Home लघुकथा दलित मालिक, सवर्ण रसोईया

दलित मालिक, सवर्ण रसोईया

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दलित जाति के एक युवक की नौकरी लग गई. कुछ दिन तो वो युवक अपने गांव आता जाता रहा. शादी ब्याह होने के बाद वो अपने नौकरी वाले शहर में ही व्यस्त हो गया. धीरे-धीरे उसका गांव आना जाना बिल्कुल छुट गया.

उधर नौकरी मे तरक्की भी हुई और बाल बच्चे भी अच्छे स्कुल कालेज में पढ़ने लगे. गांव मे सिर्फ बुजुर्ग पिता जी बचे थे, जिनकी जिंदगी किसी तरह गुजर रही थी.

युवक अब उम्रदराज हो ही चुका था. गांव दूसरी तीसरी जेनेरेशन से अब आबाद था. गांव के नए उम्र के लोग अब उसे पहचानते भी नहीं थे और न वो आदमी गांव के लोगों को पहचानता था.

इसी गांव का एक उच्च जाति का आदमी काम करने इस शहर में आता है. शहर में मजदूरी का काम करता है. इस बीच उसकी मजदूरी का काम छूट जाता है. वह काम की तलाश में इधर-उधर भटकता है.

काफी भटकने के बाद उसे एक जगह पर खाना बनाने का काम मिल जाता है. किस्मत से वही घर खाना बनाने को मिलता है जो कि पहले उसी के गांव से शहर में आया है. खाना बनाने का काम रसोइया के रूप में शुरू कर देता है. दो-तीन साल से वही उनका मुख्य रसोइया था.

इधर गांव से कुछ लोगों ने उस नौकरी पेशा व्यक्ति के पास फोन किया कि पिताजी ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहेंगे. बेड पर पड़ गए हैं.आकर उनको ले जाओ. कुछ दिन सेवा भाव कर लो.

नहीं चाहते हुए भी गांव के प्रेशर में वो आदमी अपने पिताजी को अपने घर में ले गया. पिताजी रसोईया को देखते ही पहचान जाते हैं. रसोइया भी तुरन्त पहचान जाता है. जब तक कि कुछ बातचीत होती, रसोइया घर से बाहर निकल जाता है.

जाते समय मालिक से बहाना बनाता है कि अभी-अभी मेरे घर से फोन आया है मेरे पिताजी की तबीयत खराब है. मैं घर जा रहा हूं.

  • अखिलेश प्रसाद

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