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‘भारत में खुफिया अध्ययन अभी भी एक वर्जित क्षेत्र’

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'भारत में खुफिया अध्ययन अभी भी एक वर्जित क्षेत्र'
‘भारत में खुफिया अध्ययन अभी भी एक वर्जित क्षेत्र’

राष्ट्रीय सुरक्षा के संपूर्ण तंत्र के इर्द-गिर्द गोपनीयता को देखते हुए भारत में खुफिया अध्ययन अभी भी शिक्षा जगत से जुड़े लोगों के लिए एक वर्जित क्षेत्र बना हुआ है. पिछले दिनों भारत और कनाडा में कूटनीतिक विवाद के बीच सार्वजनिक बहस से छन-छन कर आने वाली बयानबाज़ी और कुतर्क भारतीय इंटेलिजेंस की कार्यप्रणाली को लेकर बहुत कम निष्पक्ष जानकारी छोड़ते हैं. सक्रिय सोशल मीडिया गलत जानकारी और दुष्प्रचार में और बढ़ोतरी करता है, जिससे एक तरफ झुका हुआ नैरेटिव तैयार होता है जो उस विषय पर सार्थक विश्लेषण से दूर होता है.

दुनिया के दूसरे हिस्सों, विशेष रूप से उत्तर अमेरिका और यूरोप में खुफिया अध्ययन एक स्थापित विषय है, जो नए पहलुओं और रिसर्च के क्षेत्रों के साथ लगातार समृद्ध होता रहता है. अतीत में इंटेलिजेंस से जुड़े लोगों यानी खुफिया एजेंसियों के वरिष्ठ अधिकारियों की लेखनी के अलावा इंटेलिजेंस एंड नेशनल सिक्योरिटी, इंटरनेशनल जर्नल ऑफ इंटेलिजेंस एंड काउंटर इंटेलिजेंस और जर्नल ऑफ इंटेलिजेंस हिस्ट्री जैसे विशेष जर्नल वास्तविक रिसर्च के ज़रिए इंटेलिजेंस के बारे में सार्वजनिक जानकारी बढ़ाते हैं.

इंटरनेशनल स्टडीज़ एसोसिएशन (ISA) ने इंटेलिजेंस के सभी पहलुओं पर रिसर्च को बढ़ावा देने के लिए 1985 में इंटेलिजेंस स्टडीज़ सेक्शन (ISS) की स्थापना की थी. भारत में इंटेलिजेंस का अध्ययन तेज़ रफ्तार से बढ़ रहा है लेकिन इंटेलिजेंस को लेकर किताबें और जानकारी दुर्लभ बनी हुई है.

भारतीय इंटेलिजेंस पर रिसर्च की इस कमी के पीछे कई कारण ज़िम्मेदार हैं: अभिलेखीय (आर्काइवल) डेटा एवं अवर्गीकृत आधिकारिक दस्तावेज़ों की कमी, प्राइमरी डेटा तक पहुंच में असमान विशेषाधिकार, इंटेलिजेंस से जुड़े मामलों पर सामग्री प्रकाशित करने की इच्छा रखने वाले पूर्व खुफिया अधिकारियों के सामने आने वाली कानूनी अड़चनें, खुफिया एजेंसियों के आधिकारिक इतिहास की कमी, रिसर्च को बढ़ावा देने में खुफिया समुदाय के भीतर संदेह एवं झिझक और भारतीय शिक्षा जगत में इस क्षेत्र की उपेक्षा.

इसके परिणामस्वरूप भारत में इन मुद्दों पर सार्वजनिक जानकारी के लिए बढ़ती मांग के बावजूद लोगों के पास दिल्ली में रहने वाली सर्वशक्तिमान मंडली, जिनका भारत में खुफिया जानकारी पर बातचीत में दबदबा है, के आगे सिर झुकाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता. फिर भी भारत के पूर्व जासूसों ने खुफिया जानकारी को लेकर बड़ी मात्रा में जानकारी जुटाई है. जासूसों की इस सूची में 18 से अधिक पूर्व अधिकारी शामिल हैं जैसे कि अशोक रैना, के. शंकरन नायर, बी. रमन, वी. बालाचंद्रन, ए. एस. दुलत, विक्रम सूद और अन्य. इंटेलिजेंस पर दूसरे माध्यमों जैसे कि अख़बार के लेखों, राय और किताब के अध्यायों में भी कुछ पूर्व जासूसों के साथ-साथ विद्वानों और पत्रकारों ने काम किया है.

रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (R&AW) की तरफ से आयोजित सालाना आर. एन. काव मेमोरियल लेक्चर सीरीज़ और इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) की तरफ से आयोजित सेंटेनरी एंडोमेंट लेक्चर सीरीज़ के दौरान प्रतिष्ठित हस्तियों के द्वारा दिए गए लेक्चर का संकलन रिसर्च करने वालों और इसमें दिलचस्पी रखने वाले सभी लोगों के लिए काफी मददगार हो सकता है. खुफिया जानकारी पर देसी जानकारी के सृजन, कम-से-कम सार्वजनिक क्षेत्र में, के विषय का मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज़ एंड एनेलिसिस (MP-IDSA) और ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (BPRD) जैसे संस्थानों के द्वारा पर्याप्त रूप से समाधान नहीं किया गया है.

खुफिया अध्ययन की भूमिका

भारत में कुछ गिने-गिने विश्वविद्यालय ही इंटेलिजेंस पर एक समर्पित विषय की पेशकश करते हैं. सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात का अंतरराष्ट्रीय संबंध एवं सुरक्षा अध्ययन का विभाग, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन, ओ. पी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी, सरदार पटेल यूनिवर्सिटी ऑफ पुलिस, सिक्युरिटी एंड क्रिमिनल जस्टिस, नेशनल फॉरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी और राष्ट्रीय रक्षा यूनिवर्सिटी जैसे कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालय ही हैं जो समर्पित विषय की पेशकश करते हैं.

हालांकि जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी जैसे अन्य अग्रणी विश्वविद्यालय में ऐसे विषयों की कमी है जो रक्षा एवं सामरिक अध्ययन, अंतरराष्ट्रीय संबंध और सहयोगी विषयों में रिसर्च के लिए पुराने उत्कृष्ट सस्थान हैं. इसलिए युद्ध, आंतरिक सुरक्षा प्रबंधन, कूटनीति और घरेलू राजनीति में इंटेलिजेंस की भूमिका को लेकर शैक्षिक विश्लेषण भारतीय संदर्भ में काफी हद तक गायब है. जो विश्वविद्यालय सामरिक समुदाय के नज़दीक हैं, उन्हें इंटेलिजेंस स्टडीज़ में रिसर्च के लिए विशेष केंद्रों की स्थापना में पहल करनी चाहिए.

खुफिया जानकारी पर विशेषज्ञता और अनुसंधान को बढ़ावा देने से उच्च शैक्षिक संस्थानों में पढ़ाने वालों की भर्ती में योगदान मिल सकता है जो नया दृष्टिकोण और विषय लाकर मौजूदा जानकारी के आधार को और बढ़ा सकते हैं. इससे ये क्षेत्र अंग्रेज़ी भाषा और मूल्यों से आगे तक फैलेगा.

हालांकि वास्तविक जीवन के अनुभवों और केस स्टडी की अभी भी कमी रहेगी –

  1. हमारे देश में इंटेलिजेंस कैसे काम करता है ? (ये सामान्य समझ से अलग हो सकता है);
  2. वास्तविक जीवन का मिशन कैसे घटित होता है और वो कौन से निर्णायक कारक हैं जो पूरे मिशन को तय करते हैं ? कब से ऐसे मिशन की आवश्यकता महसूस की जा रही है, इसकी योजना कैसे तैयार होती है और कैसे अंजाम दिया जाता है और मिशन को अंजाम देने के बाद वांछित एवं हैरान करने वाले परिणाम क्या हैं;
  3. खुफिया जानकारी और नीति के लेन-देन में अलग-अलग किरदार कैसे व्यवहार करते हैं और प्रतिक्रिया देते हैं ?
  4. इंटेलिजेंस रिपोर्ट यानी इंटेलिजेंस कम्युनिकेशन कैसे लिखा जाता है और नीति निर्माताओं के द्वारा उन्हें किस प्रकार देखा जाता है ?

इस कमी का कारण इस क्षेत्र में प्रोफेशनल अनुभव की कमी है. वैसे तो भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षकों के पास इस अनुभव की कमी है लेकिन उन्हें इसके लिए दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए. ये देश में इंटेलिजेंस शिक्षा प्रणाली की कमी है. इंटेलिजेंस प्रोफशनल से पढ़ाने वाली गतिविधियों की ओर रुख करने वाले, जिन्हें इंटेलिजेंस अध्ययन में प्रोफेशनल से स्कॉलर बनना कहा जाता है, लोग भारतीय संदर्भ में शायद ही मौजूद हैं. ऐसे विद्वानों की मौजूदगी ने पश्चिमी देशों में इंटेलिजेंस अध्ययन को तेज़ गति से बढ़ाया है. इस विशेष बातचीत की मौजूदगी ही है जिसने पश्चिमी देशों में खुफिया अध्ययन को बढ़ावा दिया है.

इस स्थिति में सुधार किया जा सकता है जब सरकारी एजेंसियां वास्तविक जीवन के महत्वपूर्ण अनुभवों और विचारों की चर्चा करने का अधिकार पेशेवर लोगों को देती है. ये कुछ वास्तविक मामलों को सार्वजनिक (डिक्लासिफाई) करके किया जा सकता है ताकि इंटेलिजेंस की क्लासरूम पढ़ाई में मदद मिल सके. भारतीय खुफिया एजेंसियों के आधिकारिक इतिहास को बनाए रखने और उनके अभिलेखों को सार्वजनिक करने की मांग बढ़ रही है. पूर्व इंटेलिजेंस अधिकारियों ने इस मांग का समर्थन किया है.

रिपोर्ट से पता चलता है कि पूर्व वरिष्ठ अधिकारी रामनाथन कुमार अभिलेखों को संकलित करने और R&AW का आधिकारिक इतिहास लिखने में मददगार रहे हैं. इस तरह की परंपरा को जल्दी शुरू करने का एक लाभ ये है कि इंटेलिजेंस अध्ययन में ये शिक्षा जगत और इंटेलिजेंस अधिकारियों- दोनों के हितों का ध्यान रख सकती है और यकीनन दोनों के बीच दूरी को भी कम कर सकती है. CIA के अधिक खुलेपन पर अब सार्वजनिक हो चुकी टास्क फोर्स की रिपोर्ट से कुछ संकेत लिए जा सकते हैं.

भारत में इंटेलिजेंस अध्ययन को संघ बनाकर और सुव्यवस्थित किया जा सकता है जैसे कि इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर इंटेलिजेंस एजुकेशन (IAFIE). साथ ही एसोसिएशन ऑफ फॉर्मर इंटेलिजेंस ऑफिसर्स (AFIO) जैसे संस्थानों को भी विकसित किया जा सकता है जो शिक्षा जगत के विद्वानों और इंटेलिजेंस समुदाय के बीच नज़दीकी तालमेल के लिए एक मंच प्रदान कर सकता है. इस तरह की पहल का एक अच्छा उदाहरण है AFIO का सराहनीय प्रकाशन गाइड टू द स्टडी ऑफ इंटेलिजेंस.

निष्कर्ष

इंटेलिजेंस अध्ययन का विकास केवल इंटेलिजेंस समुदाय, सरकारी संस्थानों, थिंक टैंक और संबंधित विश्वविद्यालय के विभागों के द्वारा पुख्ता प्रयासों के माध्यम से ही संभव हो सकता है. इंटेलिजेंस स्कॉलरशिप कल्पनावादियों और साज़िश के सिद्धांत देने वालों के ख़िलाफ़ सुरक्षा कवच के रूप में काम कर सकता है जिन्होंने अतीत में लोगों की आंखों में धूल झोंका है. भविष्य नैरेटिव को नियंत्रित करने, धारणा को संभालने और एक मनोवैज्ञानिक लाभ हासिल करने की मांग करता है. इंटेलिजेंस अध्ययन इसके लिए एक उत्प्रेरक हो सकता है लेकिन नीति निर्माताओं को प्रदर्शन, निगरानी के साथ-साथ ज़िम्मेदारी पर कड़े सवालों का सामना करने के लिए तैयार होना चाहिए.

  • ध्रुव गढ़वी, सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात में स्कूल ऑफ नेशनल सिक्योरिटी स्टडीज़ के डिपार्टमेंट ऑफ सिक्योरिटी स्टडीज़ में डॉक्टोरल रिसर्चर हैं.
  • मानसी सिंह, सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात में स्कूल ऑफ नेशनल सिक्योरिटी स्टडीज़ के डिपार्टमेंट ऑफ सिक्योरिटी स्टडीज़ में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.

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ROHIT SHARMA

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