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दंगा-हत्याएं और संघ : बांद्रा बनाम बहराइच

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दंगा-हत्याएं और संघ : बांद्रा बनाम बहराइच
दंगा-हत्याएं और संघ : बांद्रा बनाम बहराइच
विजय शर्मा

मुंबई के बांद्रा और यूपी के बहराइच की दो अलग-अलग घटनाओं को दो आंखों से नहीं समझे. प्रधानमंत्री मोदी ने अभी हाल ही में कहा है – ‘बंटोग तो कटोगे.’ उसी को संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दशहरे के दिन अपने स्थापना दिवस पर दोहराया. भागवत ने इस कथन की ताकत को और बढ़ाते हुए बांग्लादेश के हिंदुओं की एकजुटता का उदाहरण भी साथ में परोसा. दोनों नेताओं के कथन की गर्मी से देश के हिंदुओं की मानसिकता का ताप बढना स्वाभाविक है.

2024 के आम चुनाव बाद तीसरी बार प्रधानमंत्री बने मोदी को शायद अब ऐसे कथन के पन्ने पढ़ने की जरूरत न होती अगर उन्हें बहुमत से कुछ ज्यादा सीटें मिल गई होती. संघ प्रमुख को मोदी उवाच दोहराने की आवश्यकता नहीं होती, अगर इसी दरम्यान महाराष्ट्र में चुनाव न होने होते, महाराष्ट्र में ही संघ का मुख्यालय है.

बहुत से राजनीतिक कारणों ने संघ की मजबूत दीवारों में छेद कर दिए हैं. संघ की मूल पहचान पर राहुल गांधी ने जातीय जनगणना का तेजाब डालकर उसकी जड़ों को मरने की अवस्था तक पहुंचाने की राह तैयार कर संघ को बेचैन कर दिया था.

दोनों घटनाओं के परिणाम राजनीतिक फायदे की सोच में पहले से तय किए गए हैं. बांद्रा में एक मुस्लिम नेता की हत्या और बहराइच में एक युवा हिंदू की हत्या, धर्म ज़रूर दोनों जगह के दो है लेकिन दोनों के फायदे एक जगह ही बहकर पहुंचते हैं.

वहां मुस्लिम नेता की हत्या और उसके बाद उस नेता के पिछले जन्म से अभी तक कर्मों का हिसाब का प्रचार हिंदुत्व की जीत का हिस्सा बना दिया गया. बहराइच में हिन्दू युवा की मौत को हिंदुत्व को संगठित करने की ओर मोड़ दिया गया.

जिस मुस्लिम घर पर युवा को चढ़ाया गया, उस युवा की शिक्षा, उसके परिवार की पृष्ठभूमि को बारिकी से समझना होगा. धर्म रक्षा का जूनून जितना उस युवक को था, ऐसा जूनून किसी नेता के बच्चे को क्यों नहीं हुआ ? किसी बड़े घर के बच्चे में यह भावना क्यों नहीं उपजी ? सवाल मरने वाले युवक से नहीं बल्कि उसे मरने की सीढ़ियां चढ़ाने वाले साम्प्रदायिक लोगों से है.

धार्मिक भीड़ हिंसक क्यों हो जाती है ? धर्म जुलूस वहीं जाकर उग्र रूप क्यों धारण कर लेता है ? भगवान राम का शांतिप्रिय नाम जोशीले उद्घोष ‘जय श्री राम’ में क्यों तब्दील हो जाता है ? भीड़ को ऐसी ट्रेनिंग कौन और कहां दी जाती है…?

मेरे सवाल किसी दल विशेष पर आरोप नहीं है बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी की ओर इशारा है. क्या हमारे मर्यादा पुरुषोत्तम राम हरा झंडा देखते ही नाराज़ हो जाते हैं ? यहां मैं फिर लिखूंगा कि इसका मतलब है कि हमने अपने राम को समझा ही नहीं है, उनके जीवन की कथा रामलीला कर पूरी कर देते हैं लेकिन अपनाते हुए डर लगता है.

हैदराबाद के किसी मंदिर में नवरात्र के समय माता की मूर्ति को खंडित कर दिया गया और फिर एक वर्ग विशेष के खिलाफ उसका ज़हर उगला गया. लेकिन बाद में पता चला कि यह काम भी किसी हिन्दू धर्म के ही व्यक्ति द्वारा किया गया है.

आंध्र प्रदेश के मंदिर में जानवरों की चर्बी मिले घी का प्रचार बहुत जोर से किया गया. वहां के एक मंत्री ने प्रायश्चित करने का एलान कर दिया लेकिन मामला अब शांत है तो क्या ऐसी घटनाएं प्रायोजित हैं ?

सत्ता सुख के लालायित बेशर्म लोगों को पहचाना जरूरी हो गया है. अगर हमें अपने धर्म को डुबने, मरने से बचाना है तो…धर्म केवल मंदिरों के गुंबद खड़े कर देने और जोशीले नारों के प्रचार से नहीं है, सद्भावना ओर सम्पूर्णता के समर्पण की मिठ्ठी गोद में सहलाने से है.

किसी भी भीड़ में, किसी भी धर्म के किसी भी युवक के मरने से धर्म की जड़ें मजबूत नहीं हो सकती. सही मायने में हम अपने ही धर्म की जड़ों को जहरीले तेज़ाब से सड़ा रहे हैं. आज धर्म के नाम पर कुछ लोग कमा रहे हैं और बहुत से लोग गंवा रहे हैं. उन्हें शिक्षित करने की निहायत आवश्यकता है.

संघ के डर में संघ का नफा-नुकसान पहले है, राष्ट्र नहीं

भारतीय और हिंदुत्व के बीच का फर्क ही संघ के होने की जगह है. संघ विचारधारा बीजेपी का रूप बनाकर सत्ता में हिस्सेदारी रखती है. भारतीय कहलाने में सम्पूर्ण राष्ट्रीयता का अहसास होता है और उधर हिंदू शब्दावली में भारत को संकीर्ण बनाकर छोटा दिखाने की मानसिकता झलकती है.

भारत की संम्पूर्णता में ‘सर्वजनहिताय’ की खुशबू समाहित है लेकिन हिंदू राष्ट्र के उच्चारण भर से हम दुनिया में छोटे कद के दिखने लगतें है और संघ की विचारधारा का पिछले 100 सालों से ऐसा करना निरंतर जारी है. विजय दशमी के दिन संघ स्थापना दिवस है लेकिन अपने हर स्थापना दिवस पर संघ ने अपनी सोच की उल्टियां की है.

100 सालों के इतिहास में संघ का सामाजिक होना कहीं नज़र नहीं आता. पिछले 100 सालों में संघ को भारत के सहयोगी के रूप में कहीं नहीं देखा गया तो फिर आखिर संघ की स्थापना का मूल मकसद क्या था ? सैद्धांतिक रूप से संघ एक वैचारिक संगठन है और उन्हीं संकीर्ण विचारों की खेती कर संघ भारत को हिंदुत्व की राह पर हांकना चाह रहा है, जो अभी तक नहीं हो पाया है.

इस नहीं हो पाने का मूल कारण भारत की मूल भावना और उससे आम आदमी का जुड़ा होना ही है. भारत की एकता ने अभी तक संघ के मनसूबे सफल नहीं होने दिए. संघ भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है लेकिन हिंदू की मूल परिभाषा बताने से भाग जाता है.

संघ के हिंदुत्व में अल्पसंख्यक नहीं है, सब जानते हैं लेकिन क्या संघ दलितों, ओबीसी, पिछड़ों व आदिवासी वर्ग को भी जगह देती है ? यह शंका खुद संघ की किताबों में भी है और बोलने में भी सामने आ रही है.

तो फिर संघ का हिंदुत्व क्या है ? और इस संकीर्णता के बाद राष्ट्र व्याख्या क्या होगी ? क्या जो उनके अनुसार हिन्दू नहीं है उन्हें पाकिस्तान चले जाओ कहने वाले पाकिस्तानी भेज देंगे ? क्या सिखों को अलग देश बनाकर दिया जायेगा ? क्या जैन समाज को हिंदू बनाकर उनके जैनियत को समाप्त कर दिया जाएगा ? बौद्ध, ईसाई की पहचान क्या होगी…?

राहुल गांधी के जाति जनगणना को हिंदुत्व के खिलाफ बताकर प्रचारित क्यों किया जा रहा है ? क्या राहुल गांधी के जातीय जनगणना से हिंदुत्व को किसी बात का खतरा है कि ऐसा होने पर मंदिरों को ताला लग जायेगा ? जिसके बल पर ही संघ जिंदा है और अपनी पहचान बनाये है ?

राहुल की जातीय जनगणना हिंदू वर्ग के हितों के लिए भी है, उनकी पहली पहचान को जिंदा रखने के लिए उनकी जाति का जानना जरूरी है ताकि उनको देश के अधिकारों में भागीदारी बनाया जाए. लेकिन संघ इससे गुस्सा इसलिए है कि अगर ऐसा हुआ तो संघ की ताकत और विचारधारा क्षतिग्रस्त होगी, जिससे संघ कमजोर हो सकता है.

संघ के डर में संघ का नफा-नुकसान पहले है, राष्ट्र नहीं. और संघ का असली चेहरा भी यही है. बात वह राष्ट्र निर्माण की करता है लेकिन काम वह एजेंडे को थोपने का करता है. संघ न देश के कानून के साथ खड़ा है और न ही राष्ट्र की भावना के सम्मान में नतमस्तक दिखाई देता है. संघ की दिशा भगवा ध्वज को तिरंगे से बड़ा करने में है.

संघ कितना राष्ट्रीय है यह उसकी इस बात से साफ़ दिखाई देता है कि उसने अपनी स्थापना के बाद से खुद को रजिस्टर्ड नहीं करवाया है. संघ के पास क्या है, कहां से आता है और किस पर खर्च करता है उसके लेखे जोखे की जांच कभी नहीं करवाता. भारत में होकर भारत से छुपाना किस राष्ट्रीयता को उजागर करता है ?

संघ की भागीदारी में देश की आधी आबादी (महिलाओं) को वंचित क्यों रखा गया है ? क्या संघ के राष्ट्रवाद में महिला का कोई हिस्सा नहीं है ? दरअसल राष्ट्रवाद चेतना भरने या जगाने को नहीं बल्कि उसका उत्थान कर राष्ट्रीय भावना जगाने से होना चाहिए, जो संघ के पास नहीं है.

संघ की स्थापना दिवस पर देश का प्रधानमंत्री संघ की उम्र से बड़ी विपक्षी पार्टी को अर्बन नक्सल कह कर संबोधित करता है, यही संकिर्णता संघ की किताबों और शाखाओं में भरी हुई है. संघ का हस्तक्षेप न होता तो देश बंटवारे से बच गया होता. संघ का हस्तक्षेप नहीं होता तो देश 1947 के 20 साल पहले आजाद हो गया होता, संघ ने हिंदू मुस्लिम की खेती न होती तो देश विकास में चीन से बहुत आगे खड़ा होता. संघ की कार्यशैली ने भारत को पीछे करने में अहम भूमिका निभाई है.

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