हेमन्त कुमार झा
पिछले साल पटना के एक युवक का आइएएस में चयन हुआ तो पत्रकार लोग उसका इंटरव्यू लेने पहुंचे. एक ने पूछा कि आप मोबाइल पर क्या क्या देखते हैं ? तो जवाब मिला – ‘लगभग सब कुछ क्योंकि हर चीज आपको कुछ न कुछ सिखाती है.’ अचंभित पत्रकार ने पूछा – ‘क्या रील्स भी देखते हैं ?’ युवक ने जवाब दिया – ‘रील्स भी देखता हूं.’ पत्रकार का अगला प्रश्न था – ‘क्या सीखते हैं रील्स देख कर ?’ जवाब दिलचस्प था – ‘यही कि जीवन में और चाहे जो सब करूं, कभी यह करम मैं नहीं करूंगा.’
चूंकि यह बातचीत के दौरान हल्का फुल्का प्रसंग था इसलिए अफसर बने उस युवक के इस जवाब को हल्के फुल्के ढंग से ही लेने की जरूरत है क्योंकि कुछ रील्स वाकई अच्छे, मनोरंजक और सीख देने वाले होते हैं. लेकिन, लगभग 95 प्रतिशत रील्स फूहड़, फालतू और बनाने वाले के व्यक्तित्व के ओछापन को सामने लाने वाले होते हैं. तकनीक के साथ यह घटिया और बेहद फूहड़ उपक्रम है.
आज के अखबार में एक रिपोर्ट है कि बिहार जैसे पिछड़े राज्य में भी 60 प्रतिशत किशोर उम्र के नाबालिग बच्चे प्रतिदिन 4 से 5 घंटे रील्स बनाने पर खर्च करते हैं. यह रिपोर्ट राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने जारी किया है. मोबाइल और सोशल मीडिया का यह निकृष्टतम कुप्रभाव है और अभिभावकों के लिए सचेत होने का वक्त भी है. यह मानसिक रूप से रोगी बना देने वाली आदत साबित हो सकती है.
अचानक से मेरे दिमाग में कौंधा कि मेरे तो दोनों बच्चे अभी नाबालिग ही हैं और उनके पास मोबाइल आदि भी है. बारहवीं में पढ़ने वाले मेरे बेटे के पास सैमसंग का नवीनतम 5G मोबाइल है, सैमसंग का ही टैब है, डेल का लैपटॉप है. घर में जियो का एयर फाइबर का कनेक्शन भी है जो अनवरत असीमित डाटा देता है. 9वीं क्लास में पढ़ने वाली मेरी बेटी के पास बिना सिम का मोबाइल और बिना सिम का ही एक टैब है.
लाड़ दुलार में मैने यह सब दोनों को दे डाले. प्रायः हर पिता की तरह मेरे भीतर भी अपने बच्चों के प्रति विश्वास का भाव रहा कि ये दुरुपयोग नहीं करेंगे. लेकिन, बाल संरक्षण आयोग की आज की रिपोर्ट देख कर मै चौकन्ना हो गया और भारी चिंतित भी. दिमाग में आने लगा कि क्या मेरे बच्चे भी पृष्ठभूमि में कोई गाना बजा कर फूहड़ डांस करते रील्स बनाते होंगे ? क्या वे भी घटिया हास्य वाले रील्स बना कर अपने साथियों को भेजते होंगे या उनसे आ रहे रील्स को रिसीव करते होंगे ?
इक्का दुक्का उदाहरणों को छोड़ जितने भी ऐसे रील्स होते हैं जिनमें पीछे बजते संगीत पर कोई थोपे हुए थोबड़े का पुरुष या स्त्री को मै नाचते कूदते देखता हूं तो मुझे अत्यंत खराब, बेहद ओछा और अत्यधिक फूहड़ सा लगता है सबकुछ. यहां तक कि सुदर्शन स्त्री पुरुषों को भी ऐसा करते देख कर कतई अच्छा नहीं लगता. अपने को बैकवर्ड मान कर मैं इस उलझन से दूर हो जाता हूं. लेकिन, मेरा बेटा या मेरी बेटी ऐसा करे, यह सोच कर ही मन बोझिल और अवसादग्रस्त हो जाता है. हालांकि, अपने को समझाता हूं कि अगर वे रील्स आदि बनाते होते तो अब तक मैं जान चुका होता शायद.
हर अभिभावक को जागरूक होना चाहिए कि उनके बच्चे तकनीक के साथ कैसे प्रयोग कर रहे हैं. बाल संरक्षण आयोग की उक्त रिपोर्ट पढ़ने के बाद मैंने इस मुद्दे पर इंटरनेट पर सर्च करना शुरू किया कि अन्य क्या और कैसी रिपोर्ट्स हैं.
लब्बोलुआब यह मिला कि उच्च शिक्षित और अपनी गरिमा को समझने वाले लोग यह सब नहीं करते और ऐसे लोगों में जो कुछ लोग रील्स बनाते भी हैं तो वे सीख संदेश देने वाले, संस्कारों को उन्नत करने वाले, अभिरुचियों को बेहतर बनाने वाले रील्स होते हैं. उनकी व्यूअरशिप भी अच्छी खासी होती है. कुछ ऐसे प्रोफेशनल्स होते हैं जो दैनिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन से जुड़े प्रसंगों को लेकर हास्यप्रद या गंभीर रील्स बनाते हैं. कितने तो यह बना बना कर अपनी तरह के छोटे मोटे स्टार भी बन जाते हैं.
लेकिन, नाबालिगों का रील्स बनाना ? ऐसे बहुत कम होंगे जो सार्थक कुछ बनाते होंगे, बाकी तो फूहड़ता और संस्कारहीनता की प्रतियोगिता में ही उतरते होंगे. मैं रील्स प्रायः नहीं के बराबर देखता हूं लेकिन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स अक्सर अचानक से आपको उस संसार में पटक कर धकेल देते हैं, जहां आपकी नजरों के सामने से रील्स पर रील्स गुजरते जाते हैं और कुछ मिनटों के बाद अचानक से आप सचेत होते हैं कि यह क्या फालतू टाइम वेस्ट कर रहा हूं.
बिहार जैसे राज्य के नाबालिगों का 60 प्रतिशत ? यह बहुत ज्यादा है और उतना ही चिंताजनक. बच्चों को इस दुष्चक्र से निकालना होगा. अगर उनके बालिग भैया, चाचा, दीदी , फुआ आदि कोई गाना बजा कर बेसुरे, बेतुके तरीके से नाचने मटकने के रील्स बनाने के आदी हैं तो बच्चों को बताना होगा कि देखो, ये कितने ओछे, कितने फूहड़ लग रहे हैं और घटिया मानसिक स्तर के लोग ही उन पर ऑसम, गर्दा डांस, छा गए आदि जैसे कमेंट चस्पां करते हैं.
बच्चे को बताना होगा कि साइंटिस्ट, अफसर, डॉक्टर, प्रोफेसर या जीवन के किसी भी ऊंचे मुकाम तक पहुंचने वाले महत्वाकांक्षी युवा ऐसी फूहड़ हरकतों से नहीं गुजरते. आईएएस, पीसीएस या किसी बड़े एक्जाम को क्वालीफाई कर चुके युवकों या युवतियों के जलवों को दिखा कर दूसरे लोग व्यूज हासिल करते हैं. गरिमापूर्ण पदों पर पहुंचे उन लोगों ने कभी मोबाइल स्क्रीन के सामने नाच मटक की फूहड़ता नहीं की होगी.
बात सिर्फ मटकने की नहीं है. रिपोर्ट्स बताती हैं कि रील्स बनाने की आदत जब एक बार सघन होने लगती है तो व्यूज पाने के लिए उल्टी सीधी हरकतों के नए नए अन्वेषण करने लगते हैं लोग, और फिर तब, सीमाएं टूटने लगती हैं, टूट भी रही हैं.
किशोर वय बच्चों को ऊंचे संस्कार देने और उनके हाथों में तकनीक देने में अधिक विरोधाभास नहीं, बशर्ते कि अभिभावक सतर्क और संपृक्त रहें. वैसे भी, मुझे लगता है कि उन 60 प्रतिशत नाबालिगों में से अधिकतर का सोशल बैकग्राउंड अधिक बेहतर नहीं होगा.
हालांकि, संभव है, ऐसा सोचना मेरा पूर्वाग्रह भी हों. लेकिन, इतना तो मानना ही चाहिए कि ऊंचे संस्कारों का बैकग्राउंड भी कोई चीज है. इस बैकग्राउंड को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने की जिम्मेदारी बहुत महत्वपूर्ण है. खतरों को पहचानने की जरूरत है. उसमें भी, अब तो एआई का जमाना आ रहा है, जो न जाने कितने और कैसे सितम ढाने वाला होगा.
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