Home गेस्ट ब्लॉग न्यायपालिका की देख-रेख में आदिवासियों के साथ हो रहा अन्याय

न्यायपालिका की देख-रेख में आदिवासियों के साथ हो रहा अन्याय

8 second read
0
0
884

[भारतीय दलाल राजसत्ता किसी भी पूर्ववर्ती शासक की तुलना में कहीं ज्यादा बर्बर है. इसकी बर्बरता किसी मध्ययुगीन शासक की याद दिलाती है, जो अपने विरोधियों या विद्रोहियों को बर्बर तरीकों से मौत के घाट उतारा करता था, ताकि लोगों के बीच उसका आतंक बना रहे और वह आसानी के साथ उसका शोषक करता रहे. मध्ययुगीन शासक इस बर्बरता को जहां खुलकर अंजाम देता था, वहींं भारतीय दलाल राजसत्ता लोकतंत्र और न्यायपालिका का ढ़ोंग करते हुए इस बर्बरता को अमलीजामा पहनाता है. 

आदिवासियों ने जब अपनी बुनियादी सुविधाओं की मांग और शोषण के विरुद्ध सवाल खड़ा करना शुरू किया तो एक ओर उन पर गोलियां चलाकर बर्बर दमनचक्र चलाया जा रहा है तो दूसरी तरफ उनके मनोबल को तोड़ने के लिए न्यायपालिका का इस्तेमाल किया जा रहा है. कमल शुक्ला द्वारा प्रस्तुत आलेख आदिवासी समुदाय पर न्यायपालिका की आड़ में किये जा रहे बर्बरता को बखूबी उजागर किया है.]

न्यायपालिका की देख-रेख में आदिवासियों के साथ हो रहा अन्याय

इस लेख में प्रस्तुत आंकड़ें “लीगल एड” संस्था के शोध के आधार पर 2012 की स्थिति के आंकड़ेंं है. नक्सली उन्मूलन अभियान व नक्सली नेटवर्क के नाम पर 2013 के बाद गिरफ्तारियो की संख्या में बाढ़ आ गई है. 1 मार्च से 15 अप्रैल के मध्य अकेले कांकेर जेल में 97 आदिवासियो को ठुंंसा गया. क्षमता से आधिक बंदी जेल में आने के कारण होने वाली अव्यवस्था के सबंध में कांकेर के जेलर द्वारा उच्च अधिकारियों को शिकायत भी किये जाने की खबर है. वहीं कांकेर जिला अस्पताल में खुजली, उलटी-दस्त जैसी संक्रामक बीमारियों के शिकार हो कर भारी संख्या में बंदियों की भर्ती होने की भी खबर है. शिवराम प्रसाद कल्लूरी के बस्तर आईजी बनने के बाद नक्सलियों के खिलाफ चलाए जा रहे “माइंड गेम” के तहत मात्र तीन माह के भीतर आत्मसमर्पित कथित नक्सलियों की सूची तीन सौ के संख्या को पार कर चूका है, वही भारी संख्या में कथित मुठभेड़ व गिरफ्तारियां भी जारी है.

अंदरुनी क्षेत्रोंं से लौटे कई पत्रकार साथियों ने अपुष्ट सूत्रों से खुलासा किया है कि आत्मसमर्पण की व्यूह रचना सोची समझी साजिश के तहत सरपंच, पटेल और ग्राम प्रमुखों पर दबाव डालकर की जा रही है. पता चला है कि वर्षों पुराने बनाये गए फर्जी मामलों के वारंटियो की सूची ग्राम प्रमुखों को देकर पुलिस उन पर दबाव बनाती है कि वे उन्हें थाने में हाजिर करें.  इन लोग को कभी मालूम भी नहीं होता कि इनके खिलाफ थाने में कभी अपराध दर्ज था. सामान्य रूप से जीवन-यापन कर रहे इन ग्रामीणों की आवा-जाही पुलिस थाने तक भी रही है. अपने बीच के ही ग्रामीण को हार्डकोर या इनामी नक्सली के रूप में पुलिस वालो के साथ फोटो देखकर ग्रामीण सन्न हैंं.

कल्लुरी के आने के बाद ही नई नीति के तहत पुलिस अब गिरफ्तार और आत्मसमर्पित नक्सलियों को चेहरा ढ़क कर मीडिया के सामने प्रस्तुत कर रही है जिसके लिये भारी मात्रा में कपड़ोंं की भी खरीदी हुई है. मजेदार बात तो यह है कि इनके नाम-पते सहित और अपराध विवरण के साथ मीडिया के सामने अपनी बहादुरी का ढिंढोरा पीटने वाली पुलिस इन्हींं आत्मसमर्पित नक्सलियों की विधिवत जानकारी सूचना के आधिकार के तहत देने को तैयार नहीं है. आत्मसमर्पित नक्सलियों को मिलने वाले रकम व सुविधा को लेकर गोपनियता का अधिकार के तहत पुलिस विभाग द्वारा भारी गोल माल किये जाने के संदेह को बल मिल रहा है. इस सम्बन्ध में समाचार श्रोत व आत्मसमर्पित आदिवासियों का उल्लेख करना उनकी जान-माल की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए उचित नहीं होगा, निरपेक्ष जांंच से बड़े घोटाला उजागर होने की संभावना है ( सम्पादक – भूमकाल समाचार).

बस्तर संभाग में सात ज़िले हैं – बस्तर, कांकेर, कोंडागांंव, नारायणपुर, दंतेवाड़ा, सुकमा और बीजापुर. आज की तिथि में यहांं तीन जेल चालू हैं – कांकेर ज़िला जेल, दंतेवाड़ा ज़िला जेल और जगदलपुर केंद्रीय जेल, और दो उपजेलों में जो सुकमा और नारायणपुर में स्थित हैं, कैदियों की जगह सुरक्षाबलों को ठहराया जा रहा है.

भारतवर्ष के जेलों में अतिसंकलन की समस्या (क्षमता से अधिक लोगों की संख्या) आम है, और सब राज्यों से ज़्यादा छत्तीसगढ़ राज्य में यह समस्या गंभीर है. विगत 5 वर्षों में छत्तीसगढ़ राष्ट्र में एकमात्र ऐसा राज्य है जिसके जेलों में क्षमता से दुगुने से भी अधिक कैदी रह रहे हैं. छत्तीसगढ़ राज्य में भी बस्तर संभाग के जेलों में अतिसंकलन ज़्यादा है. 2012 के जेलों में अतिसंकलन के आंकड़े निम्न हैं.

जेलों की क्षमता बंदियों की सेख्या अतिसंकलन
भारत 3,43,169 3,85,135 112%
छत्तीसगढ़ राज्य 5,850 14,780 253%
कांकेर ज़िला जेल 65 278 428%
दंतेवाड़ा ज़िला जेल 150 613 409%
जगदलपुर केंद्रीय जेल 629 1,607 255%

बस्तर संभाग के तीन जेलों में कुल 74 % विचाराधीन बंदी हैं – जिनका प्रकरण न्यायालय के समक्ष लम्बित है – और अन्य 26% दंडित बंदी हैं. कांकेर और दंतेवाड़ा के जेलों में, जहाँ अतिसंकलन की समस्या सबसे अधिक गम्भीर है, वहाँ 97% और 99% विचाराधीन बंदी हैं.  अतः क्षमता से चार गुणा अधिक बंदियों के रहने के कारण जो गंदगी और बिमारियां होती हैं, उनका भार विशेषरूप से विचाराधीन बंदी ही उठा रहे हैं.

जेलों में अतिसंकलन के दो मुख्य कारण हो सकते हैं – या तो बस्तर के जेलों की क्षमता राष्ट्र के अन्य जेलों से कम है, और या यहांं पर कैदियों की संख्या देश के अन्य क्षेत्रों से अधिक है. अगर जनसंख्या के आधार पर देखा जाये, तो भारत में प्रत्येक 10,000 वासियों में 3.13 जेल में परिरुद्ध हैं, जबकि बस्तर में प्रत्येक 10,000 वासियों में 8.08 व्यक्ति जेल में हैं. जनसंख्या के आधार पर भारत के अन्य क्षेत्रों और बस्तर के जेलों की क्षमता में कोई विशेष अंतर नहीं है.

बस्तर में इतने विचाराधीन बंदी क्यों हैं ? इस का एक मुख्य कारण यह है कि यहांं विचाराधीन बंदियों को भारत के अन्य क्षेत्रों की तुलना में जेल में लम्बी अवधि तक रखा जाता है. जहांं भारतवर्ष में 77% विचाराधीन बंदी एक वर्ष से कम समय के लिये जेल में रहते हैं, वहीं जगदलपुर जेल में केवल 33% विचाराधीन बंदी एक वर्ष से कम समय में निकलते हैं, और शेष विचाराधीन कैदी कई वर्षों के बाद ही निकल पाते हैं.

जेल में लम्बी अवधि के लिये परिरुद्ध होने के दो मुख्य कारण हैं – एक तो यहांं के बंदियों को ज़मानत का लाभ बहुत कम मिलता है, और दूसरा, यहांं के प्रकरण बहुत लम्बे चलते हैं, जिसके दौरान आरोपी जेल में ही परिरुद्ध रहते हैं.

भारतवर्ष के जेलों में जब एक बंदी दोषमुक्त पाया जाता है, उस दौरान 16.6 बंदियों को ज़मानत पर छोड़ा जाता है, परन्तु दंतेवाड़ा के जेल में प्रत्येक दोषमुक्त बंदी के लिये केवल 0.87 बंदियों को ज़मानत पर रिहा किया जाता है.

विचाराधीन बंदियों की रिहाई (2012)

दोषमुक्ति होने पर ज़मानत मिलने पर (गुणा)
भारत 76,083 12,65,500 16.6
छत्तीसगढ़ 3,963 31,973 8.0
दंतेवाड़ा ज़िला जेल 200 174 0.87

बस्तर के अधिकतर आदिवासी विचाराधीन बंदी बहुत संगीन अपराधों में आरोपी हैं, कईयों पर नक्सली मामले चल रहे हैं, इसलिये इनको ज़मानत मिलने में कठिनाई होती है. जहांं भारतवर्ष के जेलों में 41% विचाराधीन बंदियों पर हत्या या हत्या के प्रयास का आरोप है, वहीं दंतेवाड़ा के जेल में 74% बंदियों पर ये गम्भीर आरोप हैं. अगर ज़मानत का आदेश किसी प्रकरण में न्यायालय से मिल भी जाता है, तो भी अनेकों बार वह आदिवासी बंदी अपनी निर्धनता के कारण उचित प्रतिभूतियांं प्रस्तुत करने में असमर्थ होता है और आदेश का लाभ नहीं उठा सकता.

दंतेवाड़ा सत्र न्यायालय से सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी से स्पष्ट होता है कि आपराधिक मामलों के सत्र प्रकरणों की अवधि बढ़ती जा रही है. सन् 2005 में जितने भी ऐसे मामले निराकृत हुए, वे सब 3 वर्ष से कम अवधि के लिये चले, परन्तु सन् 2012 में निराकृत होने वाले प्रकरणों में 23%(41) ऐसे प्रकरण थे जो 3 वर्ष से अधिक समय के लिये चले.

प्रकरणों की अवधि

सन् 2012 में कुल 15 ऐसे भी प्रकरण निराकृत हुए जो 5 वर्ष से भी अधिक चले. यह ज्ञात हो कि गिरफ्तार होने के बाद प्रकरण को प्रारम्भ होने में 6 महीने से 2 साल लग सकते हैं.

ज़मानत के अभाव में, गिरफ्तारी से लेकर प्रकरण के निराकरण तक विचाराधीन बंदी जेल की चारदीवारी में ही बंद रहता है. बस्तर क्षेत्र में ऐसे कई साल लग जाते हैं. उसके बाद जब निराकरण होता है, तब अधिकांश प्रकरणों में आरोपियों को पूर्ण रूप से दोषमुक्त पाया जाता है. दंतेवाड़ा में हर वर्ष 91% से 99% प्रकरणों में पूर्ण दोषमुक्ति होती है – तुलना में भारत की दोषमुक्ति का दर केवल 58% है.

उपरोक्त आंकड़ों से स्पष्ट है कि बस्तर के जेलों में अधिक संख्या में निर्दोष और निर्धन आदिवासियों को ही रखा जा रहा है. उनको बडे-बड़े मामलों में आरोपी बनाया जाता है, जिस कारण निर्दोष होने पर भी उन्हें ज़मानत का लाभ नहीं मिलता. उनका प्रकरण बहुत सालों तक चलता है और वे सालों साल अतिसंकुलित, अस्वच्छ, रोग्यपूर्ण परिस्थितियों में रहते हैं, पर अंत में वे दोषमुक्त ही पाए जाते हैं लेकिन इन हालातों में इनका स्वास्थ्य नष्ट हो चुका होता है, और इनके परिवार दर-दर भटककर और वकीलों की भारी-भारी फ़ीस चुका कर और भी निर्धन हो चुके होते हैं. इस तरह न्यायपालिका की देख-रेख में ही य़हांं के आदिवासी समाज के साथ एक बड़े स्तर पर अन्याय हो रहा है.

– भूमकाल समाचार से, कमल शुक्ला द्वारा 25th September, 2014 के पोस्ट से सभार.

Read Also –

महाराष्ट्र गढ़चिरौली में मारे गए संदिग्ध विद्रोहियों से सहानुभूति ?
क्रूर शासकीय हिंसा और बर्बरता पर माओवादियों का सवाल
आदिवासियों के साथ जुल्म की इंतहां आखिर कब तक?

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिय…