मनीष आजाद
1955 में प्रकाशित, ‘उआन रुल्फो’ (Juan Rulfo) के मशहूर उपन्यास ‘पेदरो परामो’ (Pedro Páramo) के बारे में किसी समीक्षक ने लिखा कि इस उपन्यास से गुजरना ठीक वैसे ही है जैसे किसी डिबिया को खोलना और यह पाना कि डिबिया तो खाली है, लेकिन इस डिबिया को जिस जिस ने इससे पहले खोला है, उन सबकी फुसफुसाहट इसमें कैद है.
यह फुसफुसाहट हमारे अतीत, वर्तमान और भविष्य की है. यह फुसफुसाहट प्रेम, घृणा, विश्वासघात और दोस्ती की है. यह फुसफुसाहट मौत और जीवन की है. यह फुसफुसाहट इस दुनिया और ‘उस दुनिया’ की है, यह फुसफुसाहट आशा और निराशा की है. यह फुसफुसाहट झूठ और सच की है. यह फुसफुसाहट कल्पना और यथार्थ की है.
लेकिन चूंकि यह फुसफुसाहट है, इसलिए इनके बीच कोई विभाजक रेखा नहीं है. यथार्थ ही कल्पना है और कल्पना ही यथार्थ. कहीं हम झूठ से सच तक पहुंचते हैं तो कहीं सच हमें झूठ की ओर ले जाता है. मृत लोग जिंदा हैं और बातें करते हैं तो जिंदा आदमी चुपचाप कब्र में पड़ा हुआ है.
उआन रुल्फो के इसी उपन्यास के बाद लैटिन अमेरिका में जादुई यथार्थवाद की नींव पड़ी. गैब्रियल गार्सिया मार्खेज ने साफ़ साफ़ लिखा कि अगर यह उपन्यास नहीं आता तो ‘सौ वर्षों का एकांत’ (One Hundred Years of Solitude) असंभव था.
‘जादुई यथार्थवाद’ के बाद यथार्थ के साथ हमारा रिश्ता और घना, गहरा और बहु-परतीय होने लगा. यथार्थ को चटक धूप के अलावा हम गहन अँधेरे में भी ‘बिना रोशनी’ के पकड़ने में कामयाब होने लगे.
पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर इसी मशहूर उपन्यास पर आधारित इसी नाम से ‘पेदरो परामो’ (Pedro Páramo) फिल्म आई. मशहूर सिनेमेटोग्राफर Rodrigo Prieto के निर्देशन में यह पहली फिल्म है.
पिछले साल आई ‘मार्टिन स्कोर्सिस’ की मशहूर फिल्म Killers of the Flower Moon के सिनेमेटोग्राफर Rodrigo Prieto ही थे. इससे पहले वे मशहूर फिल्म बार्बी की सिनेमेटोग्राफी भी कर चुके हैं. लिहाजा Rodrigo Prieto ने सिनेमेटोग्राफी का अपना पूरा अनुभव इसमे निचोड़ दिया है और दर्शक मंत्रमुग्ध भाव से दृश्य दर दृश्य बहता चला जाता है. मानों किसी ने हमें सम्मोहित कर लिया हो और अपने साथ हमें जीवन-मौत, अतीत-वर्तमान, सच-झूठ, अंधेरे-रोशनी … में बिना किसी ‘जर्क’ के ऐसे घुमाता है, मानों हम सचमुच कोई सपना देख रहे हों. लेकिन फिल्म खत्म होते ही यह सपना टूट जाता है और हम याद करने की कोशिश करते हैं कि हमने क्या देखा ? आखिर उसका मतलब क्या था ?
उआन रुल्फो के 126 पेज के अत्यंत छोटे उपन्यास में कैथोलिक चर्च की पाखंडी भूमिका, ‘सेकुलर’ सत्ता के साथ उसका समर्पण, मेक्सिको की असफल क्रांति (1910-20) के बाद और साम्राज्यवादी ‘विकास’ के फलस्वरूप उजाड़ बनते गांव, समाज का नैतिक संकट और वहां जनता विशेषकर महिलाओं के सामंती, धार्मिक (चर्च) शोषण की कहानी को मेक्सिको के प्राचीन इतिहास, मिथक और लोक-दृष्टि के साथ जादुई तरीके से पिरों कर उआन रुल्फो ने लैटिन अमेरिकी बहुस्तरीय यथार्थ को उघाड़ने में कमोवेश वही भूमिका निभाई है, जो मार्खेज ने अपने उपन्यास ‘One Hundred Years of Solitude’ में एक अन्य स्तर पर निभाई है.
लेकिन अफसोस कि फिल्म ने सिर्फ तकनीक पकड़ा और सामाजिक सन्दर्भ को कमोवेश गायब कर दिया (या गायब हो गया).
एक उदाहरण से यह स्पष्ट हो जायेगा. पेदरो परामो एक सामंत है और उसने कई महिलाओं के साथ जबरदस्ती की है. इन्हीं महिलाओं में से एक से पैदा बेटा Juan Preciado अपनी मरती मां को दिए गए वचन के अनुसार अपने बाप को खोजने और उससे अपना हक मांगने (“Don’t ask him for anything. Just what’s ours. What he should have given me but never did.) उजाड़ और मृत हो चुके कस्बे Comala आता है और यहां उसे वो मृत आत्माएं मिलती हैं जिन्हें वो पहले जिंदा समझता है. मर चुके पेदरो परामो की सताई गयी मृत हो चुकी महिलाएं बेहद रहस्यमयी तरीके से उसे पेदरो परामो की कहानी सुनाती हैं.
मूल उपन्यास में ये महिलायें यानी मृत आत्माए इतिहास की सच्ची गवाह की तरह पेश की गयी हैं. इतिहास की ढहती इमारतों के सबसे नीचे दबी महिलाओं के अलावा इतिहास की सच्ची गवाही भला और कौन दे सकता है. लेकिन बड़े बजट की netflix की यह फिल्म इन महिलाओं को मृत आत्मा और भूत में इस तरह बदलती है कि उनका इतिहास के गवाह (witness of history) वाला पक्ष मिट जाता है. और जादुई यथार्थ से यथार्थ गायब हो जाता है. बचता है सिर्फ जादू. जो फिल्म में निसंदेह बहुत प्रभावी है. लेकिन है तो वह खालिस जादू ही.
उआन रुल्फो ने इतिहास के इन गवाहों को मृत आत्मा की तरह बस यूं ही नहीं पेश किया है. दरअसल लैटिन अमेरिकी लोक मिथकीय दृष्टी में यह माना जाता है कि आत्माएं झूठ नहीं बोलती. और सबसे बढ़कर यह कि जिंदा व्यक्ति अपने राग/द्वेष से मुक्त होकर ‘वस्तुगत’ कैसे रह सकता है. वस्तुगत होने के लिए उसे एक स्तर पर तो ‘मरना’ ही पड़ता है.
पेदरो परामो ने कई स्त्रियों का शोषण किया है. लेकिन उसका प्यार सुशाना (Susana San Juan) है. उआन रुल्फो ने अपने उपन्यास में बचपन में पेदरो परामो और सुशाना के पतंग उड़ाने का बहुत ही मासूम वर्णन किया है. इसी प्रसंग/दृश्य से हम समझ पाते हैं कि सुशाना पेदरो परामो का मासूम प्यार है. और तभी यह बात उभर कर आती है कि तमाम औरतों को जबरदस्ती हासिल करने वाले सामंत पेदरो परामो को सुशाना कभी भी हासिल नहीं होती. तमाम महिलाओं का शोषण करने वाला पेदरो परामो अपने प्यार में बुरी तरह हार जाता है.
यह मानना पड़ेगा कि फिल्म में सुशाना और पेदरो परामो के बीच का एक दृश्य काफी सशक्त है. जब पेदरो परामो अपने प्यार को हासिल करने सुशाना के पास पहुंचता है तो वह अपने मर चुके पति की याद में खुद से प्यार करने में तल्लीन रहती है. लिहाजा पेदरो परामो को खींज में अपनी नौकरानी से ही बिना प्यार के जबरदस्ती के सेक्स से काम चलाना पड़ता है. मरती हुई सुशाना, पादरी को भी भगा देती है, जो पेदरो परामो के कहने से उसकी ‘मुक्ति’ की प्रार्थना के लिए आया है.
फिल्म में क्रांतिकारियों के साथ पेदरो परामो का रिश्ता बेहद यांत्रिक तरीके से दिखाया गया है. जबकि मूल किताब में उआन रुल्फो ने संकेत में ही सही इस बुर्जुआ क्रांति की असफलता को उसके अन्दर से ही एक ट्रेजेडी की तरह पेश किया है. एक जगह उपन्यास में उआन रुल्फो लिखते हैं- ‘मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता कि स्वर्ग कितना दूर है, लेकिन मैं सभी शॉर्टकट भी जानता हूं.’
Netflix की तरफ से Rodrigo Prieto ने शार्टकट अपनाया है और अपने को ‘जादू’ तक ही सीमित रखा है. लेकिन अगर आप जादू के माध्यम से यथार्थ तक पहुचना चाहते हैं तो आपको लंबा रास्ता अपनाना होगा यानी उआन रुल्फो का उपन्यास पढ़ना होगा.
और अंतिम बात: ‘पेदरो’ का मतलब पत्थर और ‘परामो’ का मतलब उजाड़ /निचाट जगह है. पूरे उपन्यास में इसकी अनुगूंज साफ सुनाई देती है, लेकिन फिल्म की ‘अद्भुत’ सिनेमेटोग्राफी में इस शब्द का रूपक खो सा जाता है.
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