भारत में दो राजसत्ताओं के बीच जीवन-मौत की लड़ाई चल रही है. इस लड़ाई में सैकड़ों लोगों/योद्धाओं की मौतें हो रही है. एक सत्ता जो प्रभावी तौर पर भारत की सत्ता पर काबिज है, और ‘भारत सरकार’ के बतौर देश की जनता के मेहनतकश की कमाई को लूटने, बखोटने के लिए एक से बढ़कर एक कुकर्म कर रही है. और अपने लूट में उत्पन्न हर बाधाओं को दूर करने के लिए लाखों की तादाद में सैन्य बल और सैन्य उपकरणों से लैस है. इतना ही नहीं और भी नृशंस तरीकों से हमलावर हो रही है.
वहीं, दूसरी ओर देश के बहुसंख्यक मेहनतकश जनता की स्थापित राजसत्ता ‘जनताना सरकार’ है, जो देश के मेहनतकश जनता के मेहनत की कमाई और उसके संसाधनों को लूट से बचाने के लिए लड़ रही है. उसके पास देश के करोड़ों मेहनतकश लोगों का खुला समर्थन है, वह उदीयमान सत्ता है, लेकिन उसके पास संसाधनों की कमी है, उन्नत तकनीक वह सैन्य उपकरणों की कमी है. वह गुरिल्ला युद्ध लड़ रही है.
ऐसे में युद्ध और उसके नीतियों, उसके संचालन में प्रस्तुत यह लेख बुनियादी बदलावों की ओर ध्यान खींचती है. यह लेख भारत सरकार के लेफ्टिनेंट कर्नल द्वारा लिखा गया है. युद्धरत दोनों ही सत्ताओं के लिए यह एक जरूरी लेख है. इसका अध्ययन किया जाना चाहिए – सम्पादक
अक्षत उपाध्याय
ऐतिहासिक रूप से इस बात को मान लिया गया है कि जब भी युद्ध होता है, तो उसकी प्रकृति एक तरह की रहती है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है, यानी युद्ध में विरोधी को अपने मन मुताबिक़ झुकाने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है. इसके साथ ही यह भी कहा जाता रहा है कि टेक्नोलॉजी, संगठन, राजनीति और संस्कृति के साथ-साथ युद्ध का स्वरूप बदल जाता है. लेकिन अब यह धारणा बदल चुकी है. देखा जाए तो पिछले एक दशक में युद्ध का तरीक़ा पूरी तरह से बदल गया है. युद्ध में अब ऐसी युक्तियों का उपयोग होता है, जिनमें न तो संपर्क की ज़रूरत होती है और न ही बहुत भाग-दौड़ की. इसके साथ ही युद्ध क्षेत्र का स्थान के लिहाज़ से अस्थाई रूप से विस्तार हुआ है.
आज युद्ध और शांति की परिभाषित अवधियों को एक ऐसी निरंतर होने वाली प्रतिस्पर्धा से बदल दिया गया है, जिसमें सशस्त्र संघर्ष के स्थान पर दुश्मन को अन्य तरीक़ों से घेरने और मात देने की रणनीतियों का इस्तेमाल किया जाता है. कहा जा सकता है कि इस तरह के युद्ध का लक्ष्य विरोधी का विनाश करने का कम और उसके रास्ते में तरह-तरह के अवरोध पैदा करने का ज़्यादा होता है. युद्ध के स्वरूप में इस बदलाव के लिए दोहरे उपयोग वाली प्रौद्योगिकियां, जो सस्ती और दूर तक फैली हुई हैं, काफ़ी अहम रही हैं. इस बदले हुए परिवेश में भारतीय सशस्त्र बलों के लिए प्रौद्योगिकी के उपयोग में सक्षम कमांडरों को तैयार करना अनिवार्य हो गया है. यानी ऐसे सैन्य कमांडरों को तैयार करना, जो न सिर्फ़ नई-नई टेक्नोलॉजी के बारे में गहरी समझ रखते हों, बल्कि जिनके पास विरोधियों के विरुद्ध नए-नए तीरक़ों से इन तक़नीकों का उपयोग करने के लिए रचनात्मक सोच और काबीलियत भी हो.
युद्ध का बदलता स्वरूप और प्रकृति
समय के साथ-साथ युद्ध में आने वाले परिवर्तन को वर्गीकृत करने की कोशिश करने वाले सिद्धांतकार, युद्ध की ‘जेनरेशन्स या पीढ़ी’ का उल्लेख करते हैं.[1] पहली पीढ़ी के युद्धों में यानी शुरूआती काल के युद्धों में बड़े पैमाने पर जनशक्ति और लाइन-ऑफ़-कॉलम, अर्थात एक ही दिशा में हमला करने की रणनीति पर ज़ोर दिया गया. दूसरी जेनरेशन के युद्ध में मशीन गन और परोक्ष गोलीबारी की रणनीति थी, तीसरे जेनरेशन के युद्धों में छल-कपट, पैंतरेबाज़ी और साझा हथियारों की जंग का बोलबाला था, जबकि चौथी पीढ़ी में नॉन-स्टेट दुश्मन शामिल थे. वर्तमान पांचवीं जेनरेशन के युद्ध की विशेषता नॉन-काइनेटिक कार्रवाई यानी कि जानलेवा सैन्य कार्रवाइयों की जगह पर गलत सूचनाओं का प्रसार, साइबर-हमले और सोशल इंजीनियरिंग के साथ-साथ आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) और ऑटोनॉमस प्रणालियों का उपयोग है.[2]
पिछले कई वर्षों में हुई कई घटनाओं ने यह भी दिखाया है कि युद्ध लड़ने और राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के बीच संबंध बेहद कमज़ोर हो गया है. जब तक राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने की इच्छाशक्ति मज़बूत नहीं हो, तब तक विरोधी की युद्ध लड़ने की ताक़त को कमज़ोर करना या दुश्मन के इलाक़े में कब्जा करने जैसे सैन्य उद्देश्यों को हासिल करना संभव नहीं हो सकता है.
‘जेनरेशन या पीढ़ी’ शब्द की उत्पत्ति के पीछे एक अंतर्निहित धारणा है, जिसके अनुसार प्रत्येक नई पीढ़ी का युद्ध, हमले के पिछले तरीक़ों और तक़नीकों को छोड़कर आगे बढ़ जाता है. हालांकि, पिछले दशक की घटनाओं ने दिखाया है कि ये पीढ़ियां एक-दूसरे का ख़ून बहाती हैं. आर्मेनिया-अज़रबैजान युद्ध, ऑपरेशन इराक़ी फ्रीडम (OIF), ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम (OEF),[a] और वर्तमान में जारी रूस-यूक्रेन संघर्ष ने इस नज़रिए को मज़बूती प्रदान की है. दुश्मन को कमज़ोर करने वाले युद्ध ने आतंकवादी रोधी अभियानों, मानव रहित प्रणालियों और कॉम्बैट बायोमेट्रिक्स जैसी प्रौद्योगिकियों के उपयोग एवं साइबर हमलों व दुष्प्रचार के साथ मिलकर एक अराजकतापूर्ण ‘युद्धक्षेत्र’ बनाने का काम किया है. पिछले कई वर्षों में हुई कई घटनाओं ने यह भी दिखाया है कि युद्ध लड़ने और राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के बीच संबंध बेहद कमज़ोर हो गया है. जब तक राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने की इच्छाशक्ति मज़बूत नहीं हो, तब तक विरोधी की युद्ध लड़ने की ताक़त को कमज़ोर करना या दुश्मन के इलाक़े में कब्जा करने जैसे सैन्य उद्देश्यों को हासिल करना संभव नहीं हो सकता है. कहने का तात्पर्य यह है कि सहयोग और संघर्ष का चोली-दामन का साथ है, यानी इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है. अमेरिका एवं चीन, भारत एवं चीन और दूसरे अन्य जोड़ीदारों का मामला इस विचार को पुख्ता करने का काम करता है.
इसके फलस्वरूप युद्ध संचालति करने के दो समानांतर तरीक़ों की परिकल्पना की जा रही है, पहला नॉन-कॉन्टैक्ट और दूसरा नॉन-काइनेटिक युद्ध. गैर-संपर्क यानी नॉन-कॉन्टैक्ट वाले युद्ध में लंबी दूरी तक निशाना साधने वाले हथियार, जैसे कि रॉकेट और मिसाइल, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक (EM) स्पेक्ट्रम, मानव रहित एरियल सिस्टम (UAS) और साइबर अटैक आदि शामिल हैं, जबकि नॉन-काइनेटिक युद्ध संचालन में सोशल मीडिया के ज़रिए दुष्प्रचार करना, एक्सपोर्ट पर नियंत्रण, प्रोपेगंडा फैलाना और साइबर अटैक जैसी युक्तियां शामिल हैं.[b] युद्ध के ये सभी तरीक़े ऐसे हैं, जिनमें प्रौद्योगिकी का उपयोग आवश्यक है. ये सभी विशेष रूप से डेटा के संग्रह, उसके मिलान एवं विश्लेषण, विकसित सेमीकंडक्टर्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एन्क्रिप्टेड कम्युनिकेशन पर आधारित हैं.
पहले व्यापार, पारस्परिक संचार, जागरूकता [3] और आर्थिक रूप से एक दूसरे पर निर्भरता [4] जैसे क्षेत्रों को नागरिक डोमेन समझा जाता था, लेकिन इन क्षेत्रों को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने के बढ़ते चलन ने आज पूरी सोसाइटी को एक हिसाब से ख़तरे में डाल दिया है. इतना ही नहीं आंकड़ों के प्रभाव वाली प्रौद्योगिकियों की चारों ओर बेतरतीब ढंग से फैलने की प्रकृति और इसका कोई पूर्व निर्धारित युद्ध क्षेत्र नहीं होने की वजह से भी ज़ोख़िम पैदा होने का ख़तरा बना रहता है. दरअसल, युद्ध की प्रकृति इतनी नहीं बदली है, जितनी कि दूर तक फैल गई है. दसअसल, लड़ाई अब फिजिकल डोमेन के कहीं आगे बढ़कर संरचनात्मक क्षेत्र तक पहुंच गई है. अब युद्ध में देशों की प्रक्रिया संबंधी कमज़ोरियों को निशाना बनाते हुए, उनके राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में दख़ल समेत देश के भीतर पड़ी दरारों का फायदा उठाते हुए सरकार एवं नागरिकों के बीच अविश्वास को बढ़ावा दिया जाता है. ज़ाहिर है कि इस तरह की नए दौर की लड़ाई का सामना करने के लिए ऐसे सैन्य कमांडरों की आवश्यकता होती है, जो प्रौद्योगिकी की जानकारी से लैस हों और जो यह पहचान सकें कि भविष्य की चुनौतियों का मुक़ाबला हमेशा पुराने हथकंडों का इस्तेमाल करके नहीं किया जा सकता है. इन कमांडरों के पास सक्षम जूनियर अफ़सरों को तैयार करने और नवीनतम तक़नीकों की गहरी समझ-बूझ के आधार पर नए-नए युद्ध समाधान विकसित करने के लिए मानसिक योग्यता और क्षमता होनी चाहिए. ज़ाहिर है कि इसके लिए सैन्य नेतृत्व के भीतर सैद्धांतिक, संगठनात्मक और सबसे महत्त्वपूर्ण, संज्ञानात्मक बदलाव शामिल करने होंगे.
युद्ध अब ग्रे-ज़ोन ऑपरेशन्स, , मल्टी-डोमेन ऑपरेशन्स , और न्यू जेनरेशन वारफेयर (NGW) को कवर करने के लिए विस्तारित हो गया है. , तक़नीकी नवाचारों के प्रभावी उपयोग के ज़रिए फोकस गैर-संपर्क और नॉन-काइनेटिक साधनों को तैनात करने पर है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अपने विरोधी पर ध्यान केंद्रित करने के बजाए दुश्मन पक्ष अपनी सामाजिक और संगठनात्मक कमज़ोरियों में ही उलझा रहे है.
संदर्भ यह है कि भारत संभावित रूप से दो ऐसे कपटी, धूर्त और चालाक किस्म के पड़ोसी देशों से घिरा हुआ है, जो संशोधनवादी प्रवृत्ति के हैं. भारत जलवायु परिवर्तन, दुष्प्रचार, अस्थिर आपूर्ति श्रृंखला और आतंकवाद समेत सुरक्षा क्षेत्र में गैर-पारंपरिक चुनौतियों का भी सामना करता है. कुछ रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि भारत का अंतिम मक़सद संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के साथ एक अल्पकालिक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में ‘थर्ड पोल’ के रूप में कार्य करना हो सकता है.[5] हालांकि यह कोई एक घोषित स्थिति नहीं है, बल्कि यह वैश्विक मंच पर भारत के कार्यों की वजह से एक उभरती हुई स्थिति है, जो स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्यान्न, सुरक्षा और डिजिटल गवर्नेंस में अन्य देशों की सहायता करते हुए अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करती है. उल्लेखनीय है कि यह स्थिति उन चुनौतियों का सामना करती है, जिसके लिए सशस्त्र बल एक अहम भूमिका निभाने के लिए बाध्य हैं.
देखा जाए तो ज़्यादातर सैन्य ख़तरे प्रौद्योगिकियों की वजह से ही हैं, जैसे कि AI और साइबर अटैक जैसे आंकड़ों की प्रमुखता वाली तक़नीक के ख़तरे, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक (EM) स्पेक्ट्रम का हेरफेर, लंबी और छोटी दूरी वाली मिसाइलें एवं मानव रहित प्रणालियां, अंतरिक्ष आधारित इंटेलिजेंस, निगरानी और जासूसी प्रणालियां (ISR). सेना में ऐसे प्रशिक्षित और योग्य सैन्य कर्मियों को विभिन्न रैंकों पर नियुक्त करना कभी भी अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रहा है, जिनके पास न केवल उभरती हुई और ख़ास तरह की प्रौद्योगिकियों की समझ हो, बल्कि विरोधियों का सामना करने के लिए नए-नए समाधानों के लिए उन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने की रचनात्मक काबीलियत भी हो. इसके अलावा, भारतीय सशस्त्र बलों के भीतर संरचनात्मक बदलावों की भी सख़्त ज़रूरत है, ताकि अफ़सरों को वर्तमान में चल रहे विवादों और भविष्य के युद्धों के लिए बेहतर ढंग से तैयार किया जा सके. यह विशेष रूप से अहम है कि उभरती हुई प्रौद्योगिकियों की प्रकृति इन तक़नीकी नवाचारों का लाभ उठाने के लिए फ्लैट, विकेंद्रीकृत और मॉड्यूलर संगठनों को सबसे अच्छी स्थिति में रखती है. ज़ाहिर है कि भविष्य के युद्धों का सफल संचालन तीव्र संचार, तत्काल निर्णय लेने, सैन्य बलों को भौतिक रूप से एकत्र किए बगैर मारक क्षमता का बेहतर इस्तेमाल, नॉन-काइनेटिक सैन्य उपकरणों के उपयोग और लक्ष्य पर सटीक निशाना साधने की क्षमता पर निर्भर करेगा. इन सभी विशेषताओं के लिए एक अपेक्षाकृत फ्लैट ऑर्गेनाइजेशन की ज़रूरत होती है, जहां हर जेनरेशन के लोग मौज़ूद होते हैं और किसी भी तरह का निर्णय लेने में एवं समय सीमा के भीतर संदेश के त्वरित संचार में कोई अड़चन नहीं होती है. यानी एक ऐसा संगठन जो मॉड्युलर और स्वायत्त भी होता है.
क्या भारतीय सशस्त्र बल इस परिवर्तन के लिए तैयार हैं?
प्रौद्योगिकी के उपयोग के लिहाज़ से देखा जाए, तो तीनों सेनाएं एक समान नहीं हैं. एक तरफ नौसेना और वायु सेना अपने स्वरूप की वजह से तक़नीकी रूप से कहीं अधिक दक्ष और सक्षम हैं, जबकि दूसरी तरफ हथियार प्रणालियों और प्लेटफार्मों के उपयोग के मामले में थल सेना आज अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए प्रौद्योगिकियों को शामिल करने का प्रयास कर रही है. भविष्य के युद्ध क्षेत्र का विश्लेषण और भारतीय सशस्त्र बलों के प्रिज्म के माध्यम से वैचारिक, सैद्धांतिक और ऑपरेशनल डोमेन में सहायक परिवर्तनों की ज़रूरत को लेकर यह पेपर युद्ध लड़ने के एक नए नज़रिए के लिए सुझाव देगा.
युद्ध में टेक्नोलॉजी का उपयोग
सबसे पहले ‘युद्ध’ की अवधारणा को ही स्पष्ट तौर पर समझने की आवश्यकता है. ज़ाहिर तौर पर इसको लेकर लगभग सर्वसम्मति है कि ‘युद्ध’ एक ऐसी घटना है, जिसमें एक देश द्वारा हिंसा का इस्तेमाल कर अपने कुछ राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल किया जाता है. हालांकि, युद्ध की इस सरल परिभाषा की कुछ सीमाएं हैं. ‘पारंपरिक’ या पुराने समय के युद्ध की यह छवि, “दो अलग-अलग घटनाओं का एक मानसिक एवं सैद्धांतिक जुड़ाव है, यानी साम्राज्यों के बीच वेस्टफेलियन प्री-नेशन-स्टेट वॉर और दुनिया भर के देशों के बीच लड़े गए प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध. कुल मिलाकर पूर्व में घटित हुई इस तरह की भयावह घटनाएं युद्ध की एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत करती हैं, जो बेहद हिंसक है और इसमें सार्वभौमिक रूप से संगठित और उच्चक्रम से नीचे की ओर जाने वाला ताक़तवर सत्ता का मॉडल दिखाई देता है.”[6] इस तरह के युद्धों के बीच में जो गैप होता है उसे ‘शांति’ कहा जाता है.[7]
भारत समेत ज़्यादातर देशों की सेनाओं में युद्ध का यह वैचारिक मॉडल प्रमुखता से दिखाई देता है. इस मॉडल में युद्ध और शांति के बीच एक स्पष्ट अंतर है. इस मॉडल में युद्ध का कम से कम सैद्धांतिक रूप से एक शुरुआती और समाप्ति का चरण है, जिसके अंत में कूटनीति अपनी भूमिका निभाती है और कब्जे वाले इलाक़े को लेकर सौदेबाज़ी का खेल खेलती है, साथ ही पहले से मौज़ूद विवादों को हल करती है. यह बहुत अधिक क्षेत्रीय नज़रिया है, जो कि औद्योगिक युग से प्रभावित होता है, यानी ऐसा युग जहां एक इलाक़ा ही लड़ाई और सौदेबाज़ी का मुख्य मुद्दा होता है. इस मॉडल में युद्ध क्षेत्रों की एक श्रृंखला भी शामिल है, अर्थात एक भौगोलिक रूप से निर्धारित क्षेत्र, जहां विरोधी पक्षों में वर्चस्व या कब्जे के लिए संघर्ष होता है. बीन-काउंटिंग यानी वित्तीय फैसले और टैंक, एयरक्राफ्ट, एयर डिफेंस हथियारों जैसे साधनों और मशीनीकृत प्लेटफार्मों का उपयोग लड़ाई के एक संघर्षशील मोड के ज़रिए नतीज़े तय करता है. एट्रीशन मोड के प्रमुख कारकों में विरोधी पक्षों का औद्योगिक विकास, उनकी व्यावसायिकता का स्तर और विरोधी सेनाओं का प्रशिक्षण एवं उनके नेताओं के राजनीतिक इरादे शामिल हैं.
हाल के वर्षों में देखा जाए, तो दुनिया भर में कई राजनीतिक और आर्थिक कारक [8] हैं, जो सेनाओं के आकार को सीमित कर रहे हैं. इतना ही नहीं ‘प्रीसिज़न रिवोल्यूशन’ [9] ने सैन्य युद्ध क्षेत्र के आकार को छोटा कर दिया है और 5G संचार द्वारा बढ़ने वाले इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) के उभार ने ‘वॉर-ज़ोन’ का दायरा बढ़ाने का काम किया है. पूरी की पूरी सोसाइटी सूचना और प्रभाव के एक ‘अदृश्य’ युद्ध में संलग्न है.[10] देखा जाए तो युद्द के मॉडल को लेकर बड़ा बदलाव हुआ है, यानी युद्ध अब किसी ख़ास दिन और समय पर होने के बजाए लगातार होने वाले संघर्ष और टकराव का हिस्सा बन गए हैं और इसी तरह से समाप्त भी होते हैं, क्योंकि आमने-सामने की लड़ाई के मैदानों का नागरिक जीवन में ‘वॉर-ज़ोन्स’ के साथ विलय कर दिया गया है. टैंक, मानवयुक्त एयरक्राफ्ट और मशीनीकृत प्लेटफार्मों जैसे पारंपरिक मंचों के इस्तेमाल को विकसित ISR, बेहतर संचार उपकरणों और मानव रहित प्रणालियों के साथ जोड़कर बढ़ाया जाना चाहिए. संयुक्त-हथियार ऑपरेशन्स को अब न केवल ज़मीनी और मशीनीकृत बलों को शामिल करने की आवश्यकता है, बल्कि हवाई, समुद्री, साइबर, संज्ञानात्मक डोमेन और इलेक्ट्रोमैगनेटिक स्पेक्ट्रम को भी शामिल करने की ज़रूरत है. वर्तमान में जारी रूस-यूक्रेन युद्ध ने यह साबित कर दिया है कि संयुक्त हथियार ऑपरेशन्स सशस्त्र संघर्षों में बेहद अहम हो गए हैं और अब सूचना युद्ध, मानव रहित प्रणालियों एवं साइबर-हमलों के ज़रिए युद्ध को प्रभावी बनाने की आवश्यकता है.
युद्ध अब ग्रे-ज़ोन ऑपरेशन्स,[c] , [11] मल्टी-डोमेन ऑपरेशन्स [d], [12] और न्यू जेनरेशन वारफेयर (NGW) को कवर करने के लिए विस्तारित हो गया है.[e], [13] तक़नीकी नवाचारों के प्रभावी उपयोग के ज़रिए फोकस गैर-संपर्क और नॉन-काइनेटिक साधनों को तैनात करने पर है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अपने विरोधी पर ध्यान केंद्रित करने के बजाए दुश्मन पक्ष अपनी सामाजिक और संगठनात्मक कमज़ोरियों में ही उलझा रहे है. जबकि ग्रे-ज़ोन ऑपरेशंस की मंशा न केवल युद्ध के अलावा अन्य ऑपरेशन्स के माध्यम से राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने की होती है, बल्कि इसके माध्यम से विरोधी पक्ष को या तो हथियार डालने के लिए या फिर बड़ी लड़ाई का ज़ोख़िम उठाने के लिए मज़बूर किया जाता है. मल्टी-डोमेन ऑपरेशन्स दुश्मन के अहम बुनियादी ढांचे को निष्क्रिय करने या उसे नुक़सान पहुंचाने के लिए भूमि, वायु और समुद्र के पारंपरिक युद्ध क्षेत्रों को अंतरिक्ष, EM स्पेक्ट्रम और साइबर जैसे नए क्षेत्रों के साथ संयोजित करने का प्रयास करते हैं. न्यू जेनरेशन वारफेयर, युद्ध लड़ने के तमाम गतिज और गैर-गतिज साधनों के जोड़ता है. NGW का उपयोग दुश्मन की इरादों को वश में करने के लिए किया जाता है, इससे पहले कि विरोधी को कोई भी प्रासंगिक कार्रवाई करने का समय मिले.
ग्रे-ज़ोन रणनीति की जड़ें 1960, 70 और 80 के दशक में लैटिन अमेरिका में संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) की गतिविधियों में हैं, जिसमें कॉन्ट्रा स्कैंडल और कथित अमेरिकी डीप स्टेट क्यूबा पर सशस्त्र अर्धसैनिक बलों द्वारा बे ऑफ़ पिग्स पर असफल आक्रमण शामिल है.[f],[14] इसके बाद, पश्चिम एशिया में ‘कलर रिवोल्यूशन’ और जैस्मीन क्रांति को भी हाइब्रिड युद्ध का हिस्सा माना गया है.[g],[15] रूस इन सभी घटनाओं को अमेरिका की उस रणनीति के एक हिस्से के रूप में देखता है, जिसमें कमज़ोर देशों पर उनके विरुद्ध युद्ध की घोषणा किए बिना, वहां अपने अनुकूल राजनीतिक समाधान थोपना शामिल होता है. इसी प्रकार से वर्ष 2014 में यूक्रेन के ख़िलाफ़ अपने ऑपरेशन के शुरुआती चरण में रूस ने यूक्रेन के विरुद्ध एक प्रगतिशील और परिष्कृत टेम्पलेट का इस्तेमाल किया,[16] जिसमें गोला-बारूद से हमला, जनमत संग्रह, सर्वेक्षण, साइबर अटैक, ट्रोल फार्म्स का उपयोग, विशेष बल (‘लिटिल ग्रीन मैन’) और हथियारबंद असंतुष्ट विरोधी शामिल थे. इसके साथ ही रूस की रणनीति में क्रीमिया को हड़पने के लिए पारंपरिक आर्थिक और राजनीतिक दबाव के साथ-साथ, रूस समर्थक यूक्रेनी राष्ट्रपति को सत्ता से उखाड़ फेंकने से रोकना, बाल्टिक में सीमावर्ती देशों को चेतावनी देना और अपने प्रभाव वाले पहले के क्षेत्रों में असंतुलन पैदा करना शामिल था. [17] इसी तरह की तक़नीकों, विशेष रूप से साइबर हमलों और प्रभावशाली ऑपरेशन्स का उपयोग एस्टोनिया [18] और जॉर्जिया के ख़िलाफ़ किया गया गया था. देखा जाए तो अपने सशस्त्र बलों की पूरी ताक़त का इस्तेमाल किए बगैर या आमने-सामने के हमले का सहारा लिए बिना, रूस अंतर्राष्ट्रीय क़ानून द्वारा स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित किए जाने के बावज़ूद एक ऐसी राजनीतिक शर्त और राजनीतिक व्यवस्था को थोपने में सक्षम था, जो उसके अनुकूल थीं.
‘ग्रे-ज़ोन ऑपरेशन्स’ को ग़लत समझा जा सकता है. ‘ग्रे ज़ोन’ की चीनी व्याख्या से प्रभावित, जैसा कि इसकी ‘थ्री वारफेयर्स’ स्ट्रेटजी में दर्शाया गया है, [19] कुछ सैन्य विश्लेषक सशस्त्र बलों के मत्थे कुछ ऐसी गतिविधियों को मढ़ देते हैं, जो अन्य सरकारी एजेंसियों या शाखाओं द्वारा संचालित की जाती हैं. हालांकि, देखा जाए तो ‘ग्रे-ज़ोन’ ऑपरेशन्स ‘ग्रे’ ऑपरेशन्स के समान नहीं हैं. चाइनीज स्टेट का अपना वर्गीकरण होगा, क्योंकि यह पार्टी और देश के बीच अंतर नहीं करता है, साथ ही इसके मुताबिक़ पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) की एक सशस्त्र इकाई है न कि चाइनीज स्टेट की. इसलिए, वे विचारों के युद्ध और क़ानूनी युद्ध को सैन्य अभियानों का हिस्सा मानते हैं. [20]
लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक दलों और सरकार की संरचना के बीच एक स्पष्ट अंतर होता, जिसमें सशस्त्र सेनाएं आमतौर पर संविधान या राष्ट्र के संवैधानिक प्रमुख के प्रति जवाबदेह होती हैं. शासनादेश का यह अलगाव सशस्त्र बलों के लिए निर्धारित की गई गतिविधियों को लेकर ज़ाहिर तौर पर बाधाएं पैदा करता है. दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो क्षेत्रों, ज़िम्मेदारियों और प्रभाव के संदर्भ में सशस्त्र बलों के लिए आमतौर पर एक निश्चित ऑपरेशनल जनादेश होता है. दुनिया भर के लोकतंत्रों में सेना की भूमिका का विस्तार हुआ है, हालांकि प्राथमिक लक्ष्य पारंपरिक ऑपरेशन ही बना हुआ है. जलवायु परिवर्तन, साइबर युद्ध, प्रभाव संचालन और अन्य गैर-पारंपरिक सुरक्षा चुनौतियां एक दुविधा पैदा करती हैं, क्योंकि उनमें ऐसे समाधान शामिल नहीं होते हैं, जिनके लिए आमतौर पर सशस्त्र बल सुसज्जित या प्रशिक्षित होते हैं. बस यहीं पर टेक्नोलॉजी बेहद अहम हो जाती है. अपने अंतर्निहित दोहरे उपयोग की प्रकृति के कारण टेक्नोलॉजी वह पुल है, जो सशस्त्र बलों को गैर-पारंपरिक ख़तरों के समाधान तलाशने के लिए आपस में जोड़ती है. यह इस संदर्भ में है कि भारतीय सशस्त्र बलों में तक़नीकी रूप से दक्ष कमांडरों की भूमिका इन तक़नीकों को शुरू करने और जटिल प्रणालियों का उपयोग करने के लिए एक वैज्ञानिक प्रकृति और प्रवृत्ति दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण हो जाती है.
भारतीय सशस्त्र बल अपने वर्तमान स्वरूप में पारंपरिक ऑपरेशन्स के लिए अच्छी तरह से प्रशिक्षित, सुसज्जित और हथियारों से लैस हैं, लेकिन इनके पास ग्रे-ज़ोन ऑपरेशन्स का जवाब देने के लिए सीमित विकल्प हैं. हालांकि भारतीय सेना को जम्मू-कश्मीर (J&K) के केंद्र शासित प्रदेशों और नॉर्थ ईस्ट रीजन में काउंटर इंसर्जेंसी (CI) और आतंकवाद-रोधी (CT) अभियानों में काफ़ी सफलता मिली है, लेकिन यहां युद्ध के लिए पारंपरिक हथियारों का उपयोग किया जाता है. अंतरिक्ष, सूचना और ईएम स्पेक्ट्रम जैसे क्षेत्रों को पारंपरिक ऑपरेशन्स के लिए बेहद उपयोगी माना जाता है. यह एक तरह से दुविधा पैदा करता है. हालांकि, कई बार देखने में आता है कि सशस्त्र बलों की पारंपरिक युद्ध क्षमता, विरोधी पक्ष द्वारा ग्रे-ज़ोन ऑपरेशन्स के उपयोग के ख़िलाफ़ पर्याप्त प्रतिरोध प्रदान करने में सफल नहीं होती है और इस वजह से निर्णय लेने में असमंजस्य की स्थिति पैदा होती है. दुविधा इसको लेकर होती है कि काइनेटिक टूल का उपयोग करके उन्हें नॉन-काइनेटिक ऑपरेशन्स का उत्तर किस प्रकार देना चाहिए? इसलिए, भारतीय सशस्त्र बलों को आपात स्थितियों का जवाब देने के लिए विशेष रूप से तैयार किए गए ऑपरेशन्स की ज़रूरत होती है, जिसमें नॉन-काइनेटिक ऑपरेशन्स भी शामिल हैं. ज़ाहिर है कि अब तक जिन ख़तरों के बारे में बताया गया है, उनके व्यापक स्पेक्ट्रम के लिए प्रशिक्षित सैन्य कर्मियों की आवश्यकता है, ख़ासकर सेना में ऊपर से नीचे तक के सभी पदों के अफ़सरों और कर्मियों में यह महसूस करने के लिए कि प्रौद्योगिकी-सक्षम समाधानों को भविष्य के युद्ध क्षेत्र में प्रमुखता देने की ज़रूरत होगी.
यह पेपर ऐसा कोई तर्क नहीं दे रहा है कि डिजिटल समाधानों के पक्ष में, या उनके उपयोग करने के लिए पारंपरिक प्लेटफार्मों को छोड़ दिया जाए, जबकि यह पेपर इस बात पर ज़ोर देता है कि भविष्य के ऑपरेशन्स की योजना बनाने के दौरान प्रौद्योगिकी और इसकी विशेषताओं को केंद्र में रखने की आवश्यकता है.
यह पेपर ऐसा कोई तर्क नहीं दे रहा है कि डिजिटल समाधानों के पक्ष में, या उनके उपयोग करने के लिए पारंपरिक प्लेटफार्मों को छोड़ दिया जाए, जबकि यह पेपर इस बात पर ज़ोर देता है कि भविष्य के ऑपरेशन्स की योजना बनाने के दौरान प्रौद्योगिकी और इसकी विशेषताओं को केंद्र में रखने की आवश्यकता है. इसमें एक संज्ञानात्मक प्रक्रिया शामिल है, जो कमज़ोरियों और क्षमताओं को स्वीकार करने और उनके बीच के अंतर के साथ शुरू होती है. इसके साथ ही इस प्रक्रिया में नवीनतम तक़नीकों और उनकी क्षमता की गहरी समझ और आख़िर में, वो संदर्भ भी शामिल होते हैं, जिसमें उनका उपयोग किया जा सकता है. प्रौद्योगिकी की महत्ता की समझ रखने वाला एक लीडर तक़नीकी रूप से कुशल अधिकारियों और सैनिकों के एक विशेष कैडर की आवश्यकता को अच्छी तरह से समझता है, यानी ऐसे अधिकारी और सैनिक जो न केवल तक़नीकी समाधान प्रदान कर सकते हैं, बल्कि उन्हें समन्वय और एकीकरण के माध्यम से बड़े समाधानों में शामिल किया जा सकता है. आख़िर में, तक़नीकी रूप से सक्षम एक कमांडर उभरती हुई टेक्नोलॉजी, पारंपरिक क्षमताओं और बदलते संदर्भ के बीच एक पुल बनाने का काम करता है, जिसके अंतर्गत युद्ध को संचालित करना पड़ता है.
युद्ध के दौरान उभरती प्रौद्योगिकियों की भूमिका पर चर्चा करते हुए, इस बात को भी ध्यान रखना चाहिए कि पारंपरिक युद्ध समाप्त नहीं हुआ है, हालांकि युद्ध में जीत हासिल करने में इसका महत्त्व ज़रूर कम हो गया है. काइनेटिक ऑपरेशन्स (शुरुआत, संचालन और समाप्ति) के हर चरण पर इन्फॉर्मेशन ऑपरेशन्स हावी होगा क्योंकि सूचना को अगर अपने हित के मुताबिक़ प्रसारित किया जाए, तो लक्षित देश में अस्थिरता पैदा की जा सकती है. वर्ष 2020 [21] में अमेरिका द्वारा ईरानी जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या और मिसाइलों का उपयोग करके इराक़ में एक अमेरिकी बेस को लक्षित करके ईरान द्वारा लिया गया बदला, [22] एक सूचना के प्रभाव को स्थापित करने वाले काइनेटिक ऑपरेशन्स के उदाहरण हैं. दोनों देशों के नेतृत्व ने ऐसा करके एक-दूसरे के साथ युद्ध किए बिना अपनी-अपनी घरेलू जनता को अपने संकल्प और मंसूबों के बारे में बता दिया था. भारतीय सैन्य कमांडरों को युद्ध के मैदान पर सैन्य जीत हासिल करने के लिए न केवल दुश्मन से लड़ने के लिए अपनी इच्छा शक्ति पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है, बल्कि संज्ञानात्मक और सूचना क्षेत्र को लेकर भी तक़नीकी समाधान तलाशने की आवश्यकता है.
टेक्नोलॉजी का सैन्य उपयोग
प्रौद्योगिकी को आम तौर पर मानव जीवन के व्यावहारिक उद्देश्यों या मानव पर्यावरण के परिवर्तन के लिए वैज्ञानिक जानकारी के अनुप्रयोग के रूप में परिभाषित किया जाता है. [23] यही कारण है कि ‘विज्ञान’ और ‘प्रौद्योगिकी’ के बारे में एक साथ बात की जाती है, जैसे कि एस एंड टी. एक नए तक़नीकी पारिस्थितिकी तंत्र को पुष्पित-पल्लवित करने के लिए और उसे अमल में लाने, दोनों ही लिहाज़ से एक मज़बूत वैज्ञानिक आधार की ज़रूरत होती है. समकालीन समय में, जब सैन्य अफसर और विश्लेषक ‘प्रौद्योगिकी’ का उल्लेख करते हैं, तो वे कई प्रकार की तक़नीकों का उल्लेख करते हैं, यानी वे विशेष रूप से सूचना ऑपरेशन्स के लिए कंप्यूटिंग और लघुचित्रण, आईएसआर, संयुक्त और स्वायत्त फायर और युद्धक्षेत्र पारदर्शिता (BFT), मानव रहित प्रणालियों के लिए बढ़ावा और संचार एवं एयरफ्रेम व चेसिस के लिए रोबोटिक्स और मैटलर्जी यानी धातु विज्ञान का उल्लेख करते हैं. इस बीच, ‘उभरती टेक्नोलॉजी’ प्रौद्योगिकियों का एक समूह है, जो मौलिक नवीनता, अपेक्षाकृत तेज़ विकास, समय के साथ अनुकूलन, कई क्षेत्रों में प्रमुख प्रभाव और उपयोगिता को लेकर अनिश्चितता एवं संदिग्धता द्वारा पहचानी जाती हैं. [24] इनमें AI, 5G संचार, क्वांटम कंप्यूटिंग, ब्लॉकचेन, कंप्यूटर विज़न, बायोइंजीनियरिंग और मॉड्यूलर न्यूक्लियर एनर्जी शामिल होगी. ऐसे में जबकि नागरिक क्षेत्र में इन प्रौद्योगिकियों के भांति-भांति के उपयोग हैं, लेकिन सेना के लिए इनकी उपयोगिता अभी भी विकसित हो रही है. इन प्रौद्योगिकियों की सैन्य उपयोग की सफलता मापनीयता, वाणिज्यिक व्यवहार्यता, अनुसंधान एवं विकास की लागत, तक़नीकी जटिलता या आसान उपयोग और अनुकूलता जैसे विभिन्न कारकों पर निर्भर करेगी.
भारतीय सशस्त्र बलों का पारंपरिक और उप-पारंपरिक यानी अप्रतिबंधित दोनों तरह के युद्ध लड़ने का एक लंबा इतिहास रहा है. गैर-सरकारी और प्रॉक्सी किरदारों द्वारा प्रौद्योगिकियों का उपयोग, जैसे कि अनमैन्ड एरियल व्हीकल्स (UAVs) [25] और हमला करने वाले एयरबेसों [26] का इस्तेमाल हथियारों, जाली नोटों और प्रतिबंधित दवाओं की तस्करी के लिए करना, देखा जाए तो अपेक्षाकृत हाल के दिनों में इस तरह की घटनाएं आम हो गई हैं. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और एन्क्रिप्टेड एप्लिकेशन का उपयोग कट्टरपंथ की गतिविधियों के लिए और रियल टाइम में समन्वय के साथ सुरक्षा बलों और नागरिकों के ख़िलाफ़ हमले के लिए भी किया जाने लगा है. [27] सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और एन्क्रिप्टेड एप्लिकेशन का इस प्रकार का उपयोग पहले से ही संवेदनशील सामाजिक माहौल में और अस्थिरता पैदा करते हुए, कश्मीर जैसे क्षेत्रों में आतंकवाद रोधी अभियान चलाने के अपने प्राथमिक उद्देश्य से सुरक्षा बलों का ध्यान भटका सकता है.
उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान की एक स्वदेशी ड्रोन इंडस्ट्री है, जो सस्ते ड्रोन बनाती है, जिनका इस्तेमाल भारत में सीमा पार अवैध ड्रग्स और नकली मुद्रा भेजने के लिए किया जाता है. [28] जबकि पाकिस्तानी सेना ने नियंत्रण रेखा (LOC) पर युद्धविराम का अनुसरण करना जारी रखा है, उसने भारत के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार और प्रोपेगंडा फैलाने के लिए यूरोप और उत्तरी अमेरिका में प्रभावशाली अभियानों का इस्तेमाल किया है. [29] चीन ने पाकिस्तान को AI और EW क्षमताओं जैसी डिजिटल तक़नीकों के अलावा विकसित ड्रोन (CH-4B), सबमरीन, एयर डिफेंस (AD) सिस्टम और फ्रिगेट एवं फाइटर एयरक्राफ्ट विमान जैसे विशिष्ट प्लेटफॉर्म और प्रौद्योगिकियां प्रदान कीं हैं. [30] पाकिस्तानी वायु सेना ने भी चीनी समर्थन से सेंटर फॉर AI एंड कंप्यूटिंग (CENTAIC) की स्थापना की है. [31] एलएसी पर चीन ने बेहद अहम तक़नीकी-सैन्य क्षमताओं का विकास किया है, जिनका मीडिया द्वारा उल्लेख किया गया है. [32] चीन ने भारत के ख़िलाफ़ सूचना युद्ध भी छेड़ा है [33] और कथित तौर पर नागरिक सुविधाओं के ख़िलाफ़ साइबर हमलों को भी अंज़ाम दिया है. [34]
पाकिस्तान की एक स्वदेशी ड्रोन इंडस्ट्री है, जो सस्ते ड्रोन बनाती है, जिनका इस्तेमाल भारत में सीमा पार अवैध ड्रग्स और नकली मुद्रा भेजने के लिए किया जाता है. जबकि पाकिस्तानी सेना ने नियंत्रण रेखा (LOC) पर युद्धविराम का अनुसरण करना जारी रखा है, उसने भारत के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार और प्रोपेगंडा फैलाने के लिए यूरोप और उत्तरी अमेरिका में प्रभावशाली अभियानों का इस्तेमाल किया है.
OODA लूप
ये सभी गतिविधियां एक ऐसे मिलेजुले परिदृश्य की ओर इशारा करती हैं, जहां भारत को मध्यम से दीर्घकालिक भविष्य में कई पारंपरिक और गैर-पारंपरिक ख़तरों का सामना करना पड़ेगा. इन ख़तरों पर कार्रवाई करने की कुंजी दुनिया भर में सशस्त्र बलों में एक प्रसिद्ध और अक्सर इस्तेमाल की जाने वाली फिलॉस्फी है, यानी ऑब्ज़र्व-ओरिएंट-डिसाइड-एक्ट (OODA). OODA लूप पेंटागन के सलाहकार जॉन बॉयड द्वारा बनाया गया था. चूंकि भारतीय कमांडर पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित हैं और OODA लूप की बारीकियों से भली-भांति परिचित हैं, यह इस अवधारणा के लिए एक आदर्श मॉडल बन जाता है कि कमांडरों को सशक्त बनाने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग किस प्रकार से किया जा सकता है. लूप की जांच-पड़ताल के दौरान इसकी भी छानबीन की जा सकती है कि नए ख़तरों से निपटने के दौरान इसे किस प्रकार से संशोधित किया जा सकता है और यहां तक कि इसकी कमियों को कैसे दूर किया जा सकता है.
OODA लूप भारत समेत दुनिया की कई सेनाओं के लिए आदर्श मॉडल की तरह है. [35] इसकी अवधारणा एकदम सीधी-सपाट और स्पष्ट है, यानी कि जब एक फाइटर या सैनिक एक विरोधी का सामना करता है, तो उस दौरान एक निश्चित प्रक्रिया से होकर गुजरता है। यह प्रक्रिया किसी ख़तरे को अच्छी तरह देखने और परखने के साथ शुरू होती है, इसके बाद ख़तरे का सामना करने के लिए सैनिक स्वयं को तैयार करता है, इसके लिए उपलब्ध कई विकल्पों में से किसी एक के माध्यम से कार्रवाई करने का निर्णय लेता है और आख़िर में ख़तरे या चुनौती का मुक़ाबला करने के लिए क़दम बढ़ाता है. एक साधारण से परिदृश्य में दो विरोधियों के बीच मुक़ाबले में, जो भी अपने OODA लूप से तेज़ी से गुजरता है, वह विजेता बनकर उभरेगा. इस अवधारणा की सहजता ही है, जिसकी वजह से ऑपरेशनल और यहां तक कि रणनीतिक स्तर के बड़े-बड़े निर्णय लेने के दौरान मदद मिलती है.
OODA लूप से गुजरने के दौरान पहला क़दम अर्थात् आस-पास के माहौल का निरीक्षण सबसे अहम है और टेक्नोलॉजी का उपयोग करने वाले सभी लोगों को इसमें निपुण होना चाहिए. ज़ाहिर है कि किसी भी परिस्थिति के विरुद्ध कार्रवाई के बारे सोचने, उसे अमल में लाने और आगे बढ़ने से पहले ख़तरे को भांपना और पहचानना बहुत ज़रूरी है. पैरीमीटर पैट्रोलिंग के लिए अनमैन्ड सिस्टम, एआई-आधारित इमेज एवं मोशन डिटेक्शन सिस्टम, मल्टीपल ग्राउंड-बेस्ड इन्फ्रारेड (IR), ध्वनि विज्ञान, लाइट डिटेक्शन एंड रेंजिंग (LIDAR) सेंसर और सैटेलाइट इमेजरी, पारंपरिक रडार और ह्यूमन इंटेलिजेंस (HUMINT) के साथ मिलकर भौतिक डोमेन के लिए जिम्मेदार होंगे. अगले चरण के लिए विकल्प तैयार करने हेतु इन्हें डाटा माइनिंग, एग्रीगेशन और फ्यूजन सॉफ्टवेयर में समाहित करने की ज़रूरत है. साइबर डोमेन के लिए एआई-आधारित साइबर मॉनिटरिंग सिस्टम की आवश्यकता होगी, जबकि इन-हाउस डिज़ाइन किए गए एल्गोरिदम संभावित फेक न्यूज़ और ग़लत जानकारी के प्रचार-प्रसार की बारीक़ी से जांच करेंगे. इस प्रकार से देखा जाए तो निरीक्षण वाले हिस्से में तीन युद्ध क्षेत्रों के लिए तीन घटक होने चाहिए: एक व्यापक प्लग-एंड-प्ले मॉड्यूल, जो कि भौतिक डोमेन के लिए सभी सेंसर्स, डिवाइसों और HUMINT से मिलने वाले इनपुट को जोड़ता है, दूसरा, साइबर डोमेन के लिए साइबर निगरानी प्रणाली और तीसरा, संज्ञानात्मक डोमेन के लिए ग़लत जानकारी या दुष्प्रचार की निगरानी प्रणाली.
OODA लूप से गुजरने के दौरान दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण क़दम वातावरण को अपने अनुकूल बनाना है, यानी इसके अंतर्गत ऑपरेशनल, रणनीतिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के स्तरों पर कहीं अधिक विस्तृत व्याख्या है और यह सबसे अहम भी है. ख़तरे की किसी भी परिस्थिति को किस प्रकार से देखा जाता है? इसके लिए एक ऐसी योजना को विकसति करने की ज़रूरत है, जिसके माध्यम से पहले चरण के डेटा को फिल्टर किया जाता है और फिर उन आंकड़ों को संस्कृति, संगठन और ख़तरे की संभावना जैसे विभिन्न संदर्भों में विभाजित किया जाता है. अगर इसे टेक्नोलॉजी के लिहाज़ से देखा जाए, तो उचित एल्गोरिदम बनाकर इसे हासिल किया जा सकता है. इसके लिए प्रशिक्षण आंकड़ों की आवश्यकता होगी, जिन्हें पर्याप्त रूप से छांटा गया हो और मानक के अनुरूप एकत्र किया गया हो. इसलिए, OODA लूप को संशोधित करना होगा. चूंकि विभिन्न प्रकार के ख़तरों के लिए निजी प्लेयर्स के अलावा सरकार के अन्य विभागों और एजेंसियों के साथ समन्वय की आवश्यकता हो सकती है, इसलिए इस चरण को ‘कोर्डिनेट और ओरिएंट’ कहा जाना चाहिए.
OODA लूप से गुजरने के दौरान तीसरा हिस्सा, निर्णय लेने वाले के लिए कार्रवाई के विभिन्न विकल्पों में से एक सही विकल्प का चुनाव करना है. इसलिए इस स्तर पर एक मज़बूत डिशीजन सपोर्ट सिस्टम (DSS) यानी निर्णय समर्थन प्रणाली आवश्यक है. AI-आधारित प्रणालियां सेंसर और HUMINT से इनपुट को जोड़ने का काम करती हैं और निर्णय लेने वालों के लिए विकल्प सामने लाती हैं. फैसला लेने के इस चरण को एक अतिरिक्त एकीकृत करने वाले फेज के साथ जोड़ने की ज़रूरत है, क्योंकि यहां पर विभिन्न डोमेन के प्रासंगिक संसाधनों को एकजुट किया जाएगा. चौथा और आख़िरी चरण एक्ट है, जिसे अब डेलीगेट के साथ बदलने की आवश्यकता है. डेलिगेट फेज के बाद, सामरिक स्तरों पर होने वाली कई कार्रवाइयां होंगी. इसी के लिए तक़नीक रूप से सक्षम सैन्य कमांडरों की सबसे अधिक ज़रूरत होती है. चूंकि जिस तेज़ी के साथ युद्ध के ऑपरेशन और इसके लिए ज़रूरी निर्णय लेने पड़ते हैं, उससे सैन्य कमांडरों की संज्ञानात्मक क्षमताओं पर असर पड़ सकता है. इसलिए यह तय करना आवश्यक है कि सैन्य ऑपरेशन्स के किन हिस्सों को स्वचालित किया जा सकता है. यह भी तय करना ज़रूरी है कि किन हिस्सों को डेलीगेट किया जाना चाहिए और कहां-कहां मानवीय दख़ल आवश्यक है. डेलीगेट से एक्ट में परिवर्तन के लिए दो गुणों की आवश्यकता होगी: स्वायत्त कार्रवाइयों को सक्षम करना और बेहतरीन प्रोफेशनल मिलिट्री एजुकेशन (PME), जो कि स्थापित मॉडलों या प्रतिमानों पर सवाल उठाने और विशिष्ट समाधान तैयार करने पर ज़ोर देती है. तक़नीक रुप से सक्षम सैन्य कमांडर, प्रौद्योगिकियों की अपनी समझ और उनकी प्रासंगिक उपयोगिता के ज़रिए अपने कमांड को सशक्त बना सकते हैं और यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि भारतीय सशस्त्र बल प्रतिस्पर्धी ऑपरेशन्स को संचालित करने में सक्षम हैं.
तक़नीक केंद्रित नेतृत्व
टेक्नोलॉजी को समझना भविष्य के युद्धों की तैयारी करने का और उन्हें लड़ने के चक्रव्यूह का एक हिस्सा है. प्रौद्योगिकी द्वारा लाए गए संरचनात्मक बदलावों को स्वीकार करना और लागू करना पूरी तरह से दो अलग-अलग कार्य हैं. एक सैन्य संगठन में परिवर्तनकारी बदलावों की देखरेख करने के लिए कौन ज़्यादा योग्य है (हैं)? सशस्त्र बलों के लिए आज ‘अच्छे नेतृत्व’ का मतलब निर्धारित करने के मूल में यह सवाल है. निष्पक्ष तौर पर युद्ध में सैनिकों का नेतृत्व करना, निर्देश और आदेश जारी करना, दो-तरफ़ा संचार की सुविधा उपलब्ध कराना और असहमति को सहन करना एवं आख़िरकार उसे आत्मसात करना, ये सभी नेतृत्व के कार्य हैं. ऑपरेशनल या रणनीतिक स्तर पर रणकौशल या तक़नीक तौर पर सक्षम नेतृत्व में नीचे के जूनियर अफ़सरों को सामरिक स्तर पर कार्य करने के लिए खुला स्थान और खुला हाथ प्रदान करना भी शामिल है.
यह एक के बाद एक केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण का नाज़ुक गेम है. राजनीतिक उद्देश्यों को सैन्य लक्ष्यों में परिवर्तित करने, पर्याप्त संसाधनों और प्रौद्योगिकी के प्रावधान को सुनिश्चित करने, ख़तरे की प्रकृति को समझने और व्यापक प्रयोजन एवं दिशा प्रदान करने के लिए केंद्रीकरण की ज़रूरत होती है, जिसके तहत युद्ध करना पड़ता है. लगातार हो रही प्रतिस्पर्धा से मुक़ाबला करने के लिए ये ज़रूरतें अधिक अहम हो गई हैं, जहां युद्ध और शांति के बीच की रेखाएं बेहद धुंधली हो गई हैं. निचले स्तरों पर अभियान चलाने के लिए विकेंद्रीकरण की आवश्यकता है. उदाहरण के लिए, प्रभाव को स्थापित करने वाले अभियान क्षेत्रीय लिहाज़ से अलग-अलग होते हैं, ज़ाहिर है कि इनके कम से कम और सफल संचालन के लिए विकेंद्रीकरण की ज़रूरत होती है. इसी प्रकार से जलवायु परिवर्तन के प्रभाव भारत की विविध भौगोलिक स्थिति के मद्देनज़र अलग-अलग तरीक़ों से सामने आएंगे. उल्लेखनीय है कि अगर स्थानीय स्तर पर नवीनतम टेक्नोलॉजी और अधिकार से लैस सैन्य कमांडर तैनात होंगे, तो वे कुशलता के साथ दूसरी एजेंसियों और विभागों के साथ बेहतर समन्वय कर सकेंगे और ज़रूरत के मुताबिक़ फैसले ले सकेंगे.
इससे फिर यही सवाल पैदा होता है कि एक मिलिट्री ऑर्गेनाइजेशन में परिवर्तनकारी बदलावों की निगरानी करने के लिए कौन अधिक योग्य है (हैं)? ऐसा माना जाता है कि एक सेना के पास ताक़त होती है, हालांकि इस बात पर कम ध्यान दिया जाता है कि सेना किस प्रकार से इस ताक़त को हासिल करती है, सेना की ताक़त का मुद्दा युद्ध की प्रभावशीलता से किस प्रकार जुड़ा हुआ है और अंत में, कौन सा व्यक्ति या कौन से कारकों का संयोजन किसी विशेष संगठन को अनुकूल परिणाम की ओर ले जाता है. क्या यह युद्ध की प्रक्रिया, हथियारों, तक़नीकों, सैन्य कर्मियों की गुणवत्ता या संगठन है, या फिर कुछ और है?
सैन्य नेतृत्व का लिटमस टेस्ट यानी उसकी कुशलता और क्षमता सर्वोत्तम फोर्स स्ट्रक्चर को लेकर निर्णय लेने और उसका गठन करने में निहित है, जो यह सुनिश्चित करती है कि सशस्त्र बल राष्ट्रीय हितों को हासिल करने के लिए न केवल प्रभावी उपकरण बने रहें, बल्कि एक निरंतर समय अवधि के लिए प्रभावी ढंग से कार्य कर सकते हैं. चूंकि राष्ट्रीय हित गतिशील हैं, अर्थात समय के साथ-साथ बदलते रहते हैं, इसलिए सैन्य नेतृत्व को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी. ऐसे में सवाल यह है कि क्या सैन्य नेतृत्व ऐसा होनी चाहिए, जिसे तमाम विषयों की जानकारी हो, या फिर ऐसा होना चाहिए, जिसका झुकाव टेक्नोलॉजी की तरफ हो, या वो एक टेक्नोक्रेट की तरह हो? फिर से, यह एक व्यक्तिगत नज़रिया है, लेकिन उच्चतम स्तर पर, नेतृत्व ऐसा होना चाहिए, जो अनेक विषयों के बारे में बख़ूबी जानकारी रखता है, इसके साथ ही इसमें विशेष कैडर या अधिकारियों के समूह और रैंक-एंड-फाइल के साथ ऐसे लोग होने चाहिए, जो अपने क्षेत्र में विशेषज्ञ हों. हालांकि, अनेक विषयों की जानकारी रखने वाले इस नेतृत्व को समय-समय पर सैन्य शिक्षा कैप्सूल और ओरिएंटेशन से गुजरना पड़ता है, ताकि वे नवीनतम तक़नीकों और भू-राजनीति के बारे में अपडेट रहें. जहां तक युद्ध की बात है, तो यह अब सूचना युद्ध (IW), AI, मशीन लर्निंग (ML), क्वांटम कंप्यूटिंग और अन्य शीर्ष तक़नीकों पर निर्भर है. इसके लिए भाषा विज्ञान, क्रिप्टोग्राफी, भूविज्ञान और डेटा साइंस जैसे क्षेत्रों में पेशेवरों के एक वर्ग को बरक़रार रखने के लिए उन्हें बढ़ावा और प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है.
सैन्य नेतृत्व का लिटमस टेस्ट यानी उसकी कुशलता और क्षमता सर्वोत्तम फोर्स स्ट्रक्चर को लेकर निर्णय लेने और उसका गठन करने में निहित है, जो यह सुनिश्चित करती है कि सशस्त्र बल राष्ट्रीय हितों को हासिल करने के लिए न केवल प्रभावी उपकरण बने रहें, बल्कि एक निरंतर समय अवधि के लिए प्रभावी ढंग से कार्य कर सकते हैं.
यहीं पर मिलिट्री की विभिन्न शाखाओं के बीच एकजुटता को बढ़ाने और उभरती हुई चुनौतियों को लेकर जागरूक एवं एक ज़्यादा परिपक्व सैन्य नेतृत्व को विकसित करने के लिए मिलिट्री एजुकेशन, क्रॉस-पोस्टिंग और नागरिक-सैन्य संपर्क की भूमिका सामने आती है. मिलिट्री इनोवेशन और टेक्नोलॉजी हस्तांतरण पर कई अकादमिक अध्ययनों ने इस तथ्य पर ज़ोर दिया है कि चयनित अधिकारियों के लिए उनके पेशेवर कौशल, इनोवेशन के प्रति उनकी इच्छाशक्ति या तक़नीकी दक्षता के आधार पर सैन्य नवाचार की संस्कृति को विकसित करने के आधार पर अलग-अलग रास्ते बनाने की आवश्यकता है. ज़ाहिर है कि इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि प्रौद्योगिकियों और सैद्धांतिक परिवर्तनों को बढ़ाया जाए और अत्याधुनिक तक़नीक उपलब्ध कराई जाए. [36] सक्षम अधिकारियों को उनके पद के मुताबिक़ और परिपाटी के अनुसार प्रशिक्षित करने के बजाए, उनके कौशल के आधार पर शुरुआती चरण से ही नेतृत्व द्वारा प्रशिक्षित और तैयार करना होगा.
ख़तरों का जवाब देने का पारंपरिक सैन्य तरीक़ा प्रशिक्षण है, इसमें चुनौतियों का जवाब देने के लिए चरण-दर-चरण तरीक़ों को दोहराया जाता है, जो एक टेम्पलेट का पालन करता है. प्रशिक्षण के इस तरीक़े ने देखा जाए तो 80 के दशक और यहां तक कि 90 के दशक तक काम किया. लेकिन आज के दौर में जब ख़तरे की प्रकृति अनिश्चित है, तो ऐसे में केवल प्रशिक्षण पर निर्भर रहना पर्याप्त नहीं हो सकता है. मिलिट्री एजुकेशन में बड़े बदलाव की ज़रूरत है, यानी इसमें अंतर्निहित मान्यताओं को लेकर सवाल उठाने के साथ ही लॉजिक और रीजनिंग पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है. सैन्य कर्मियों को प्रशिक्षण के दौरान कैसे के बजाए यह बताना जाना चाहिए कि ऐसा क्यों होना चाहिए. क्यों से जुड़े सवाल के जवाब से ही किसी समस्या के लिए नए-नए समाधान विकसित किए जा सकते हैं. बड़े पैमाने पर युद्ध से जुड़े दांव-पेंच का युग अब बीत चुका है और ‘कमांड’ अपने आप में नए युग के प्रौद्योगिकी-संचालित युद्ध के प्रबंधन में बदल गया है. नेतृत्व किस प्रकार से विकसित होना चाहिए? आज के समय के युद्ध का मॉडल आमना-सामना करने (पारंपरिक युद्ध का मॉडल) के बजाए प्रतिस्पर्धा (निर्णायक जीत की अनिश्चितिता) का है.
नए युग के युद्ध का संचालन
स्थान और समय के लिहाज़ से देखा जाए, तो युद्ध अब केंद्रित नहीं रह गए हैं, बल्कि बड़े क्षेत्र में उनका फैलाव हो गया है. कृषि, व्यापार, वित्त और संसाधनों की साझेदारी जैसे क्षेत्र पहले पूरी तरह से नागरिक डोमेन के तहत आते थे, लेकिन अब इन्हें भी हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा है. ज़ाहिर है कि प्रौद्योगिकी को शामिल करने का मतलब है, अधिक से अधिक नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित करना. इसका मतलब है रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) या डायरेक्टरेट जनरल ऑफ क्वालिटी एश्योरेंस (DGQA) जैसी एजेंसियों के साथ संपर्क के मौज़ूदा मॉडल की तुलना में लोगों की संख्या में बढ़ोतरी. टेक्नोलॉजी से सेना के कामकाज में और बदले में, उनके साथ समन्वय करना अधिक मुश्किल कार्य बन जाता है. इसके उदाहरणों पर नज़र डालें, तो इसमें मानव रहित प्रणालियों में डेटा मानकीकरण, साइबर सुरक्षा और स्वायत्तता के मुद्दे शामिल हैं. सूचना के दोबारा वर्गीकरण को प्राथमिकता देने की ज़रूरत है. सभी तीनों सेवाओं में, अधिकांश सूचनाओं को वर्गीकृत किया गया है, जो AI समाधानों हेतु नागरिक स्टार्टअप्स के लिए चुनौतियां पैदा करती हैं, क्योंकि एल्गोरिदम के प्रशिक्षण के लिए रियल टाइम डेटा की आवश्यकता होती है, न कि कृत्रिम रूप से पैदा किए गए डेटा की. उदाहरण के लिए यदि एक निश्चित क्षेत्र के लगातार रीयल-टाइम उपग्रह मानचित्रों के बीच अंतर की पहचान करने के लिए एक निश्चित एआई एल्गोरिदम को सीखने की ज़रूरत है, तो इसे प्रशिक्षण या सिंथेटिक डेटा पर निर्भर रहने के बजाए, रियल टाइम डेटा पर प्रशिक्षित करने की जरूरत होगी.
मौज़ूदा नियम-क़ानून सैन्य और नागरिक डोमेन के बीच सूचना की निर्बाध आवाजाही की अनुमति नहीं देते हैं. भू-स्थानिक इंटेलिजेंस,[37] स्पेस स्टार्टअप्स [38] और ओपन-सोर्स इंटेलिजेंस (OSINT) [39] के प्रसार के निजीकरण के साथ ही इस बात पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है कि किस चीज़ को गोपनीय माना जाए और किसे नहीं. सशस्त्र बलों के भीतर टेक्नोलॉजी के बढ़ते इस्तेमाल के लिए भी उनके और उनके सिविलियन समकक्षों के बीच क़रीबी समन्वय की ज़रूरत है, जैसे कि शिक्षा, थिंक टैंक, उद्योग और अन्य मंत्रालयों के साथ. इससे दोहरा लक्ष्य हासिल होता है, यानी सैन्य और नागरिक क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी का उपयोग करने की लागत में कमी, विशेष रूप से अनमैन्ड सिस्टम, एआई और डेटा प्रबंधन प्रणाली जैसे संभावित दोहरे उद्देश्यों वाली प्रौद्योगिकियों और प्लेटफार्मों के लिए एवं दो क्षेत्रों के बीच समानताओं के बेहतरीन और अधिकतम उपयोग के माध्यम से स्वदेशीकरण का प्रोत्साहन सुनिश्चित करना. उद्योग समूहों और उद्योग संघों की स्थापना उन उदाहरणों में से एक है, जिनके माध्यम से इसे हासिल किया जा सकता है.
रूस-यूक्रेन युद्ध से सबक
रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध हथियारों के प्लेटफॉर्म और तक़नीकों के उपयोग एवं उनके महत्त्व को लेकर कुछ सबक देता है. ये सबक भारतीय संदर्भ में उपयोगी साबित हो सकते हैं, साथ ही ये सबक इस पर बहस की रूपरेखा तैयार करते हैं कि भविष्य के युद्धों के लिए तक़नीक-सक्षम कमांडरों द्वारा इन्हें किस प्रकार से समाहित किया सकता है.
परेशानी से भरे समय का लंबा दौरh
रूस-यूक्रेन संघर्ष ने एक विशेष तरह की दुविधा को सामने लाने का काम किया है, यानी क्या परेशानी वाला कठिन दौर वापस आ गया है या नहीं? दोनों देशों के बीच जारी संघर्ष राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने में पारंपरिक युद्ध की अनुपयोगिता को प्रदर्शित करता है. पश्चिम के नज़रिए से देखा जाए, तो छोटी यूनिट की रणनीति, हाई-टेक्नोलॉजी और रक्षात्मक हथियार जैसे कि एंटी-टैंक गाइडेड मिसाइल (ATGMs) ने सशक्त रूसी सेना के विरुद्ध एक प्रभावी यूक्रेनी लड़ाई की अगुवाई की है.[40] इन सभी हथियारों और प्रौद्योगियों को इंटेलीजेंस, सर्विलांस, टारगेट एक्विजिशन एंड रिकोन्नैसैन्स (ISTAR) यानी खुफिया, निगरानी, लक्ष्य प्राप्ति और टोही जैसे कि UAVs, स्टारलिंक [41] जैसे निजी उपग्रह समूह और पलान्टिर [42] एवं क्लियरव्यू [43] जैसी कंपनियों के AI टूल्स के उपयोग के उभरते रूपों द्वारा जोड़ा गया है.
हालांकि, लड़ाई के दूसरे चरण में यानी 2023 के वसंत में एक संभावित यूक्रेनी आक्रमण के लिए टैंक जैसे आक्रामक हथियारों के उपयोग की ज़रूरत है, जो कि NATO के भीतर और अमेरिका के साथ मतभेद की एक प्रमुख वजह है.[44] इसके अलावा, रूस द्वारा यूक्रेन के नागरिक और दूरसंचार इन्फ्रास्ट्रक्चर को निशाना बनाने के लिए बड़ी संख्या में ड्रोन के समूहों का उपयोग किए जाने की सूचना है. [45] रूस के इस ड्रोन हमले का उद्देश्य नागरिकों के मनोबल को तोड़ना है और यूक्रेनियों द्वारा IW के इस्तेमाल को रोकना है. रूस और यूक्रेन के बीच का यह संघर्ष एक बार फिर से साबित करता है कि सेना और नागरिक के बीच की रेखा मिट गई है और प्रौद्योगिकी दोनों के बीच सेतु बनी हुई है.
नागरिक के समूह की आवश्यकता
नागरिकों की कुछ टीमों को रियल टाइम में उनके प्रोटोटाइप के परीक्षण के लिए प्रमुख संरचनाओं के साथ जोड़ा जा सकता है, जैसा कि बेराकटार मॉडल में होता है.[46] सैनिकों और नागरिक विशेषज्ञों के बीच ज़रूरी स्तर के सामरिक समन्वय के लिए शिक्षित और तक़नीकी रूप से कुशल जवानों की आवश्यकता होती है. भविष्य के युद्ध लड़ने के लिए सैनिकों का चयन करके, विशेष रूप से अग्निवीर योजना के आलोक में, जो देश को तक़नीकी रूप से कुशल सेना बनाने के लिए जीवन में एक बार अवसर प्रदान करती है, तक़नीक रूप से दक्ष सैन्य कमांडर्स इसका मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं.
‘विवादास्पद समानताएं’
रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध को ‘विवादास्पद समानता’ भी कहा जा सकता है, जिसमें रूस की सशस्त्र सेनाएं यूक्रेन को माध्यम बनाकर NATO के साथ मुक़ाबला कर रही हैं. पश्चिम की अधिकांश सेनाओं ने, अपने फुल्दा गैप मोमेंट [h] के बाद मानसिक रूप से भीषण युद्ध के लिए खुद को पारंपरिक और गैर-परंपरागत रूप से तैयार किया है.[47] यूक्रेनी युद्ध मैदान ने रूसी सेना को विभिन्न क्षमताओं और प्लेटफार्मों के साथ अमेरिकी और पश्चिमी यूरोप की औद्योगिक क्षमता के सीधे विरोध में खड़ा कर दिया है. यूक्रेनी सैनिकों को रूस के विरोधी देशों यानी पूर्वी यूरोपीय देशों से तमाम तरह के अत्याधुनिक हथियार मिल रहे हैं, लेकिन उन्हें इन विभिन्न प्रकार के हथियारों जैसे की जर्मनी के आर्मर्ड पर्सनल कैरियर, अमेरिकी ड्रोन और फ्रांसीसी आर्टिलरी गन्स को संचालित करने में काफ़ी मशक्कत करनी पड़ती है.
सैन्य नेतृत्व का लिटमस टेस्ट यानी उसकी कुशलता और क्षमता सर्वोत्तम फोर्स स्ट्रक्चर को लेकर निर्णय लेने और उसका गठन करने में निहित है, जो यह सुनिश्चित करती है कि सशस्त्र बल राष्ट्रीय हितों को हासिल करने के लिए न केवल प्रभावी उपकरण बने रहें, बल्कि एक निरंतर समय अवधि के लिए प्रभावी ढंग से कार्य कर सकते हैं.
युद्ध के समय अलग-अलग टेक्नोलॉजियों के साथ एक कॉमन कमांड और कंट्रोल सिस्टम के अंतर्गत विभिन्न प्रणालियों को शामिल करने की ज़रूरत होती है और उसके लिए जूनियर स्तर पर लचीलेपन की आवश्यकता होती है. इतना ही नहीं इसके लिए व्यापक स्तर पर ऑपरेशनल मार्गदर्शन और राजनीतिक एवं रणनीतिक स्तर पर मानकीकरण मानदंडों की भी ज़रूरत होती है. इसका अर्थ यह है कि आज टेक्नो-लीडरशिप की आवश्यकता बहुत बढ़ गई है. जैसा कि भारतीय सशस्त्र बलों ने प्लेटफार्मों और प्रौद्योगिकियों के मामले में अपनी क्षमता को बढ़ाया है, ऐसे में भारतीय सेना के शीर्ष अधिकारियों को कुछ बुनियादी मुद्दों पर ध्यान देने की ज़रूरत है, जैसे कि योग्य भागीदारों के साथ मिलकर उभरती प्रौद्योगिकियों के लिए सभी सेवाओं हेतु मानकीकरण मेट्रिक्स जारी करना, चयनित तक़नीकों के लिए नागरिक-सैन्य एकीकरण सुनिश्चित करना ताकि कंपनियां इसको लेकर अच्छी तरह से प्रयोग कर सकें और सफलता-विफलता के दौर से तेज़ी से आगे बढ़कर आख़िर में सफलता हासिल कर सकें, इसके अलावा और अपेक्षाकृत मॉड्यूलर और लचीले संगठन बनाना.
विघटनकारी टेक्नोलॉजी का प्रभावी उपयोगh
पारंपरिक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली विघटनकारी तक़नीक गड़बड़ी फैलाने या कुशलता से काम करने में नाकाम रहती है. प्रौद्योगिकियों का उद्देश्य समानता लाना है, यानी साइलो या गतिरोधों को समाप्त करना और रैंकिंग को खत्म करना है. तक़नीकों का समान पटल पर उपयोग करने से वे बेअसर हो जाती हैं. इस कठिनाई को दूर करने के लिए टेक्नोलॉजी में सक्षम कमांडरों को प्रौद्योगिकियों की बारीक़ियों को विस्तार से समझना चाहिए ताकि इसके नए-नए प्रयोग किए जा सकें. इसके लिए एक तरीक़ा शिक्षाविदों और थिंक टैंकों के साथ नियमित संपर्क है. इसके साथ ही जूनियर अधिकारियों के इनोवेशन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस प्रोडक्शन (DDP) द्वारा iDEX4Fauji [48] जैसी पहलों को और अधिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए. इन सैनिकों को सरकारी संस्थानों और स्टार्टअप्स की प्रयोगशालाएं उपलब्ध कराई जा सकती हैं ताकि वे अपने विचारों को विकसित कर सकें और यदि उनके विचार व्यवहारिक हों तो उसे और आगे बढ़ाने के लिए हर प्रकार का संभावित समर्थन दिया जाए. टेक्नो-कमांडर इस परिवर्तन की सुविधाजनक बना सकते हैं.
युद्ध और राजनीति
वांछित राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने के मामले में युद्ध और राजनीति के बीच संबंध आज उतना दृढ़ नहीं है, जितना कि द्वितीय विश्व युद्ध से पहले हुआ करता था. परमाणु हथियारों के आगमन ने किसी देश के सभी उपकरणों को कवर करने के लिए तीव्रता और युद्ध की पहुंच बढ़ाने के लिए छद्म युद्धों, सूचना युद्ध और सटीक हथियारों के उपयोग की अगुवाई की है. फायर और कार्पेट बमबारी की मानसिकता, जिसमें नागरिक आबादी को आसान शिकार माना जाता था, उसे युद्ध के उभरते क्षेत्रों तक बढ़ाया गया था. इसका मतलब था कि अधिक से अधिक क्षेत्र हथियार के तौर पर इस्तेमाल किए जाने लगे.
आज सशस्त्र बलों में तक़नीकी रूप से सक्षम कमांडरों की आवश्यकता है. यानी ऐसे कमांडर या अधिकारी जो बदले हुए वातावरण, गैर-सैन्य क्षेत्रों या सिविलियन डोमेन में युद्ध के विस्तार, डिजिटल प्रौद्योगिकियों की प्रकृति एवं निहितार्थों को अच्छी तरह से समझने वाले हों.
आज जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह उसी रणनीतिक वास्तविकता से उपजा हुआ है. युद्ध के बारे में कोई चाहे जो कुछ कहे, लेकिन युद्ध में पूरी तरह से जीत संभव नहीं है. देखा जाए तो रूस-यूक्रेन युद्ध में क्या हो रहा है, इसमें जो भी किरदार हैं वे काइनेटिक और नॉन-काइनेटिक दोनों प्रकार के टूल्स का उपयोग करते हुए तीव्र संघर्षों के छोटे-छोटे झटकों के माध्यम से एक दूसरे पर हावी होने की कोशिश करते हैं. जो पक्ष हारता है, वह अपने भागीदारों और अपनी क्षमताओं दोनों की तलाश करता है और अपने नुकसान की भरपाई के लिए अगले दौर के युद्ध की तैयारी में पूरी ताक़त के साथ जुट जाता है. वास्तव में इस युद्ध में पारंपरिक हथियार प्लेटफार्मों की प्रमुखता ने एक देश के राजनीतिक-सैन्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक प्रभावी उपकरण के रूप में पारंपरिक युद्ध की अनुपयोगिता को रेखांकित किया है. आज हम जो देखते हैं वह सर्वव्यापी प्रतिस्पर्धा का युग है. तक़नीक तौर पर दक्ष कमांडरों को इस नई वास्तविकता को समझने और यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि प्रासंगिक क्षमताओं का निर्माण, विस्तार और प्रतिस्पर्धा को तेज़ी से छोटे विस्फोटों में उपयोग किया जाता है.
एक मॉडल है: लीडरशिप 1.0 (एक तरफा कमांड, लाउडस्पीकर-स्टाइल की लीडरशिप, लाइट ब्रिगेड का चार्ज) -> लीडरशिप 2.0 (दो तरफा चर्चा, मतभेद, असहमति) -> लीडरशिप 3.0 (युद्ध का प्रबंधन, नए दौर के सैनिकों और टेक्नोलॉजी का प्रबंधन)
भविष्य में चुनौतियां असामान्य होने वाली हैं. सेना के वरिष्ठ जनरलों को यह समझने और स्वीकार करने की आवश्यकता है कि वे उभरती चुनौतियों, नई तक़नीकों और नए विरोधियों के बारे में सक्षम या जागरूक नहीं हो सकते हैं. उन्हें अपने जूनियर अधिकारियों और नागरिकों समेत दूसरों की विशेषज्ञता को समझने, उसका सम्मान करने और उसे आत्मसात करने की आवश्यकता है. अब पुराने जमाने के नहीं, बल्कि विभिन्न आवश्यकताओं के साथ 24/7 चलने वाले ऑपरेशन्स होंगे. स्मार्टफोन की सर्वव्यापकता और ‘ PubG सिंड्रोम’ [i] से जूनियर नेतृत्व पर प्रभाव पड़ने की संभावना है और तक़नीक-सक्षम कमांडरों को प्रौद्योगिकी की चुनौतियों का सामना करने के लिए, एवं इनकी धार को कुंद करने के लिए मुस्तैद रहने की आवश्यकता है.
निष्कर्ष
आज की सैन्य रणनीतियों को राजनीति के मुताबिक़ संचालित करने हेतु एक अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए डिज़ाइन किया गया है. पहले के समय के विपरीत, एक ‘रणनीतिक ठहराव’ सबसे अच्छा है, जिसे हासिल किया जा सकता है, जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी पहले ईरान और फिर तालिबान के विरुद्ध इसे सीखा है. इसलिए, भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान को उभरती हुई तक़नीकों का उपयोग करने और उनका लाभ उठाने की ज़रूरत है ताकि विरोधी रैंकों में संज्ञानात्मक मतभेद पैदा किए जा सकें। इसके साथ ही जब इनको लक्षित किया जा रहा है, तब इन्हें रक्षात्मक उपाय करने और परिस्थिति के मुताबिक़ पर्याप्त जागरूकता पैदा करने की भी ज़रूरत है.
सशत्र बलों के भीतर पदानुक्रमित मॉडलों को बदलने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, जो कि युद्ध की स्पीड के मुताबिक़ तीव्र और निर्णायक कार्रवाइयों में अवरोध पैदा करने का काम करते हैं. OODA लूप को फिर से विशिष्ट कार्यों के लिए उसके अनुरूप बनाने की आवश्यकता है. इसके साथ ही प्रोफेशनल मिलिट्री एजुकेशन (PME) की एक नई प्रणाली, जो कि स्वायत्त निर्णय लेने पर ज़ोर देती है, उसे भी विकसित करने की ज़रूरत है. आज के समय की एक तत्काल आवश्यकता यह है कि भारतीय सशस्त्र बलों में तक़नीकी के साथ ही प्रणालीगत, सांस्कृतिक और संगठनात्मक परिवर्तनों को अमल में लाया जाए, ताकि लगातार प्रतिस्पर्धा के इस दौर में वे अपनी दक्षता को बरक़रार रख सकें. आज सशस्त्र बलों में तक़नीकी रूप से सक्षम कमांडरों की आवश्यकता है. यानी ऐसे कमांडर या अधिकारी जो बदले हुए वातावरण, गैर-सैन्य क्षेत्रों या सिविलियन डोमेन में युद्ध के विस्तार, डिजिटल प्रौद्योगिकियों की प्रकृति एवं निहितार्थों को अच्छी तरह से समझने वाले हों. साथ ही ऐसे अधिकारियों की आवश्यकता है, जो विरोधी पक्ष में न सिर्फ़ असहमति और असंतोष को बढ़ावा देने में सक्षम हों, बल्कि उसे पैदा करने वाले भी हों. ज़ाहिर है कि ऐसे सैन्य कमांडरों की ज़रूरत को इस शिद्दत के साथ पहले कभी भी महसूस नहीं किया गया है.
- लेफ्टिनेंट कर्नल अक्षत उपाध्याय एक सेवारत सैन्य अधिकारी हैं. वह Coercive Diplomacy Against Pakistan (2018) के लेखक हैं और MP-IDSA में रिसर्च फेलो हैं.
फुटनोट
[a] अमेरिका के विरुद्ध 11 सितंबर 2001 के हमलों के बाद ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम (OEF) शुरू किया गया था. यह नाम अफ़ग़ानिस्तान (2001-2021) और आतंकवाद (2001-2013) को लेकर चलाए गए व्यापक वैश्विक युद्ध, यानी दोनों ऑपरेशन्स के लिए दिया गया था, हालांकि कुछ सुरक्षा विशेषज्ञों का तर्क है कि यह ऑपरेशन अभी भी चल रहा है. ऑपरेशन इराक़ी फ्रीडम (OIF) (2003-2011) सद्दाम हुसैन के शासन के ख़िलाफ़ अमेरिकी सेना द्वारा सामूहिक विनाश के हथियार रखने के आरोप में एक पारंपरिक युद्ध अभियान के रूप में शुरू किया गया था, लेकिन बाद में सद्दाम हुसैन के पतन के बाद इसे एक आतंकवाद विरोधी अभियान में बदल दिया गया था. अर्मेनियाई-अज़रबैजान युद्ध नागोर्नो-काराबाख के विवादित क्षेत्र पर दोनों देशों के सशस्त्र बलों द्वारा लड़ा गया था और यह मई 2021 में शुरू हुआ था. [b] साइबर हमले दोनों के लिए सामान्य हैं क्योंकि वे भौतिक और आभासी दोनों डोमेन को प्रभावित कर सकते हैं. [c] ये एक प्रकार से युद्ध की तरह का ऑपरेशन या राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए युद्ध की पारंपरिक परिभाषा के मुताबिक़ किया गया ऑपरेशन है. [d] भौतिक, संज्ञानात्मक और सूचनात्मक डोमेन में ऑपरेशन्स का संचालन करना. [e] एक रूसी-मूल की रणनीति, जो गैर-सैन्य सहित देश की व्यवस्था के अंतर्गत सभी प्रतिरोधी उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए समग्र रूप से युद्ध संचालित करती है. [f] कॉन्ट्रास वर्ष 1979 से 1990 तक सक्रिय निकारागुआ में दक्षिणपंथी विद्रोही समूहों का एक कलेक्शन था, जिन्हें निकारागुआ में सैंडिनिस्टा जुंटा का मुक़ाबला करने के लिए अमेरिका द्वारा समर्थन दिया गया था और आपूर्ति की गई थी. बे ऑफ पिग्स आक्रमण अमेरिका द्वारा समर्थित अर्धसैनिक बलों द्वारा क्यूबा पर एक असफल सैन्य ज़मीनी हमला था, जिसका मकसद फिदेल कास्त्रो के शासन को उखाड़ फेंकना था. [g] ‘कलर रिवोल्यूशन’ शब्द का उपयोग मीडिया द्वारा वर्ष 2004 से पोस्ट-सोवियत यूरेशिया और बाद में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में शासन विरोधी आंदोलनों की एक श्रृंखला का वर्णन करने के लिए किया गया. जैस्मीन रिवोल्यूशन बढ़ती मुद्रास्फ़ीति, बेरोज़गारी, बोलने की आज़ादी और रहन-सहन की प्रतिकूल परिस्थितियों के जवाब में कई अरब देशों में युवाओं द्वारा किया गया एक बेहद लोकप्रिय विद्रोह था. यह ट्यूनीशिया में शुरू हुआ और बाद में मिस्र, यमन और सऊदी अरब सहित अन्य देशों में फैल गया. [h] फुल्दा गैप मोमेंट एक माइंडसेट है, जो तत्कालीन सोवियत संघ के साथ पारंपरिक युद्ध के लिए शीत युद्ध के दौरान NATO द्वारा लागू की गई योजनाओं का प्रतीक है. फुल्दा गैप ने पूर्व-पश्चिम जर्मन सीमा से राइन नदी के बीच सबसे छोटे मार्ग का प्रतिनिधित्व किया, जहां दोनों ब्लॉक्स के अधिकतम सैन्य बल केंद्रित थे. [i] ‘PuBG सिंड्रोम’ वीडियो गेम्स की बढ़ती लत का एक बेहद विशिष्ट रूप है, जो खिलाड़ियों को वास्तविक जीवन से अलग करने का ख़तरा पैदा करता है और उनकी संज्ञानात्मक, सामाजिक और बौद्धिक क्षमताओं पर प्रतिकूल असर डालता है. 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