चीनी लेखक लू शुन की तरह मैं भी मानता हूं कि हमें उन्हीं परम्पराओं को आगे बढाना चाहिए जो हमारे देश को किसी न किसी रूप में मजबूत करे. जो संस्कृति तेजी से बदलते हुये समय में हमें बचा न सके, उसे बचाने की कोई आवश्यकता नहीं है.
समाचार पत्रों द्वारा महाकुम्भ की जो जानकारी मुझे मिली है, उसके आधार पर यही निष्कर्ष निकाल पाया हूं कि भारत के लोग त्रिवेणी में स्नान कर अपने पाप का प्रक्षालन करने के उद्देश्य से प्रयागराज का तीर्थाटन कर रहे है. गोस्वामीजी के समय में भी कुम्भ मेला लगता था, लेकिन उनके लिये कुम्भ का अर्थ था ‘जग जंगम तीरथराजू पर संत-समाज का समागम’. वे लिखते हैं –
‘माघ मकर गति रवि जब होई।
तीरथ पतिहि आव सब कोहि।।
एहि प्रकार भरि माघ नहाई।
पुनि सब निज निज आश्रम जाहि॥’
तुलसीदास के जमाने में भी श्रद्धालु स्त्री-पुरुष प्रयागराज में माघ महीने में संगम-स्नान करते थे, लेकिन उन्होंने यह नहीं लिखा है कि तीर्थराज प्रयाग के ‘माघ नहाई’ से पाप धुलता है, पुण्यलाभ होता है और श्रद्धालु की मनोकामना पूरी होती है. स्नान द्वारा पुण्य लाभ के अंधविश्वास पर श्रमण सम्प्रदाय ने कठोरता से कुठाराघात किया है.
बौद्ध चिंतक धर्मकीर्ति ने ‘प्रमाणवार्तिक’ के पहले अध्याय में लिखा हैं –
‘वेद प्रमाण्यं कस्यचित् कर्तृवादः स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेपः। संतापरंभः पापहानाम चेति ध्वस्तप्रज्ञानां पञ्च लिंगानि जाड्ये।’
(वेद को प्रमाण मानना, किसी ईश्वर को कर्ता कहना, स्नान को धर्म से जोडकर देखना, जाति का अभिमान होना, पाप नष्ट करने के लिए शरीर को संताप देना, ये पांच जड़बुद्धि के लक्षण हैं.)
मध्यकाल के क्रांतिकारी कवि कबीरदास किसी नदी के घाट पर शरीर को स्वच्छ रखने के उद्देश्य से स्नान करती महिला को ‘कुलबोरनी’ नहीं कहते. वे उन महिलाओं की भर्त्सना करते हैं जो समझती हैं कि पंडितों द्वारा निर्दिष्ट ‘पवित्र’ तिथि को गंगा-स्नान करने पर जीवनभर का पाप मिट जाता है.
‘गंगा नहाइन यमुना नहाइन,
नौ मन मैलहि लिहिन चढ़ाय।
पांच पचीस के धक्का खाइन,
घरहु की पूंजी आई गमाय।’
वे यह भी कहते हैं–
‘नहाए गंगा गोमती, रहे बैल के बैल.’
कुम्भ प्रथा का मूल उद्देश्य स्नान-ध्यान का कर्मकांड नहीं था. कुम्भ उस आध्यात्मिक उत्सव को कहा जाता था जिसमें श्रेष्ठ मनीषा और साधक गण एक स्थान पर एकत्र होकर आपस में संवाद करते थे, शास्त्रार्थ करते थे और उनके हितोपदेश, तपः शक्ति और संचित आध्यात्मिक ऐश्वर्य द्वारा पृथ्वी अनुगृहीत होती थी.
कुः पृथिवी उभ्यतेऽनुगृह्यते उत्तमोत्तममहात्मसङ्गमैः तदीयहितोपदेशैः यस्मिन् सः कुम्भः
हम प्राचीन ऋषियों के संदेश को भूल गये हैं, प्राचीन मिथकों को समझने को हमारी क्षमता क्षीण हो गयी है. सत्यद्रष्टा ॠषि-मुनि भारतवासियों को निरंतर आह्वान करते रहे,
‘जंगम तीर्थ में ब्रह्मज्ञ महायोगियों से साधना और उपदेश ग्रहण करो, बाद में मानस-तीर्थ में मानस अवगाहन करो. मन को शुद्ध, शान्त, अन्तर्मुखी करो. तुम तो अमृत के संतान हो- तुम जीव नहीं शिव हो !तुम आत्मा हो, तुम ब्रह्म हो, तुम स्वयं ही अमृत कुंभ हो-इसका अनुभव स्वयं करो.’
तीर्थराज में स्नान मात्र करने से ‘मृत्योर्मा अमृत गमय’ की यात्रा पूरी नहीं होती. अमृतत्व का अनुष्ठान सम्पन्न नहीं होता. अमृतत्व की साधना का अर्थ है – धर्म के दसों अंगों का पूर्ण निष्ठा के साथ पालन. हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार धर्म के 10 अंग हैं, धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शुचिता, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य एवं अक्रोध –
“धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।’
अमृतत्व की साधना गांधीजी ने की थी. उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है:
‘सन् 1915 में हरिद्वार में कुंभ का मेला था. उसमें जाने की मेरी कोई इच्छा न थी; लेकिन मुझे महात्मा मुंशीरामजी के दर्शनों के लिए तो जाना ही था. कुंभ के अवसर पर गोखलेके भारत-सेवक-समाजने एक बडा दल भेजा था. तय हुआ था कि उसको मदद के लिए में अपना दल भी ले जाऊं.
‘शांतिनिकेतन वाली टुकडी को लेकर मगनलाल गांधी मुझसे पहले हरिद्वार पहुंच गये थे. रंगून से लौटकर मैं भी उनसे जा मिला.
‘उन दिनों मुझमें घूमने-फिरनेकी शक्ति काफी थी. इसलिए मैं काफी घूम-फिर सका था. इस भ्रमण में मैंने लोगों की धर्म-भावना की अपेक्षा उनके पागलपन, उनकी चंचलता, उनके पाखण्ड और उनकी अव्यवस्था के ही अधिक दर्शन किये. साधुओं का तो जमघट ही इकट्ठा हुआ था. ऐसा प्रतीत हुआ मानो वे सिर्फ मालपूए और खीर खानेके लिए ही जन्मे हों. यहाँ मैंने पाँच पैरोंवाली गाय देखी. इससे मुझे आश्चर्य हुआ, किन्तु अनुभवी लोगोंने मेरे अज्ञान को तुरन्त दूर कर दिया.
‘कुंभ का दिन आया. मेरे लिए वह धन्य घड़ी थी. मैं यात्रा की भावना से हरिद्वार नहीं गया था. पवित्रता की खोज में तीर्थाटन का मोह मुझे कभी न रहा; किन्तु 17 लाख लोग पाखण्डी नहीं हो सकते. इनमें असंख्य लोग पुण्य कमाने के लिए, शुद्धि प्राप्त करनेके लिए आये थे, इस बारे में मुझे कोई शंका न थी. यह कहना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है कि इस प्रकार की श्रद्धा आत्माको किस हद तक ऊपर उठाती होगी !
’मैं बिछौने पर पड़ा-पड़ा विचार-सागर में डूब गया. चारों ओर फैले हुए पाखण्ड के बीच अनेक पवित्र आत्माएं भी हैं. वे ईश्वर के दरबार में दण्डनीय नहीं मानी जायेंगी. यदि ऐसे अवसर पर हरिद्वार में आना ही पाप हो, तो मुझे प्रकट रूप से उसका विरोध करके कुम्भ के दिन तो हरिद्वार का त्याग ही करना चाहिये.
‘यदि आने में और कुंभ के दिन रहने में पाप न हो, तो मुझे कोई न कोई कठोर व्रत लेकर प्रचलित पाप का प्रायश्चित्त करना चाहिये, आत्मशुद्धि करनी चाहिये. मेरा जीवन व्रतों द्वारा बना है. इसलिए मैंने कोई कठिन व्रत लेने का निश्चय किया. मुझे उस अनावश्यक परिश्रम की याद आई, जो कलकत्ते और रंगून में मेरे कारण मेज़बानों को उठाना पड़ा था. इसलिए मैंने आहार की वस्तुओं की मर्यादा बांधने और अंधेरे से पहले भोजन कर लेने का व्रत लेने का प्रण लिया. मैं चौबीस घण्टों में अधिक से अधिक पांच चीजें खाने लगा और रात्रि भोजन का तो पूर्णतः परित्याग ही कर दिया.
‘इन दो व्रतों ने मेरी काफी परीक्षा ली, लेकिन इनके कारण मेरा जीवन बढ़ा है और मैं अनेक बार बीमारियों से बच निकला हूं.’
अगर हमारे ॠषि-मुनि प्रयागराज में एकत्र होकर अपने नैतिक और आध्यात्मिक बल द्वारा ज्ञान-विज्ञान के नये क्षितिज का उद्घाटन करते है, राष्ट्र की जीवनी शक्ति देते हैं, हमारे समाज में नव चेतना का संचार करते हैं और भारतवासियों को शुद्धि, सद्बुद्धि और समष्टि के हित के मार्ग पर अग्रसर होने के लिये प्रेरित करते हैं, तो हमें कुंभ की परम्परा को बचाना चाहिए.
अगर कुम्भ के कारण गंदगी और बीमारी फैलती है, साम्प्रदायिक उन्माद को ताकत मिलती है, ढोंग और पाखंड को बढावा मिलता है, पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है, धर्म की ग्लानि होती है, भ्रष्ट सत्ताधीशों के राज्येश्वर्य का पथ प्रशस्त होता है, तो इस परम्परा को संजोने से देश का कल्याण नहीं हो सकता.
- प्रो. पंकज मोहन
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