विष्णु नागर
भारतीय जनता पार्टी और अन्य राजनीतिक दलों में अंतर यह है कि बाकी दल कोरे राजनीतिक दल हैं और उनमें से अधिकांश की कोई दीर्घकालिक राजनीतिक-सामाजिक और सांस्कृतिक नीति नहीं है. इसके विपरीत भाजपा संघ परिवार की एक राजनीतिक शाखा है, जिसका एक निश्चित विध्वंसकारी एजेंडा है, जबकि कांग्रेस आदि दलों का अपना कोई स्थायी लक्ष्य, स्थायी धर्मनिरपेक्ष एजेंडा
तक नहीं है. उनका एजेंडा चुनाव से चुनाव तक है, जबकि भाजपा का प्राथमिक एजेंडा यह होते हुए भी उसके अलावा भी उसका अपना स्थायी एजेंडा है, जिसका सार मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना है बल्कि उनके नागरिक अधिकार छीनना है.
दूसरे दलों के विपरीत संघ परिवार शासित भाजपा सत्ता पाकर संतुष्ट नहीं हो जाती, वह अपने झूठ और नफरत के एजेंडे पर और तेजी से चलने बल्कि दौड़ने लगती है. अन्य दलों के साथ कोई ऐसा संगठन नहीं है, जो जीवन के लगभग हर क्षेत्र को छूता है, इसलिए भाजपा से लड़ाई हमेशा अधूरी रहेगी. वह कोरी राजनीतिक सत्ता के फौरी लक्ष्य से बहुत आगे नहीं बढ़ पाएगी. ये दल सत्ता पाते और खोते रहेंगे. इससे आगे कुछ नहीं कर पाएंगे.
भाजपा विरोधी विचारधारा के दलों के पक्ष में एक ही चीज है कि वे मिली-जुली भारतीय संस्कृति की स्वाभाविक धारा के साथ हैं, जबकि ये हिंदू संस्कृति के नाम पर उस संस्कृति को नष्ट करने के मिशन पर अग्रसर हैं, इस कारण अंतिम रूप से इनकी हार निश्चित है मगर उसके लिए लंबी तैयारी चाहिए, जो कहीं दिखती नहीं. कभी वामपंथी दलों में यह क्षमता थी मगर वे बिखरती-शक्तिहीन होती चली गईं. फिर भी संघ परिवार अगर किसी विचारधारा से सबसे अधिक खौफ खाता है तो वह वामपंथी विचारधारा है. हम इनके खौफ को इसी से समझ सकते हैं कि ये राहुल गांधी तक को ‘अर्बन नक्सल’ घोषित करते हैं.
सारे आत्मविश्वास के बावजूद ये हर उस विचार से डरते हैं, जो इनके एजेंडा के प्रतिकूल जाता है, इसलिए अपने ऐसे वैचारिक शत्रुओं को रास्ते से हटाने के लिए इन्होंने हर संभव चाल चली है और आगे भी चलते रहेंगे. अपने विचार के पोलेपन को ये अच्छी तरह जानते हैं, फिर भी उस पर चलते हैं.
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ठोस सबूत जैसी कोई चीज नहीं होती. पहले मैं समझता था कि यह दुर्लभ वस्तु भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश आदि पिछड़े देशों में नहीं पाई जाती, मगर अभी पता चला है कि यह कनाडा जैसे विकसित देश में भी नहीं होती. अमेरिका तो और भी गया-बीता है. उसमें ठोस सबूत जैसी चीज होकर भी नहीं होती. डोनाल्ड ट्रम्प के विरुद्ध कितने ठोस सबूत सामने आए, मगर बंदे का बाल भी बांका नहीं हुआ. ठाठ से राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ रहा है और क्या पता जीत भी जाए !
ठोस सबूत अगर वाकई ठोस हो तो उसे कहां से कितना तापमान मिल रहा है या नहीं मिल रहा है, इस पर उसका तरल होना या गैस में बदलना या न बदलना निर्भर करता है ? एक साल पहले आंध्र के वर्तमान मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के खिलाफ ईडी के पास भ्रष्टाचार के एकदम ठोस सबूत थे. इतने अधिक ठोस थे कि वह जेल में महीनों रहे. अब उसी ईडी के पास उन्हीं नायडू के विरुद्ध ठोस क्या तरल या गैस रूप में भी सबूत नहीं हैं. इसके लिए नायडू को इतना ही करना पड़ा कि वे उधर से इधर हो गए. उनका इधर होना नायडू साहब की भी जरूरत थी और मोदी जी की भी. नायडू साहब चुनाव हार जाते तो जो ठोस सबूत थे, वे और भी ठोस हो जाते. इतने ठोस कि किसी भी तापमान पर तरल अथवा गैस में बदल नहीं पाते !
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो महीनों से कह रहे थे कि हमारे पास इस बात के ठोस सबूत हैं कि खालिस्तानी अतिवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या भारत सरकार के एजेंटों ने की है. अब कह रहे हैं, हैं तो पर ठोस नहीं, तरल हैं. बताया जाता है कि जब त्रूदो साहब को लगा कि मामले को ज्यादा खींचने से भारत के साथ संबंधों में स्थाई बिगाड़ आ सकता है तो ठोस सबूत अठोस हो गए और आश्चर्य नहीं कि किसी दिन हवा में गायब हो जाएं !
विशेष रूप से पिछले दस साल से हमारे यहां ठोस सबूत अक्सर तरल और गैसीय सबूतों में तेजी से बदल रहे हैं. इसकी कुछ घोषित शर्तें हैं. अगर आप विपक्ष के एमपी – एमेले या मंत्री जैसे कुछ हैं और मोदी शरणम् गच्छामि हो जाते हैं तो सबूत, सबूत नहीं रह जाएंगे, हवा में उड़ जाएंगे और यह खुली नीति है, एकदम ओपन पालिसी है. इसमें कोई छुपाव-दुराव नहीं है. और अगर आप पूंजीपति हैं और चढ़ावा नियमित रूप से चढ़ा रहे हैं तो आप ये लांड्रिंग करें या वो लांड्रिंग कोई फर्क नहीं पड़ता. ईडी आपके घर-दफ्तर कभी झांकेगी भी नहीं लेकिन सारा माल खुद खाएंगे तो ईडी को आना ही पड़ेगा.
वैसे सबूतों के रूप परिवर्तन का काम केवल ईडी नहीं करती और भी तमाम पारंपरिक उपाय निचले स्तर पर भी निचले लोगों की सुविधा के लिए उपलब्ध हैं. यह काम पुलिस का दरोगा भी करता आया है, पुलिस इंस्पेक्टर भी और एसपी और कलेक्टर भी. विधायक, सांसद, मंत्री भी अकसर इस तरह की जनसेवा को अंजाम देते रहते हैं. इधर आरएसएस, वीएचपी का साधारण कार्यकर्ता भी ठोस आरोप को तरल में और तरल को गैस में बदलवाने में गोपनीय नहीं, प्रकट भूमिका निभाते हैं और पुलिस उनकी इस भूमिका को हृदय से स्वीकार करती है.
सब कुछ इस पर निर्भर है कि ठोस को तरल या गैस में बदलने के लिए कहां से कितना तापमान प्राप्त हो रहा है. तापमान बेहद उच्चस्तरीय हो तो ठोस को तरल और तरल को गैस का रूप लेने में देर नहीं लगती, चाहे मामला हत्या का हो, दंगे का हो, बलात्कार का हो या नरसंहार का हो. बहुत से मामलों में तो सबूतों को ठोस से द्रव में और द्रव से गैस में बदलने की लंबी और कष्टदायक प्रक्रिया से गुजरना भी नहीं पड़ता.
विज्ञान बताता है कि कुछ पदार्थ ठोस से सीधे गैस में बदलना जानते हैं तो ईडी भी इस वैज्ञानिक सत्य का उपयोग करती है. वह ठोस सबूतों को गैस का रूप देकर हवा में विलीन करवा देती है ! ईडी की विशेषता है कि जहां सबूत नहीं होते, वहां भी वह ठोस सबूत पेश करने की कला में दक्ष है, बस ऊपर से सिग्नल मिलना चाहिए. उसे भी अपनी प्रतिष्ठा की उतनी ही चिंता है, जितनी प्रधानमंत्री को अपने पद के इज्जत की है ! उसे अदालत आदि की लताड़ से कोई फर्क नहीं पड़ता. उसके लिए उसका कर्म ही पूजा है. वह परिणाम की चिंता नहीं करती.
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गुजरात में सरदार पटेल की 597 फीट ऊंची प्रतिमा के परिसर में 562 भूतपूर्व रियासतों के राजाओं का संग्रहालय बनने जा रहा है, जिसकी आधारशिला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पटेल जयंती 31 अक्टूबर को रखेंगे, जिसे ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ नाम भी दिया गया है. यह संग्रहालय गुजरात सरकार बनवा रही है, जिस पर प्रारंभिक लागत 260 करोड़ आंकी गई है, जो निश्चय ही आगे बढ़ेगी. कम से कम दुगनी तो हो ही जाएगी !
‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ तो मनाया जाएगा मगर इस सरकार का उद्देश्य यह रहा कब ? एकता को धर्म और जाति के नाम पर लगातार तोड़ना ही इसका लक्ष्य रहा है और अब उस पर एक और चोट की जा रही है. उन सरदार पटेल के जन्मदिन पर म्यूजियम आफ रायल किंग्डम्स आफ इंडिया बनाया जा रहा है, जिन रियासतों और राजाओं को खत्म करने में देश के पहले गृहमंत्री की केंद्रीय भूमिका थी !
भूतपूर्व रियासतों के राजाओं का गुणगान करने, उनके राजसी वैभव से लोगों को परिचित करवाने का क्या अर्थ है और क्या जरूरत है ?इसके पीछे नीयत क्या है ? अभी कुछ समय पहले संघ के एक संगठन ने भूतपूर्व रियासतों के राजाओं का सम्मान समारोह भी आयोजित किया था. तब भी मैंने सवाल उठाया था और अब चुनी हुई सरकार खुद यह काम कर रही है. यहां उस सेंगोर को भी याद कर लें, जिसे प्रधानमंत्री ने स्वयं नये संसद भवन में स्थापित किया था.
भारत को आजादी मिले 77 साल हो चुके हैं. रियासतें और राजा अब इतिहास की चीज बन चुके हैं. रियासतों के एकीकरण का एक जटिल इतिहास रहा है. आजाद भारत के नागरिकों की इन रियासतों के गुणगान में कोई दिलचस्पी नहीं और जिनकी दिलचस्पी है, वे किताबों में पढ़ें. ग्वालियर के सिंधिया घराने आदि ने अपने पुराने वैभव को प्रदर्शित करने के लिए म्यूजियम आदि बना रखे हैं, वहां जाएं. वाह वाह करें !
मैं गलती से ग्वालियर के म्यूजियम के जाकर पछता चुका हूं. यह वैभव जनता की लूट से अर्जित किया गया था, उससे जनता को अब प्रभावित करना मेरी नज़र में अपराध है. इस पर जनता का पैसा लुटाना सरदार पटेल का भी अपमान है लेकिन यह होगा और सरदार पटेल के जन्मदिन पर होगा. जब कोई दल इस मानसिकता के खिलाफ बोलोगा नहीं तो यही सब होगा. हमारे प्रधानमंत्री भी अपने को एक शहंशाह ही समझते हैं और एक ‘शहंशाह’ शहंशाहों का गुणगान करेगा ही !
और म्यूजियम ही बनाना है तो बनाओ कि इन रियासतों में प्रजा किन स्थितियों में गुजर बसर करती थी, कैसे कैसे अत्याचार उस पर बरपा किए जाते थे. किस तरह वहां की जनता ने आजादी की लड़ाई में भाग लिया तो इन अंग्रेजों से मिले राजे रजवाड़ों ने जनता को जेल में डाला, गोलियों से भूना. बनाओगे ऐसा म्यूजियम ? कभी नहीं बनाओगे, बना ही नहीं सकते.
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कहा तो जाता है हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में जी रहे हैं मगर पिछले दस साल में इसकी हकीकत हम सब देख-समझ रहे हैं. अभी इलाहाबाद में था तो पता चला कि वहां केवल एक सार्वजनिक जगह बची है- जहां बात खुलकर कही जा सकती है मगर वह भी कितने समय तक बची रहेगी, यह कहना कठिन है. वहीं यह भी पता चला कि अशोक वाजपेयी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के किसी आयोजन में गए थे.
वहां उन्होंने अपने व्याख्यान में किसी सत्ताधारी का नाम लिए बगैर कुछ बातें कही थीं, जो वह अपने स्तंभ में और अन्यत्र भी कहते आए हैं तो तत्काल इलाहाबाद से लेकर दिल्ली तक हड़कंप मच गया और बताते हैं कि आगे से उन और उन जैसे निजाम विरोधियों के लिए विश्वविद्यालय का दरवाज़ा बंद है. गैर-सरकारी संस्थाओं को भी बताते हैं कि धमका कर रखा जा रहा है.
अनेक संस्थाएं या तो बहाना बनाकर आयोजन के लिए जगह नहीं देती हैं या अंत समय में इनकार करके आयोजकों के लिए मुश्किल खड़ी कर देती हैं. कुछ जगहें मरम्मत आदि के नाम पर बंद रखी जा रही हैं. कुछ संस्थाएं लिखवाकर लेती हैं कि उक्त आयोजन में कोई सरकार विरोधी बात नहीं कही जाएगी.
यही स्थिति लखनऊ के लेखक भी अपने शहर की बताते हैं. कैफ़ी आज़मी अकादमी के अलावा शायद ही कोई दूसरी जगह हो, जहां खुलकर अपनी बात कहने की जगह हो. प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र बनारस की स्थिति तो और भी बुरी बताई जाती है. जब उत्तर प्रदेश के बड़े शहरों की स्थिति यह है तो छोटे शहरों-कस्बों की स्थिति इससे भिन्न कैसे हो सकती है ?
मित्र बताते हैं कि भाजपा शासित दूसरे राज्यों की स्थिति भी इससे भिन्न नहीं है. और फिर भी भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा ही जाता है. प्रधानमंत्री तो इसे लोकतंत्र की जननी कहकर भी गौरवान्वित कर चुके हैं.
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