फोर्स्ड एक्सोडस ऑफ कश्मीरी पंडित…कुछ तस्वीरें हैं, जनसंहार है, रोते लोग, छाती पीटती औरतें. एक प्रेस कटिंग है जो कश्मीरी पंडित- टीका राम टपलू की हत्या की खबर देती है. रालीव, चलीव या ग़ालिव- याने कश्मीर छोड़ दो, धर्म बदल लो, या मरने को तैयार रहो. हर तसवीर, हर शब्द सच है, पर सारी तसवीर, सारे शब्द मिलाकर एक झूठ बनता है.
कश्मीर को 370 के तहत ऑटोनोमी का वादा था. कोई 90+ मसलों पर कश्मीर विधानसभा को वैसा स्व-अधिकार था, जो भारत के आम राज्यों को नहीं. फिर विलय के 10 साल के भीतर ही 2-4 करके ये अधिकार हटने लगे. 80 के दशक तक 70+ अधिकार खत्म हो चुके थे. अलग झंडा और कुछ लैंड राइट जैसे मुद्दे छोड़, 370 का बोरा, तब तक खाली हो चुका था.
कश्मीर की ऑटोनोमी का क्षरण, आम भारतीय के दृष्टिकोण से बड़ी बात नही, पर आम कश्मीरी के लिए इमोशनल ईशु हो सकता है. तो इसका फायदा 80 के बाद सर उठाने वाली ताकतों ने उठाया. ऑटोनोमी की बात करते हुए, 1987 के चुनाव में सलाहुद्दीन, यासीन मलिक जैसे लड़के एक ढीला ढाला मोर्चा बनाकर इलेक्शन में खड़े हुए. इन्हें जनसमर्थन नहीं था. इक्का दुक्का क्षेत्र छोड़, कहीं चुनाव जीतने या फाइट देने की हालात में नहीं थे, फिर भी इनकी हार सुनिश्चित करने के लिए प्रशासनिक तंत्र का नंगा इस्तेमाल हुआ.
याने 1987 के चुनाव में फारुख की नेशनल कॉन्फ्रेंस का जीतना ही था. लेकिन ऐसे इलेक्शन से उनकी जीत, और क्रेडिबिलिटी दागदार हो गयी. तो फारुख के प्रशासन की विश्वसनीयता शून्य थी, और गवर्नर जगमोहन अतिसक्रिय थे. जनता में असंतोष था, प्रदर्शन हो रहे थे.
पाकिस्तान क्यों चूकता. कुछ सौ युवाओ को ट्रेनिंग और हथियार दिये. वे लोग प्रशासनिक और प्रभुत्वशाली लोगों की हत्या करने लगे. मरने वाले नेशनल कॉन्फ्रेंस के पदाधिकारी थे. कुछ बड़े मौलवी भी, जो इन हत्यारों के समर्थन में नही थे. वे मुस्लिम थे, मारे गये. जज, पुलिस, आकाशवाणी, इंटेलिजेंस के लोग टारगेट हुए. कश्मीरी स्टेट एडमिनिस्ट्रेशन में हिन्दू अधिक थे तो हिन्दू मारे गए. एक लोकसभा प्रश्न के उत्तर में सरकार ने बताया था कि 1990 में कुल 380 हत्याएं हुई, जिसमें 89 हिन्दू थे.
1988 में जगमोहन को ‘हॉट हेडेडनेस’ और पुलिस प्रशासन को सीधे निर्देश देने की आदत के कारण राजीव ने हटा दिया था. गिरीशचन्द्र सक्सेना राज्यपाल बनकर गए. जब राजीव चुनाव हारे, और वीपी के शपथ लेते ही रुबाइयां अपहरण कांड हुआ, भारत सरकार ने इतिहास में पहली बार आतंकियों के सामने घुटने टेके. इससे अभी तक अंधेरे में तीर चला रहे कश्मीरी आतंकियों को जबरजस्त बूस्ट मिला.
1990 की जनवरी में, इन लोगो ने हालात सुधारने के लिए जगमोहन को फिर भेजा. सरकार को समर्थन देकर सत्ता दिलाने वाली BJP/RSS का दबाव कह लें, या VP की विनाश काले विपरीत बुद्धि…फारुख ने उन्हें भेजने के विरोध में इस्तीफा दे दिया. जगमोहन को खुला हाथ मिल गया. और जगमोहन का तरीका क्या था ??
कश्मीर के धर्मगुरु मीरवाइज की हत्या हो गयी. उनके जनाजे में भयंकर भीड़ उमड़ी. उस जनाजे पर पर गोलियां चलवा दी गयी. ऊपर लगी एक तस्वीर उसकी है. हत्या का नंगा नाच, जलियांवाला बाग की प्रतिकृति, आपको गांवकदल में मिलेगी.
यहां प्रदर्शन हो रहा था. एक ब्रिज है, जिसके एक तरफ से प्रदर्शनकारी आगे बढ़ रहे थे, दूसरी ओर CRPF. निहत्थे लोगों पर गोलियां चली. 100 से ऊपर लोग मरे. लाशें बिछी, कितनी तो ब्रिज से गिर नदी में बह गई. एक तस्वीर उसकी है.
मरने वाले, रोने वाले मुस्लिम थे, ये लोग पण्डित नहीं थे. वे तस्वीरे आज आपको पण्डित बताकर व्हाट्सप स्लाइड पर दिखाई जा रही है. टीकाराम टपलू अवश्य पण्डित थे. वकील थे, संघी थे, और संघी कैसा होता है ? तो वैसे ही थे. किसी मुस्लिम महिला को 5 रुपये देने गए थे. अक्सर जाते थे, ‘दान पुन्न’ करने तो वहीं मार दिये गए. बाकी जो छपना था, छपा.
आतंकियों ने प्रतिकार किया. उनका तरीका- मस्जिदों से धमकियां प्रसारित करवाई. रालीव, चलीव या ग़ालिव- याने कश्मीर छोड़ दो, धर्म बदल लो, या मरने को तैयार रहो. पंजाब में बसों को रोककर, हिन्दुओं को लाइन में खड़ा कर भून दिया जाता था. धमकियां दी जाती थी, माहौल बनाया जाता था.
पाकिस्तान यहां भी था, सेपरेटिस्ट थे पर जगमोहन नहीं थे, कच्ची सरकार नहीं थी. कोई हिन्दू न हिला, बल्कि आतंकियों का सफाया हुआ. कश्मीर में जगमोहन ने सरकारी बसें लगाई, सारे कश्मीरी पण्डित बिठाए, जम्मू भेज दिया. वे कभी न लौटे.
कश्मीर में कोई पण्डित नरसंहार कभी न हुआ. पर यह झूठ, आपको बताया जाता है. तो यहां हर तसवीर, हर शब्द सच है लेकिन सारी तसवीर, सारे शब्द मिलाकर एक झूठ बनता है. आज गांवकदल नरसंहार की बरसी है !
- मनीष सिंह
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