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‘सीबीआई, जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ एफआईआर दर्ज करें’ – 13 वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने सीजेआई को लिखा पत्र

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‘सीबीआई, जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ एफआईआर दर्ज करें’ - 13 वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने सीजेआई को लिखा पत्र
‘सीबीआई, जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ एफआईआर दर्ज करें’ – 13 वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने सीजेआई को लिखा पत्र

आज एक भरोसेमंद पत्रकार अपने ब्लॉग में बता रहे थे कि सरकार के अंदरूनी वरिष्ठ अधिकारियों ने बातचीत के दौरान बताया कि पिछले दस सालों में भारत की तमाम संवैधानिक पदों के 70 प्रतिशत पदों पर लैटरल इंट्री के माध्यम से ऐसे लोगों की बहाली की गई है जिसकी योग्यता उस पद के हिसाब से नहीं बल्कि इस हिसाब से की गई है कि वह मोदी सत्ता का कितना बड़ा वफ़ादार है. अर्थात् वह संविधान का नहीं बल्कि मोदी का शपथ लेता है.

जाहिर है इस 70 प्रतिशत पदों में देश का न्यायपालिका भी है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट भी शामिल है. अगर हम सुप्रीम कोर्ट के पिछले दस सालों के फ़ैसले पर गौर करें तो उसके हर संवेदनशील फ़ैसले में मोदी की स्पष्ट छाप दीख जायेगी. जिस बात को वे अधिकारी उस पत्रकार के समक्ष उठा रहे थे, ठीक वहीं सवाल विपक्ष के नेता राहुल गांधी भी अपने दफ़्तर के उद्घाटन के मौक़े पर देश के सामने रख रहे थे. अब तो जस्टिस सरेआम मोदी की पक्षधरता की बात बोलने लगे हैं.

ऐसे में देश की मौजूदा नेहरुबियन संविधान, जिसकी मध्यमार्गी नीति मोदी के दक्षिणपंथी संघी मनुस्मृति के द्वारा अपदस्थ कर दिये जाने का स्पष्ट ख़तरा पैदा हो गया है. ऐसे में मध्यमार्गी नेहरुबियन संविधान को बचाने के लिए देश भर में बेचैनी देखी जा रही है. इसी कड़ी में आज शाम को सुप्रीम कोर्ट के 13 वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव के खिलाफ भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को पत्र लिखा है. पत्र में मुख्य न्यायाधीश से अनुरोध किया गया है कि वे उक्त भाषण का स्वतः संज्ञान लें और मामले की गंभीरता को देखते हुए सीबीआई को निर्देश दें कि वह न्यायमूर्ति यादव के खिलाफ के. वीरस्वामी बनाम यूओआई (1991) में निर्धारित कानून के अनुसार एफआईआर दर्ज करे.

लाईव लॉ’ नामक वेबसाइट बताता है कि ‘भारत के मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में एक सहभागी अधिकारी हैं (अनुच्छेद 124(2) और 217(1). यहां तक ​​कि एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के स्थानांतरण के लिए भी मुख्य न्यायाधीश से भारत के राष्ट्रपति द्वारा परामर्श किया जाना चाहिए (अनुच्छेद 222). यदि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की आयु के बारे में कोई प्रश्न उठता है, तो राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद इस प्रश्न का निर्णय लिया जाएगा (अनुच्छेद 217(3)). दूसरे, न्यायपालिका के प्रमुख होने के नाते मुख्य न्यायाधीश मुख्य रूप से न्यायपालिका की अखंडता और निष्पक्षता से चिंतित होते हैं.

इसलिए यह आवश्यक है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश को किसी न्यायाधीश के खिलाफ़ विचाराधीन किसी भी आपराधिक मामले से बाहर न रखा जाए. वह मामले में अपनी राय देने के लिए बेहतर स्थिति में होंगे और भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श सरकार को सही निष्कर्ष पर पहुंचने में बहुत सहायक होगा. इसलिए हम निर्देश देते हैं कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के खिलाफ़ धारा 154, सीआरपीसी के तहत कोई भी आपराधिक मामला तब तक दर्ज नहीं किया जाएगा जब तक कि मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श न किया जाए.

सरकार को मुख्य न्यायाधीश द्वारा व्यक्त की गई राय को उचित सम्मान देना चाहिए. यदि मुख्य न्यायाधीश की राय है कि यह अधिनियम के तहत कार्यवाही के लिए उपयुक्त मामला नहीं है, तो मामला पंजीकृत नहीं किया जाएगा. यदि भारत के मुख्य न्यायाधीश स्वयं वह व्यक्ति हैं जिनके खिलाफ आपराधिक कदाचार के आरोप प्राप्त हुए हैं, तो सरकार सर्वोच्च न्यायालय के किसी अन्य न्यायाधीश या न्यायाधीशों से परामर्श करेगी.

अभियोजन के लिए मंजूरी देने के प्रश्न की जांच करने के चरण में भी इसी तरह का परामर्श किया जाएगा और यह आवश्यक और उचित होगा कि मंजूरी का प्रश्न भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से निर्देशित और उसके अनुसार हो. तदनुसार निर्देश सरकार को दिए जाएंगे. हमारी राय में, ये निर्देश सभी संबंधित लोगों की इस आशंका को दूर करेंगे कि कार्यपालिका द्वारा इस अधिनियम का दुरुपयोग संपार्श्विक उद्देश्य के लिए किया जा सकता है.’ (देखें: पैरा 60)

पत्र की शुरुआत में कहा गया है कि इसमें उठाया गया मुद्दा ‘न्यायिक निष्पक्षता’ और ‘संवैधानिक मूल्यों’ के केंद्र में है, जिन्हें बनाए रखने की शपथ सभी न्यायाधीशों ने ली है.

पत्र में कहा गया है – ‘यह सार्वजनिक रूप से संज्ञान में लाया गया है और व्यापक रूप से रिपोर्ट किया गया है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक वर्तमान न्यायाधीश, न्यायमूर्ति शेखर यादव ने 8 दिसंबर, 2024 को एक सभा को संबोधित किया. उक्त सभा का आयोजन विश्व हिंदू परिषद (VHP) के कानूनी प्रकोष्ठ द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पुस्तकालय परिसर में किया गया था.

‘उनके भाषण की सामग्री, जिसे रिकॉर्ड किया गया और व्यापक रूप से प्रसारित किया गया, को घृणास्पद भाषण के रूप में चित्रित किया गया है, जिसमें ऐसी टिप्पणियां शामिल हैं जो असंवैधानिक और एक न्यायाधीश द्वारा ली गई पद की शपथ के विपरीत प्रतीत होती हैं.’

पत्र में बताया गया है कि न्यायमूर्ति यादव को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में नियुक्त करने के प्रस्ताव का भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कड़ा विरोध किया था, जिन्होंने परामर्शदाता न्यायाधीश के रूप में तत्कालीन भारत के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा था, जिसमें यादव के अपर्याप्त कार्य अनुभव और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वैचारिक अभिभावक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के साथ उनके संबंधों का हवाला दिया गया था.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तत्कालीन भाजपा के एक राज्यसभा सांसद से उनकी निकटता थी, जो वर्तमान में केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री हैं. न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यादव के बारे में अपने नोट को इस सख्त सिफारिश के साथ समाप्त किया था कि ‘वह उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए उपयुक्त नहीं हैं.’

पत्र में कहा गया है – ‘अपने संबोधन के दौरान, न्यायमूर्ति यादव ने ‘हम’ और ‘आप’ के बीच एक स्पष्ट और भड़काऊ अंतर खींचा, ‘हमारी गीता’ और ‘आपकी कुरान’ की बात की. यह स्पष्ट रूप से विभाजनकारी बयानबाजी न्यायिक निष्पक्षता की अवहेलना करती है, जिसमें न्यायाधीश ने खुले तौर पर खुद को एक धार्मिक समुदाय के साथ जोड़ लिया, जबकि दूसरे को बेहद अपमानजनक रोशनी में चित्रित किया. मुसलमानों के एक वर्ग को संदर्भित करने के लिए उनके द्वारा अपमानजनक ‘कठमुल्ला’ का उपयोग बेहद परेशान करने वाला है.’

धार्मिक सुधार के संदर्भ में न्यायमूर्ति यादव ने दबाव और प्रभुत्व का लहजा अपनाया. पत्र में कहा गया है कि उन्होंने स्वीकार किया कि हिंदुओं ने सती और अस्पृश्यता जैसी पारंपरिक प्रथाओं में सुधार किया है, लेकिन उन्होंने मुसलमानों से बहुविवाह और तीन तलाक जैसी प्रथाओं को त्यागने की मांग की.

वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने कहा है कि जाहिर तौर पर जस्टिस यादव समान नागरिक संहिता पर टिप्पणी कर रहे थे, लेकिन पूरा भाषण सार्वजनिक मंच पर नफरत फैलाने के लिए एक आवरण की तरह लग रहा था. भाषण की सामग्री में कुछ भी अकादमिक, कानूनी या न्यायिक नहीं था.

पत्र में कहा गया है – ‘इसके अलावा, न्यायमूर्ति यादव ने शासन के बहुमतवादी दृष्टिकोण पर जोर देते हुए कहा कि भारत को ‘बहुसंख्यक’ द्वारा चलाया जाता है, जिसका शासन चलता है. यह सभी के लिए समानता और न्याय के संवैधानिक वादे का अपमान है, चाहे वह किसी भी धर्म का हो और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का भी.’

पत्र में कहा गया है कि न्यायमूर्ति यादव ने विभाजनकारी कल्पना का हवाला देते हुए ‘राम लला’ की ‘मुक्ति’ और अयोध्या में मंदिर के निर्माण की बात की, जबकि भारत के ‘बांग्लादेश’ या ‘तालिबान’ में बदल जाने की निराधार आशंकाओं का हवाला दिया.

न्यायमूर्ति यादव ने मुसलमानों में उदारता (‘उदार’) और सहिष्णुता (‘सहिष्णु’) की कमी बताई, और आरोप लगाया कि ‘उनके’ बच्चों को हिंसा की प्रवृत्ति (‘हिंसा की प्रवृत्ति’) के साथ पाला जाता है. ऐसी टिप्पणियां न केवल तथ्यात्मक रूप से निराधार हैं, बल्कि ख़तरनाक रूप से भड़काऊ भी हैं. उन्होंने आगे कहा कि हिंदू धर्म में सहिष्णुता के बीज हैं, जो इस्लाम में नहीं हैं, जैसा कि दावा किया गया है.

‘हमें सिखाया जाता है कि…एक चींटी को भी नहीं मारना चाहिए. शायद इसीलिए हम सहिष्णु और उदार हैं. हमें किसी का कष्ट देखकर कष्ट होता है… किसी को कष्ट देखकर पीड़ा होती है… पर आपके अंदर नहीं होती है… क्यों ? क्योंकि जब हमारे समुदाय में कोई बच्चा पैदा होता है, तो उसे बचपन से ही भगवान, वेद और मंत्रों के बारे में सिखाया जाता है… उन्हें अहिंसा के बारे में बताया जाता है… लेकिन आप के यहां तो बचपन से बच्चे सामने रख कर के वध किया जात है जानवरों का (आपके समुदाय में बच्चों की उपस्थिति में जानवरों का वध किया जाता है)… तो आप कैसी अपेक्षाएं करते हैं कि साहसी होगा वो…उदार होगा वो (आप उस व्यक्ति से सहिष्णु, दयालु बनने की उम्मीद कैसे करते हैं) ?’

न्यायमूर्ति यादव अपनी टिप्पणी पर कायम

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इंडियन एक्सप्रेस ने 17 जनवरी, 2024 को बताया कि न्यायमूर्ति यादव अपनी टिप्पणियों पर कायम हैं और उन्हें उचित ठहराते हैं. न्यायमूर्ति यादव की टिप्पणियों से सभी भारतीयों के लिए समानता और बंधुत्व के संवैधानिक मूल्यों के संरक्षक के रूप में न्यायालय की भूमिका के बारे में गंभीर चिंताएं पैदा होती हैं, चाहे वे किसी भी समुदाय या पंथ के हों. पत्र में कहा गया है कि न्यायमूर्ति यादव के भाषण में भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 196 और 302 के तहत वर्णित कई अपराधों की छाप है.

यह भाषण न केवल मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाता है, जैसा कि संहिता की धारा 302 के तहत परिभाषित किया गया है, बल्कि इसमें धर्म के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने की भावना भी निहित है. माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अमीश देवगन बनाम भारत संघ एवं अन्य (2021) के मामले में पैरा 72 में ऊपर वर्णित अपराधों को ‘घृणास्पद भाषण’ के रूप में वर्णित किया है, जो पंथ संबंध या लिंग के लिए अपमानजनक माने जाने वाले शब्द हैं.

पत्र में कहा गया है – ‘न्यायमूर्ति यादव द्वारा दिया गया भाषण इस न्यायालय के निर्णय में विषय-वस्तु आधारित तत्व के पैरामीटर के अंतर्गत आता है. यह विभाजनकारी है और इसमें भारत की एकता और अखंडता को प्रभावित करने की प्रवृत्ति है. (उक्त निर्णय का पैरा 71 भी देखें). यह स्पष्ट है कि न्यायमूर्ति यादव की इस कार्यक्रम में भागीदारी और उनके भड़काऊ बयान संविधान की प्रस्तावना के साथ अनुच्छेद 14, 21, 25 और 26 का गंभीर उल्लंघन दर्शाते हैं. ये कार्य भेदभावपूर्ण हैं और धर्मनिरपेक्षता और कानून के समक्ष समानता के मूल सिद्धांतों के सीधे विरोधाभास में हैं, जो हमारे संविधान का आधार हैं.’

यह उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में उनके पद की शपथ और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक मूल्यों के पुनर्कथन का भी उल्लंघन है, जिसे 7 मई, 1997 को पूर्ण न्यायालय द्वारा अपनाया गया था और जिसमें न्यायाधीश की निष्पक्षता की पुनः पुष्टि की बात कही गई है. प्रासंगिक भाग यहां पुनः प्रस्तुत है –

‘एक न्यायाधीश को हर समय इस बात के प्रति सचेत रहना चाहिए कि वह जनता की निगाह में है और उसके द्वारा ऐसा कोई कार्य या चूक नहीं होनी चाहिए जो उसके उच्च पद और उस सार्वजनिक सम्मान के प्रतिकूल हो, जिस पर वह आसीन है.’

हाई कोर्ट के एक मौजूदा जज द्वारा सार्वजनिक कार्यक्रम में इस तरह के सांप्रदायिक रूप से भड़काऊ बयान देने से न केवल धार्मिक सद्भाव को नुकसान पहुंचता है, बल्कि न्यायपालिका की ईमानदारी और निष्पक्षता में लोगों का भरोसा भी डगमगाता है. इस अदालत को ऐसे ही हालात से दो-चार होना पड़ा है, जब सुप्रीम कोर्ट के एक मौजूदा जज पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा था और जांच चल रही थी.

जब सर्वोच्च न्यायालय के एक कार्यरत न्यायाधीश के विरुद्ध भ्रष्टाचार के व्यापक आरोपों की खबरें आईं, तो भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी और दिवंगत न्यायमूर्ति सब्यसाची मुखर्जी ने खुली अदालत में बैठकर बार के समक्ष निम्नलिखित बयान दिया –

‘रि: रामास्वामी, जे.

मुख्य न्यायाधीश का बार को दिया गया वक्तव्य,

मई 1990 की शुरुआत में, इस न्यायालय के कुछ विद्वान अधिवक्ताओं ने मेरा ध्यान कुछ समाचार पत्रों की ओर आकर्षित किया, जिसमें पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री वी. रामास्वामी, जो अब इस न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश हैं, के आवास की साज-सज्जा में हुए व्यय की जांच करने वाली ऑडिट रिपोर्ट के बारे में बताया गया था. विद्वान वकीलों ने मुझसे स्वप्रेरणा से कार्रवाई करने का अनुरोध किया. इस मामले का उल्लेख एक से अधिक बार किया गया. 1-5-1990 को, मुझे एक पत्रिका के संपादक से एक पत्र मिला था, जिसमें पत्रिका के अप्रैल 1990 के अंक की एक प्रति संलग्न थी.

वकीलों ने कहा कि इसमें चंडीगढ़ प्रशासन की ऑडिट रिपोर्ट का पूरा पाठ है. इसके बाद, विद्वान अटॉर्नी जनरल, सर सोली सोराबजी, पूर्व अटॉर्नी जनरल, श्री परासरन, श्री वेणुगोपाल, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष, और डॉ वाईएस चितले, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष ने भी मुझसे मुलाकात की और इन रिपोर्टों की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया और प्रकाशनों की सामग्री पर चिंता व्यक्त की.

केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री ने मुझसे मुलाकात की और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्यरत न्यायमूर्ति रामास्वामी द्वारा कथित अपव्यय तथा रिपोर्ट की विषय-वस्तु के बारे में संसद सदस्यों की चिंता व्यक्त की. उनकी चिंता को साझा करते हुए मैंने विधि मंत्री को बताया था तथा उसके बाद से विद्वान अटॉर्नी जनरल और बार के अन्य सदस्यों को आश्वासन दिया है कि मैं इस मामले की जांच करूंगा.

कानूनी और संवैधानिक रूप से भारत के मुख्य न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश के आचरण की जांच करने का कोई अधिकार या अधिकार नहीं है. हालांकि, न्यायिक परिवार के मुखिया के रूप में भारत के मुख्य न्यायाधीश का, मेरा मानना ​​है, न्यायिक मर्यादा बनाए रखना और न्यायिक प्रक्रिया के कामकाज में जनता का विश्वास हासिल करने का प्रयास करना उनका कर्तव्य और जिम्मेदारी है.

यह एक अभूतपूर्व और शर्मनाक स्थिति थी. इसमें सावधानी बरतने और एक हितकारी परंपरा की स्थापना की आवश्यकता थी. मैंने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से आवश्यक कागजात प्राप्त किए हैं. तीन प्रकार की रिपोर्टें हैं (i) उच्च न्यायालय के आंतरिक लेखा परीक्षा प्रकोष्ठ द्वारा प्रस्तुत रिपोर्टें, (ii) पंजाब और हरियाणा दोनों के जिला और सत्र न्यायाधीशों (सतर्कता) द्वारा प्रस्तुत तथ्य-खोजी रिपोर्टें; और (iii) महालेखाकार कार्यालय के अधिकारी द्वारा उच्च न्यायालय को जवाब के लिए प्रस्तुत रिपोर्टें और लेखा परीक्षा पैरा. अंतिम रूप से उल्लिखित रिपोर्ट और लेखा परीक्षा पैरा उन लेन-देन के संबंध में स्पष्टीकरण और औचित्य मांगते हैं जो प्रथम दृष्टया अनियमित प्रतीत होते हैं.

मैंने इस पर गौर किया और फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कथित अनियमितताओं को विस्तार से दोहराना आवश्यक नहीं है… मैं समझता हूं कि उच्च न्यायालय ने कुछ लेखापरीक्षा आपत्तियों के संबंध में भाई रामास्वामी से सीधे स्पष्टीकरण मांगा था और उन्होंने इस संबंध में उच्च न्यायालय के अधिकारियों को पत्र लिखा है. जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, कथित अनियमितताओं पर उच्च न्यायालय के कुछ अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही अभी भी लंबित है. जिन कुछ अनियमितताओं पर मैंने विचार किया है और निलंबित अधिकारियों के खिलाफ विभागीय जांच की प्रवृत्ति के संबंध में, मेरी राय है कि अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले लेखापरीक्षा आपत्तियों और उच्च न्यायालय द्वारा भाई रामास्वामी को प्रस्तुत विभिन्न प्रश्नों के उत्तरों की गहन जांच का इंतजार करना उचित होगा.

सर्वोच्च न्यायालय को कानून के शासन को कायम रखना चाहिए. इसलिए यह आवश्यक है कि जो लोग कानून के शासन को कायम रखते हैं उन्हें कानून के अनुसार जीना चाहिए और इसलिए न्यायाधीशों को कानून के अनुसार जीने के लिए बाध्य होना चाहिए. इस मामले में लागू कानून, प्रक्रिया और मानदंड यह निर्देश देते हैं कि न्यायाधीशों के लिए न्यायालय द्वारा किए गए खर्च नियमों, मानदंडों और व्यवहार के अनुसार होने चाहिए. कोई भी व्यक्ति कानून या नियमों से ऊपर नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश और मुख्य न्यायाधीश सभी इस देश के किसी भी अन्य नागरिक की तरह कानून और प्रक्रिया के शासन के अधीन हैं और उन्हें निर्धारित मानदंडों और विनियमन का पालन करना चाहिए, जहां तक ​​ये उन पर लागू होते हैं. मैंने हमेशा सोचा कि यह स्पष्ट था और इसे दोहराने की आवश्यकता नहीं थी इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि न्यायाधीशों का कोई ऐसा आचरण न हो, जो लोगों के इस विश्वास को प्रभावित करे कि न्यायाधीश कानून के अनुसार नहीं रहते हैं. न्यायाधीश ऐसे विवादों में उलझने का जोखिम नहीं उठा सकते, जिनमें यह प्रश्न निर्धारित करना हो कि क्या न्यायाधीशों ने न्यायाधीश या मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य करते हुए जानबूझकर या पूरी तरह लापरवाही या लापरवाही से कानून को तोड़ने का प्रयास किया है…

ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के आचरण पर किसी भी जांच में शामिल होना उन परिस्थितियों और पृष्ठभूमि में शर्मनाक है, जिनमें इस मामले में ये प्रश्न उठे हैं. जो व्यक्ति कानून के शासन को बनाए रखने का प्रयास करता है, उसके लिए इस तरह के विवाद में शामिल होना शर्मनाक है. लेकिन इस पहलू पर कोई अंतिम निर्णय तब तक नहीं लिया जा सकता जब तक कि जांच और पूछताछ पूरी नहीं हो जाती. मामले और इसमें शामिल बिंदुओं पर गौर करने के बाद मुझे इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि जो लोग कानून के शासन को बनाए रखने की आकांक्षा रखते हैं, उन्हें कानून के अनुसार जीने का प्रयास करना चाहिए और वे अनिवार्य रूप से खुद को कानून द्वारा नष्ट होने के खतरे में डालते हैं. मैं इस बात से अवगत हूं और गहराई से सचेत हूं कि कुछ परिस्थितियों में कोई व्यक्ति किसी खास स्थिति का शिकार हो सकता है.

ऐसी परिस्थितियों में मुझे भाई रामास्वामी को यह सलाह देनी पड़ी कि जब तक जांच जारी रहेगी और इस मामले में उनका नाम साफ नहीं हो जाता, तब तक वे न्यायिक कार्य न करें. मैंने भाई रामास्वामी को 18-7-1990 को पत्र लिखकर अपनी उपरोक्त सलाह दी. मैंने उन्हें यह सलाह देते हुए अपनी पीड़ा भी बताई है और उनसे अनुरोध किया है कि वे उपरोक्त आचरण पर जांच पूरी होने तक कृपया छुट्टी पर रहें.

18-7-1990 को मेरा पत्र प्राप्त होने के बाद, भाई रामास्वामी ने 23-7-1990 से प्रभावी होने के लिए पहली बार छह सप्ताह की छुट्टी के लिए आवेदन किया. मैंने कार्यालय को छुट्टी के लिए उनके आवेदन पर कार्रवाई करने का निर्देश दिया है. चूंकि मैंने विद्वान अटॉर्नी जनरल, कानून मंत्री, बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और अन्य लोगों को आश्वासन दिया था कि मैं इस पर गौर करूंगा, इसलिए मैंने सोचा कि मुझे इस पर गौर करने के परिणाम से आपको अवगत कराना चाहिए. (जोर दिया गया).

स्वप्रेरणा से कार्रवाई करें

न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाले मामले की गंभीरता को देखते हुए, तथा इस तथ्य को देखते हुए कि जांच निष्पक्ष और राज्य से स्वतंत्र होनी चाहिए, उक्त न्यायाधीश द्वारा किए गए संज्ञेय अपराधों का स्वतः संज्ञान लिया जाए तथा न्यायालय के निम्नलिखित निर्णय के अनुसार न्यायमूर्ति यादव के विरुद्ध मुकदमा चलाने के लिए एफआईआर दर्ज करने हेतु सीबीआई को संदर्भ दिया जाए.

13 अधिवक्ताओं में वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह, एस्पी चिनॉय, नवरोज़ सीरवई, आनंद ग्रोवर, चंदर उदय सिंह, जयदीप गुप्ता, मोहन वी. कटारकी, शोएब आलम, आर. वैगई, मिहिर देसाई, जयंत भूषण, गायत्री सिंह और अवि सिंह शामिल हैं. यह पत्र जस्टिस बीआर गवई, सूर्यकांत, हृषिकेश रॉय और अभय एस ओका को भी भेजा गया है. ये सभी सीजेआई की अध्यक्षता वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के सदस्य हैं.

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दुनिया की सबसे भ्रष्ट मीडिया के दवाब में है भारत की न्यायपालिका, तो फिर आप किस पायदान पर खड़े हैं जनाब ?
सरकार से सांठगांठ कर न्यायपालिका का एक हिस्सा संविधान बदलने का माहौल बना रहा है
गोगोई ने पद स्वीकार कर अवाम के मन में न्यायपालिका के प्रति एक तरह का अविश्वास पैदा कर दिया है
न्यायपालिका की अंतरात्मा ???

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ROHIT SHARMA

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