Home लघुकथा लोटा और कलश

लोटा और कलश

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उनको देखा तो हैरत में पड़ गया. ऐसा तो पहले कभी न हुआ था.

‘आपके हाथ में यह लोटा कैसा !’ मैं तपाक से बोल उठा.

‘यह लोटा नहीं कलश है…’ उन्होंने मुझे झिड़कते हुए कहा.

‘मुझे तो लोटा लगा…’

‘कलेश न करो, कलश ही है…’

‘दोनों में अंतर क्या है !’

‘वही जो हड्डी और अस्थि में…’ उन्होंने अंतर स्पष्ट किया. हालांकि मैं समझ न सका.

‘काफी चमक रहा है !’

‘अपने आंसुओं से धोया है !’ यह कहते हुए उनकी आंखें नम नहीं हुईं, अलबत्ता छाती कुछ जरूर फूल गई.

‘अगर आप नाराज न हों तो एक बात पूछूं !’ मैंने आग्रह किया.

‘पूछो !’

‘मैं अभी भी नहीं समझ पाया कि लोटे और कलश में क्या अंतर होता है !’

‘अरे भई जरा सी बात आपको समझ में नहीं आती !’ उन्होंने आप कह कर मुझे इज्जत नहीं बख्शी थी, व्यंग्य किया था.

‘तभी तो मैं यहां हूं आप वहां !’ मैंने वस्तुस्थिति का वर्णन किया जो पूर्णतः सत्य था.

‘देखो ! लोटे को एक हाथ से उठाया जाता है, मगर कलश को दोनों हाथों से थामा जाता है !’

‘ओहो, तो यह है आप की उन्नति का रहस्य !’

‘कैसा रहस्य !’ वे चौंके.

‘पहले किसी न किसी का लोटा उठाना चाहिए, फिर उसके बाद आप उस व्यक्ति के कलश को थामने के दावेदार हो जाते हैं !’

‘अब तो लोटा उठाने वाले कहां रहे !’ यह कहकर कहीं खो-से गए.

‘लोटा तो हमारे जमाने में उठाया जाता था, उसकी एक संस्कृति होती थी…एक सभ्यता होती थी…परंपरा होती थी’ कहते-कहते वे चुप हो गए.

‘अच्छा !’ मैं उनके लोटा ज्ञान पर मुग्ध हो चला.

‘हम लोगों में होड़ लगी होती थी कि श्रद्धेय का लोटा कौन उठाएगा ! कुछ लोग तो लोटा उठाने के लिए लोट जाया करते थे !’ वे आंखें बंद करके बोले।

‘अभी भी तो यही चल रहा है !’

‘भक्क ! अब तो नये वाले अरथी तक सही से नहीं उठाते लोटा क्या खाक उठाएंगे !’ वे थोड़ा सख्त हुए. ‘

‘ उठाते-उठाते तभी आप इतने ऊपर उठे हैं !’

‘बात सिर्फ इतनी सी नहीं है !’ वह कलश को देखते हुए बोले.

‘फिर !’

‘जब आप किसी गुणी का लोटा उठाते हैं तो आपको उससे भरपूर संगत करने का अवसर मिलता है, तब आपमें स्वतः ही उसके गुण ट्रांसफर हो जाते हैं !’

‘वाह ! आभार आपका !’

‘किस बात के लिए !’

‘मेरी संकीर्ण सोच को व्यापक बनाने के लिए !’

‘यही नहीं… लो और सुनों ! लोटा उठाने से कितनों की लुटिया डूबने से बच जाती है !’ वे जोश में बोल गए.

‘वाह क्या बात है !’ उनकी यह बात मुझे जमी.

‘ ये सुनो ! एक साहब तो अपने श्रद्धेय का दिन-रात लोटा उठाए रहते थे,..एक दिन तंग आकर उनके श्रद्धेय ने कहा कि भई तुम्हारी श्रद्धा के आगे नतमस्तक हूं, मगर शौचालय में तो लोटा उठाए मत घुस आया करो !’ यह कहकर वे हंसे.

‘गजब का कंम्टीशन था तब तो !’

‘यही नहीं…. लोटा ही नहीं उठाना होता था, उसको चमकाना भी होता था !

‘कैसे चमकाते थे फिर !’

‘राख से मलमल कर साफ करते थे, अगर लोटा पीतल का हो तो सोने का लगने लगता था !’

‘काफी मेहनत करते थे उस जमाने में !’

‘तुम्हें यह मेहनत लगती है, मगर यह हमारे संस्कार थे, जानते हो वह राख कौन-सी होती थी !’ वे आगे बोले.

‘जी आप ही बताएं ! मैं अकिंचन इतना कुछ कहां जान सकता हूं !’ मैंने असमर्थता व्यक्त की.

‘श्रद्धा की राख से !’ उन्होंने अपनी आंखों को मूंदते हुए कहा.

‘तो इस कलश में भी राख है !’ मैंने कलश को देखते हुए कहा !

‘नहीं खाली है !’ वह कलश पर हाथ फेरते हुए बोले.

‘राख कहां गई !’

‘उसको तो नदी में प्रवाहित कर दिया !’

‘अब कलश का क्या करेंगे आप !’

‘इसको अपने ड्रांइगरूम में रखूंगा !’ वह कलश पर हाथ फेरते हुए बोले.

‘और पुराना वाला लोटा !’

‘अब वह कहां रहा !’

‘क्यों क्या हुआ !’

‘उसको स्टोररूम में रख दिया !’

‘ऐसा क्यों !’

‘उसमें छेद हो गया था !’

‘अरे आप को कौन सा पानी पीना या भरना था !’

‘अच्छा नहीं लगता !’ अब वे सच बोले.

‘अरे उसी लोटे की बदौलत तो आप आज यहां तक पहुंचे !’

‘इस बात से मैं कब इंकार कर रहा हूं !’

‘फिर !’

‘लेकिन अब यहां से मुझे आगे जाना है !’

‘जो कलश आपको पहुंचाएगा !’

वे मुस्कुराए मगर कुछ न बोले.

जब वे जा रहे थे तब मुझे लगा जैसे उनके पीछे उनका लोटा उठाने वालों की एक लंबी कतार चल रही हो !

उनके जाने के बाद मैं सोचता हूं, गणतंत्र की झांकी में लोटे और कलश की एक झांकी हर बार जरुर निकलनी चाहिए. लोटा पीतल का और कलश सोने का होना चाहिए. आम आदमी लोटा उठाए है, जो भरा है मगर पानी से नहीं उसके आंसुओं से और नेता कलश थामे है जिसके अंदर राख है, हां मगर दंगों में जली हुई बस्तियों की राख…

  • अनूप मणि त्रिपाठी

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