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कॉरपोरेटपरस्त भारत सरकार के साथ युद्ध में माओवादी ‘माओ’ की शिक्षा भूल गए ?

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कॉरपोरेटपरस्त भारत सरकार के साथ युद्ध में माओवादी ‘माओ’ की शिक्षा भूल गए ?
कॉरपोरेटपरस्त भारत सरकार के साथ युद्ध में माओवादी ‘माओ’ की शिक्षा भूल गए ?

भारत में संघी सरकार और  जनताना सरकार की बीच भीषण युद्ध जारी है. ताज़ा युद्ध छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में हुई मुठभेड़ है, जिसमें 27 माओवादी गुरिल्लों के शहीद होने की सरकारी ख़बर है. इसमें केन्द्रीय कमेटी के सदस्य जयराम उर्फ चलपति समेत कई अन्य महत्वपूर्ण नेताओं के शहीद होने की ख़बर है. सरकारी सूत्रों के हवाले से मिली जानकारी के अनुसार पुलिस कई दिनों से इनसे संबंधित जानकारी हासिल कर रही थी.

पुलिस की ओर से छत्तीसगढ़ और ओडिशा की ओर से जॉइंट ऑपरेशन चलाया गया था, जिसमें 10 टीमें एक साथ निकली थी. 3 टीम ओडिशा से, 2 टीम छत्तीसगढ़ पुलिस से और 5 CRPF टीम इस ऑपरेशन में शामिल थीं. इस मुठभेड़ की ख़ास बात यह है कि इस मुठभेड़ में पुलिस ने पहली बार ड्रोन का इस्तेमाल किया है. नरेन्द्र मोदी ने किसानों के नाम पर ड्रोन ख़रीद कर पहले किसानों पर बम गिराया, अब माओवादी गुरिल्लों को मारने के लिए इस्तेमाल कर रहा है.

इस मुठभेड़ में माओवादियों के केन्द्रीय कमेटी सदस्य जयराम रेड्डी उर्फ रामाचंद्रा रेड्डी उर्फ अप्पाराव उर्फ रामू शहीद हुए हैं जो आंध्र प्रदेश के चित्तूर के माटेमपल्ली के रहने वाले थे. इनकी उम्र करीब 60 साल थी. इन्होंने 10वीं तक की पढ़ाई की थी और सेंट्रल कमेटी मेंबर (CCM) थे.

बहरहाल, मनुस्मृति बनाम कम्युनिस्ट घोषणापत्र के बीच युद्ध बर्बर स्वरूप अख़्तियार कर चुका है. मनुस्मृति वाली मोदी सरकार घोषणा कर चुका है कि वह कम्युनिस्ट घोषणापत्र वाले माओवादी को पूरी तरह मिटा देंगे, ऐसे में सवाल उठता है कि आख़िर इस युद्ध में लगातार नुक़सान उठा रहे माओवादी क्या माओ त्स्-तुंग की युद्ध नीति भूल गए हैं अथवा उनका यह युद्ध क्या दक्षिणपंथी/ अर्थवाद के दलदल में फंस गया है ?

माओ त्से-तुंग अपने युद्ध सिद्धांत में बताते हैं- ‘सैन्य अभियानों के सभी मार्गदर्शक सिद्धांत एक बुनियादी सिद्धांत से निकलते हैं: अपनी ताकत को बनाए रखने और दुश्मन को नष्ट करने के लिए हर संभव प्रयास करना. एक क्रांतिकारी युद्ध में, यह सिद्धांत सीधे बुनियादी राजनीतिक सिद्धांतों से जुड़ा होता है…खुद को बचाने और दुश्मन को नष्ट करने का सिद्धांत सभी सैन्य सिद्धांतों का आधार है.’

लेकिन, अभी जिस युद्ध का घोषणा तड़ीपार अमित शाह ने माओवादियों के खिलाफ किया है, उसमें माओवादी लगातार नुक़सान उठा रहे हैं. हर बढ़ते दिन के साथ नुक़सान गहरा होता जा रहा है, तो कहीं न कहीं लग रहा है कि माओवादी दक्षिणपंथी भटकाव का शिकार हो रहे हैं. यही कारण है कि वे दुश्मन के घेरा डालने और ख़त्म करने की नीति का मुक़ाबला नहीं कर पा रहे हैं. बचाव कर रहे हैं, जबकि आक्रमण ही बचाव का सबसे पुराना और अच्छा उपाय है.

माओ बताते हैं कि ‘अपने अभियानों में गुरिल्ला इकाइयों को अधिकतम बलों को केंद्रित करना होता है, गुप्त रूप से और तेजी से कार्य करना होता है, दुश्मन पर अचानक हमला करना होता है और लड़ाई को त्वरित निर्णय पर लाना होता है, और उन्हें निष्क्रिय रक्षा, विलंब और मुठभेड़ों से पहले बलों को तितर-बितर करने से सख्ती से बचना होता है. बेशक, गुरिल्ला युद्ध में न केवल रणनीतिक बल्कि सामरिक रक्षात्मक भी शामिल है.

’… गुरिल्ला युद्ध का मूल सिद्धांत आक्रामक होना चाहिए, और गुरिल्ला युद्ध अपने चरित्र में नियमित युद्ध की तुलना में अधिक आक्रामक है. इसके अलावा, आक्रामक को आश्चर्यजनक हमलों का रूप लेना चाहिए, और अपने बलों को दिखावटी ढंग से परेड करके खुद को उजागर करना गुरिल्ला युद्ध में नियमित युद्ध की तुलना में और भी कम स्वीकार्य है.’ (माओ त्से-तुंग : जापान के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध में रणनीति की समस्याएं, मई 1938)

वे आगे बताते हैं कि- ‘एक गुरिल्ला इकाई, या एक गुरिल्ला गठन, को अपने मुख्य बलों को तब केंद्रित करना चाहिए जब वह दुश्मन को नष्ट करने में लगा हो, और विशेष रूप से जब वह दुश्मन के हमले को कुचलने का प्रयास कर रहा हो. ‘दुश्मन बल के एक छोटे से हिस्से पर हमला करने के लिए एक बड़ी सेना को केंद्रित करना’ गुरिल्ला युद्ध में क्षेत्र संचालन का एक सिद्धांत बना हुआ है.’ (वही)

माओ त्से-तुंग ‘गुरिल्ला युद्ध में पहल क्या हैं’ के बारे में बताते हुए लिखते हैं कि ‘किसी भी युद्ध में, विरोधी पहल के लिए संघर्ष करते हैं, चाहे वह युद्ध के मैदान में हो, युद्ध क्षेत्र में हो, युद्ध क्षेत्र में हो या पूरे युद्ध में, क्योंकि पहल का मतलब सेना के लिए कार्रवाई की स्वतंत्रता है. कोई भी सेना जो पहल खोकर निष्क्रिय स्थिति में आ जाती है और कार्रवाई की स्वतंत्रता खो देती है, उसे हार या विनाश का खतरा होता है.‘ (वही)

लगता है माओवादी मुठभेड़ के दौरान पहल खो बैठते हैं, आक्रमण के बजाय बचाव मुख्य हो जाता है. ज़ाहिर है नुक़सान ज़्यादा हो रहा है और दुश्मन कम नुक़सान उठा रहा है. हलांकि यह भी संभव है कि सरकार अपना नुक़सान छिपाती है या कम कर बताती है. बावजूद इसके सवाल उठता है कि क्या कॉ. श्याम का यह आंकलन सही था कि माओवादी संगठन दक्षिणपंथी भटकाव का शिकार हो गई है या अर्थवाद के दलदल में फंस गई है ??

बहरहाल, मनुस्मृति वाली संघी सरकार ने माओवादियों की जनताना सरकार के खिलाफ एक सम्पूर्ण खूरेंजी बर्बर युद्ध थोप दिया है. निःसंदेह इस बर्बर नृशंस खूनी युद्ध में कम से कम 32 करोड़ लोगों की बलि चढ़ेगी. देखना यह है कि 32 करोड़ लोगों की बलि रिरियाते घिघियाते लोगों से होती है अथवा वीरतापूर्वक लड़ते हुए जांबाज वीरों से ! जनताना सरकार के माओवादियों ने संघी सत्ता को बता दिया है कि वे लड़ेंगे और वीरतापूर्वक लड़ते हुए जीत दर्ज करेंगे, शहादतों की सूची चाहे जितनी लम्बी हो !

  • महेश सिंह 

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