्ठा धूमिल हुई है. कोर्ट में अपनी हार सामने देख फिल्म बनाने वालों के हाथ पांव फूल गए और उन्होंने माफी मांग लेने का आसान विकल्प चुन लिया.
लेकिन, इससे मामले की गंभीरता कम नहीं हो जाती. ऐसे दौर में, जब मूढ़ लोगों की एक बड़ी संख्या इतिहास की किताबों से इतर फॉरवर्डेड व्हाट्सएप मैसेजों से इतिहास की घटनाओं या इतिहास पुरुषों के प्रति अपनी राय निर्धारित करती है तो प्रोपेगेंडा फैलाने वाली फिल्मों के गहरे असर से वे कैसे बचेंगे.
अगर इतिहास जानना है तो आपको इतिहास की किताबों से गुजरना पड़ेगा, स्थापित विद्वानों के व्याख्यान सुनने होंगे. लेकिन अगर जनमानस को विकृतियों से भरना हो तो किताबों और विद्वानों को परे रखिए और कोई भव्य सी प्रोपेगेंडा फिल्म बनाइए. फंडिंग की कोई समस्या नहीं. अनाम अज्ञात स्रोतों से फंड का अबाध प्रवाह है बशर्ते यह फिल्म राजनीति के हथियार की तरह काम आ सके. फिर, तथ्यों की परवाह कौन करता है ?
इतिहास समतल मैदान नहीं जहां आप प्रोपेगेंडा के घोड़े सरपट दौड़ा दें. यहां घाटियां हैं, ऊंचे पहाड़ हैं, कहीं रेगिस्तान है, कहीं मीठे पानी का दरिया है. गहन अध्ययन ही किसी दौर या किसी नायक, प्रतिनायक के बारे में किसी निष्कर्ष तक पहुंचा सकता है.
संभाजी महाराज को औरंगजेब ने गंभीर यातनाएं दी और फिर मार डाला, यह एक तथ्य है. लेकिन, एक तथ्य और है. इतिहास के रिसर्चर और कई प्रामाणिक किताबों के लेखक अशोक कुमार पांडे अपने एक कार्यक्रम में कल बता रहे थे कि छत्रपति संभाजी महाराज के बेटे छत्रपति शाहूजी महाराज, जो 1707 से 1749 तक राजगद्दी पर विराजमान रहे, औरंगजेब की कब्र पर आजीवन नंगे पांव जाते रहे. ऐसा क्यों था ?
इसका जवाब आपको इतिहास की किताबों में ही मिलेगा या फिर, इतिहास के प्रामाणिक अध्येताओं के आलेखों या व्याख्यानों से मिलेगा. फिल्मों के माध्यम से किसी घटना, किसी कालखंड या किसी चरित्र को हिन्दू-मुस्लिम के नजरिए से पेश कर देना सिर्फ इतिहास को विकृत कर लोगों के मानस को विकृत करने का सुनियोजित प्रयास है. ऐसा क्यों हो रहा है इसे समझना आसान है बशर्ते आप सोचने समझने के काबिल हों.
विकी कौशल अच्छे अभिनेता हैं. उन्होंने अपने करियर के शुरू में ही यह साबित कर दिया था. लेकिन, इधर कई वर्षों से लगातार वे कई ऐसी फिल्मों में आए हैं जिन्हें प्रोपेगेंडा फिल्म कहा गया. यह उनके करियर के लिए कोई प्रशंसा की बात नहीं है. कोई गंभीर फिल्मकार किसी गंभीर फिल्म के लिए उन्हें साइन करने के पहले अब सौ बार सोचेगा, वह भी तब, जब एक सक्षम अभिनेता के रूप में वे अपने को स्थापित कर चुके हैं.
फिल्मों की दुनिया में छवि की बड़ी भूमिका है और प्रोपेगेंडा का लगातार वाहक बन कर कोई कलाकार प्रतिष्ठा का कोई ऊंचा मुकाम हासिल नहीं कर सकता. कंगना रनौत जैसी सक्षम अभिनेत्री का हश्र सामने है.
ऊपर दांयी ओर जो कार्टून है, उसे फेसबुक मित्र और चर्चित कार्टूनिस्ट Hemant Malviya के वाल से लिया गया है. छावा देख कर औरंगजेब को सजा देने के लिए सिनेमा हॉल का पर्दा फाड़ देने को उतारू उत्साही मूढ़ की खबरें चर्चित हुई थी. उसी पर यह कार्टून बनाया गया है जो देखने और समझने लायक है. आने वाले समय में, जब यह प्रायोजित ज्वार थमेगा तो लोग बेहतर तरीके से इस अंधेरे दौर का विश्लेषण कर सकेंगे.
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