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एक अद्भुत व कालजयी, क्रांतिकारी दस्तावेज ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ के जॉन रीड, एक महान लेखक

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एक अद्भुत व कालजयी, क्रांतिकारी दस्तावेज 'दस दिन जब दुनिया हिल उठी' के जॉन रीड, एक महान लेखक
एक अद्भुत व कालजयी, क्रांतिकारी दस्तावेज ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ के जॉन रीड, एक महान लेखक

1917 की गर्मियों में रीड भागे-भागे रूस गये, जहां उन्होंने यह भांप लिया कि शुरूआती क्रांतिकारी मुठभेड़ों का रंग-ढ़ंग ऐसा है कि वे एक विराट वर्ग-युद्ध का आकार ग्रहण कर सकती हैं. उन्होंने परिस्थिति का मूल्यांकन करने में देर नहीं लगाई और यह समझा कि सर्वहारा द्वारा सत्ता पर अधिकार युक्तिसंगत तथा अनिवार्य था. परंतु क्रांति का मुहूर्त्त बार-बार टल जाने और देर लगने के कारण वह व्यग्र थे. रोज सुबह वह उठते और यह देखकर कि अभी क्रांति शुरू नहीं हुई है, उन्हें खीझ और झुंझलाहट होती.

आखिरकार स्मोल्नी ने संकेत दिया और जन-साधारण क्रांतिकारी संघर्ष के लिए आगे बढ़े. यह एक स्वाभाविक बात थी कि जॉन रीड उनके साथ साथ कदम बढ़ाते. वह ‘सर्वविद्यमान’ थे : पूर्व-संसद भंग की जा रही थी, बैरीकेड बनाये जा रहे थे, फरार हालत से निकलने पर लेनिन और जिनोव्येव का स्वागत किया जा रहा था या जब शिशिर प्रासाद का पतन हो रहा था – सभी जगह रीड मौजूद थे …लेकिन इन सब घटनाओं का उन्होंने अपनी पुस्तक में वर्णन किया है.

एक जगह से दूसरी जगह घूमते हुए, उन्होंने अपनी सामग्री जहां से भी वह प्राप्य थी, संग्रह की. उन्होंने ‘प्राव्दा’ तथा ‘इज्वेस्तिया’ की पूरी फाइलों, सभी घोषणाओं, पैम्फलेटों, पोस्टरों, विज्ञप्तियों को इकट्ठा किया. पोस्टरों के पीछे तो वह पागल थे. जब भी कोई नया पोस्टर निकलता और उसे पाने का कोई और तरीका न होता, तो वह उसे बेहिचक दीवार से फाड़ लेते.

उन दिनों पोस्टर इतनी तेजी से और इतनी बड़ी संख्या में छापे जा रहे थे कि उनके लिए दीवारों पर जगह न रह गयी थी. कैडेटों, समाजवादी-क्रांतिकारियों, मेन्शेविकों, वामपंथी समाजवादी-क्रांतिकारियों और बोल्शेविकों के पोस्टर एक के ऊपर एक इस इस तरह चिपका दिये जाते कि उनकी खासी मोटी परतें बन जाती.

एक दिन रीड ने एक के ऊपर एक तह-ब-तह लगाये गये 16 पोस्टरों का एक ढेर दीवार से फाड़कर अलग कर लिया और भागे-भागे मेरे कमरे में आकर कागजों का यह भारी पुलिंदा उछालते हुए बोल पड़े : ‘यह देखो! मैंने एक ही झपाटे में पूरी क्रांति और प्रतिक्रांति को समेट लिया है !’

इस प्रकार भिन्न-भिन्न तरीकों से उन्होंने एक बड़ा अच्छा संग्रह जुटाया, जो इतना अच्छा था कि जब 1918 के बाद वह न्यू-यार्क बंदरगाह में उतरे, संयुक्त राज्य अमरीका के अटार्नी जनरल के एजेंटों ने उसे जब्त कर लिया. लेकिन किसी प्रकार उसे फिर अपने कब्जे में ले लिया और उसे न्यू-यार्क के अपने कमरे में छिपा दिया, जहां उन्होंने भूगर्भी रास्ते की घड़-घड़, खड़-खड़ और अपने सिर के ऊपर और पैरों के नीचे गाड़ियों के दौड़ने की लगातार शोर-गुल के बीच अपनी पुस्तक ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ की रचना की.

यह समझ में आने वाली बात है कि अमरीकी फासिस्ट यह नहीं चाहते थे कि यह किताब सर्वसाधारण के हाथ में पहुंचे. छ:-छ: बार वे पांडुलिपि को चुराने की गरज से पुस्तक के प्रकाशक के कार्यालय में ताला तोड़कर घुस गये थे. अपने प्रकाशक को अपना फोटो-चित्र देते हुए जॉन रीड ने उस पर निम्नलिखित शब्द लिखे थे : ‘अपने प्रकाशक होरेस लाइवराइट को, जो इस पुस्तक का प्रकाशन करते हुए बर्बादी से बाल-बाल बचे हैं.’

यह पुस्तक रूस के बारे में सच्चाई का प्रचार करने के उनके साहित्यिक प्रयासों का एकमात्र परिणाम न थी. पूंजीपति वर्ग को यह सच्चाई फूटी आंखों भी नहीं सुहाती थी. वह रूसी क्रांति से नफरत करता था और उससे दहशत खाता था, और उसने धुआंधार झूठा प्रचार कर उस पर पर्दा डाल देने की कोशिश की.

राजनीतिक मंचों, सिनेमा के पर्दों, पत्र-पत्रिकाओं के कालमों से घृणित कुत्सा की मटमैली धारा अजस्त्र प्रवाहित होने लगी. वे ही पत्रिकायें, जिन्होंने कभी रीड के लेखों के लिए याचना की थी, अब उनकी रचनाओं को छापने से बाज आते. लेकिन इस तरह उनका मुंह बंद नहीं किया जा सका. उन्होंने असंख्य जन-सभाओं में भाषण दिये.

उन्होंने स्वयं अपनी पत्रिका की स्थापना की. वह वामपंथी समाजवादी पत्रिका ‘क्रांतिकारी युग’ के और बाद में ‘कम्युनिस्ट’ के संपादक बन गये. उन्होंने Liberator पत्रिका के लिए लेख पर लेख लिखे, वह सम्मेलनों में भाग लेते हुए, अपने इर्द-गिर्द के लोगों को राशि-राशि तथ्य देते हुए, उन्हें अपने स्फूर्ति क्रांतिकारी उत्साह से अनुप्राणित करते हुए अमरीका के एक छोर से दूसरे छोर तक घूमे, और अंत में उन्होंने जो बहुत बड़ी बात की, वह यह कि अमरीकी पूंजीवाद के गढ़ में कम्युनिस्ट लेबर पार्टी का संगठन किया, उसी प्रकार जैसे उन्होंने हारवर्ड विश्वविद्यालय के केंद्र में समाजवादी क्लब की स्थापना की थी.

जैसा बहुधा होता है, ‘पंडितों’ ने गलत सोचा था. जॉन रीड का उग्रवाद एक ऐसी धुन नहीं था, जो वक्त के साथ गुजर जाये. उनकी भविष्यवाणियों के बावजूद बाह्य संसार से संपर्क ने रीड का किसी भी प्रकार ‘उद्धार’ नहीं किया था. उसने उनके उग्र विचारों को और भी उग्र कर दिया. ये विचार कितने गहरे और प्रबल थे, यह जॉन रीड द्वारा संपादित नये कम्युनिस्ट मुखपत्र ‘मजदूरों की आवाज’ से प्रत्यक्ष था.

अमरीकी पूंजीवादियों का माथा ठनका – उनको अब समझ में आया कि देश में आखिरकार एक सच्चा क्रांतिकारी पैदा हुआ है. अब वे इस ‘क्रांतिकारी’ शब्द से भीत और त्रस्त थे ! यह सच है कि सुदूर अतीत में अमरीका के अपने क्रांतिकारी हुए थे और अब भी वहां ‘अमरीकी क्रांति की वीरबालायें’ तथा ‘अमरीकी क्रांति के सपूत’ जैसी जानी-मानी सामाजिक संस्थायें हैं, जिनके द्वारा प्रतिक्रियावादी पूंजीपति वर्ग 1776 की क्रांति को अपनी श्रद्धांजली अर्पित करता है. परंतु वे क्रांतिकारी कब के मर चुके, जबकि जॉन रीड हाड़-मांस के क्रांतिकारी हैं, जीते-जागते क्रांतिकारी हैं, वह पूंजीपति वर्ग के लिए मूर्तिमान चुनौती हैं, साक्षात यमराज हैं.

उनके लिए सिवाय इसके कोई उपाय न था कि वे रीड को जेल की कोठरी में डाल दें. उन्हें गिरफ्तार किया गया – एक बार नहीं दो बार नहीं, बीस बार. फिलडेलफिया में पुलिस ने सभा-भवन में ही ताला लगा दिया और उन्हें वहां बोलने नहीं दिया. लिहाजा वह बाहर पड़ी एक साबुन की पेटी पर चढ़ गये और सड़क पर जो भीड़ उमड़-घुमड़ रही थी, उसके सामने उन्होंने एक व्याख्यान दे डाला.

यह सभा इतनी सफल रही और उसमें रीड के इतने अधिक समर्थक निकले कि जब रोड पर ‘शांति भंग’ करने का अभियोग लगाया गया, जूरी ने उन्हें अपराधी घोषित करने से इनकार किया. अमरीका का कोई ऐसा नगर नहीं था, जिसे जॉन रीड को कम से कम एक बार गिरफ्तार किये बिना संतोष हुआ हो. लेकिन वह हमेशा किसी न किसी प्रकार जमानत देकर या मुकद्दमे को मुल्तवी करा कर जेल से निकल आते और फौरन कहीं और धावा बोलने के लिए निकल पड़ते.

पश्चिमी देशों के पूंजीपति वर्ग को अपनी तमाम परेशानियों और नाकामियों को रूसी क्रांति के सिर मढ़ने की आदत हो गई है. उस क्रांति का एक सबसे नागवार जुर्म यह था कि उसने एक प्रतिभाशाली अमरीकी को कट्टर और जोशीले क्रांतिकारी में बदल दिया था. पूंजीवादी ऐसा ही सोचते थे. वास्तव में यह बात पूरी तरह सच न थी.

जॉन रीड को रूस ने क्रांतिकारी नहीं बनाया था. जन्म की घड़ी से ही अमरीकी क्रांतिकारी रक्त उनकी धमनियों में प्रवाहित था. जी हां, यद्यपि अमरीकियों को सदा एक अफरे और अघाये हुए और प्रतिक्रियावादी राष्ट्र के रूप में चित्रित किया जाता है, तथापि क्रोध और विद्रोह की भावना उनकी नस-नस में व्याप्त है. जरा अतीत काल के महान विद्रोहियों की याद कीजिये – टामस पेन की, वाल्ट विटमैन की, जॉन ब्राउन और पार्सन्स की याद कीजिये.

बिल हेवुड, राबर्ट माइनर, रूटेनबर्ग और फास्टर जैसे जॉन रीड के आजकल के साथियों और सहयोगियों की बात भी सोचिये. होमस्टेड, पालमैन और लारेंस में हुए खूनी औद्योगिक संघर्षों की, और ‘विश्व के औद्योगिक मजदूरों’ के संघर्षों की याद कीजिये. ये सब के सब – नेतागण और जन-साधारण – जन्म से शुद्धतः अमरीकी थे. आज यह बात चाहे प्रत्यक्ष दिखाई न पड़े, पर यह सच है कि अमरीकियों के खून में विद्रोह का गाढ़ा घोल है.

लिहाजा यह नहीं कहा जा सकता कि रूस ने जॉन रीड को क्रांतिकारी बनाया, लेकिन उसने उन्हें वैज्ञानिक रूप से सोचने वाला सुसंगत क्रांतिकारी जरूर बनाया. और यह एक बहुत बड़ी सेवा है. रूस ने उन्हें इसके लिए प्रवृत्त किया कि वह अपनी मेज को मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की किताबों से लाद दें. उसने उन्हें इतिहास तथा घटनाक्रम की एक समझ दी.

उसी की बदौलत उन्होंने अपने किंचित अस्पष्ट मानवतावादी विचारों के स्थान पर अर्थशास्त्र के निर्मम, कठोर सत्य को ग्रहण किया. और उसी ने उनको यह प्रेरणा दी कि वह अमरीकी मजदूर आंदोलन के शिक्षक बने और उसके लिए वही वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करने का प्रयास करें, जो उन्होंने अपने विश्वासों के लिए प्रस्तुत किया था.

उनके दोस्त उनसे कहा करते, ‘जॉन, तुम राजनीति के लिए नहीं बने हो! तुम कलाकार हो, न कि प्रचारक. तुम्हें चाहिए कि तुम अपनी प्रतिभा को साहित्यिक सृजन में लगाओ.’ वह इस बात की सच्चाई को अक्सर महसूस करते, क्योंकि उनके दिमाग मे नई कवितायें, नये उपन्यास तथा नाटक के विचार भरे होते और वे अभिव्यक्ति पाने के लिए जोर मारते, निश्चित आकार ग्रहण करने के लिए हठ करते. जब उनके दोस्त आग्रह करते कि वह अपने क्रांतिकारी प्रचार-कार्य को छोड़कर अपनी मेज पर जम जायें, तब वह मुस्कराते हुए जवाब देते, ‘अच्छी बात है, मैं ऐसा ही करूंगा.’

परंतु उन्होंने अपना क्रांतिकारी कार्य कभी बंद नहीं किया; वह ऐसा कर ही नहीं सकते थे ! रूसी क्रांति ने उनके मन-प्राण को जीत लिया था. उसने उनको पक्का कर दिया था और उनकी ढुलमुल, अराजक भावना पर कम्युनिज्म के अनुशासन का कठोर अंकुश लगा दिया था. उसने उन्हें इस बात के लिए प्रवृत्त किया कि वह क्रांति के एक अग्रदूत के रूप में अपना ज्वलंत संदेश लेकर अमरीका के नगरों में विचरण करें. 1919 में क्रांति के आह्वान पर वह संयुक्त राज्य अमरीका की दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों को एक में मिलाने के सिलसिले में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के साथ काम करने के लिए मास्को पहुंचे.

कम्युनिस्ट सिद्धांत के नये तथ्यों से लैस होकर वह फिर गुप्त रूप से न्यू-यार्क के लिए रवाना हुए. एक मल्लाह ने दगा की और उनका भेद खोल दिया; उन्हें जहाज से उतार लिया गया और फिनलैंड की एक जेल में एकांत कारावास में रखा गया. वहां से वह फिर रूस लौट आये, ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ में लिखा, एक नई पुस्तक के लिए सामग्री जुटाई और बाकू में हुई पूर्वी जनों की कांग्रेस में एक प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया. उन्हें टाइफस ज्वर की छूत लग गयी (संभवत: काकेशिया में); अत्यधिक परिश्रम से उनका शरीर पहले ही छीज चुका था, फलत: वह इस रोग के ग्रास बने और रविवार, 17 अक्टूबर 1920 को उनकी मृत्यु हो गई.

जॉन रीड को उसी स्थान में समाधिस्थ किया गया, जो उन्हें संसार में सबसे ज्यादा प्यारा था – क्रेमलिन की दीवार के जेर साये लाल चौक में. उनकी कब्र पर एक स्मारक खड़ा किया गया – उनके चरित्र के ही अनुरूप ग्रेनाइट का एक बेकाटा-तराशा शिलाखंड, जिस पर लिखा है : ‘जॉन रीड, तीसरे इंटरनेशनल के प्रतिनिधि, 1920’

  • एल्बर्ट विलियम्स

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