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जन्मदिन पर विशेष : लाहौर नेशनल कॉलेज में भगत सिंह

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जन्मदिन पर विशेष : लाहौर नेशनल कॉलेज में भगत सिंह
जन्मदिन पर विशेष : लाहौर नेशनल कॉलेज में भगत सिंह

भगत सिंह जहां एक जोशीला इंकलाबी था, वहीं एक बहुत अच्छा विद्यार्थी भी था. उसके अध्यापक होने के नाते मैं यह बात दावे से कह सकता हूं कि उसे पढ़ाने में बहुत आनन्द आता था. भगत सिंह को पढ़ने का बेहद शौक था. जब किसी भी किताब का नाम उसके सामने लिया गया तो उसने फौरन उसे पढ़ने की फरमाइश की. वैसे तो भगत सिंह ने न जाने इतिहास की कितनी ही किताबें पढ़ डाली होंगी लेकिन मुझे अभी तक याद है कि उसे जो किताब सबसे ज्यादा पसंद थी वह ‘क्राइ फॉर जस्टिस’ थी.

भगत सिंह ने लाल पेंसिल से इस किताब के बहुत हिस्सों पर निशान लगाए थे. इनसे पता चलता था कि उसके हृदय में बेइन्साफी के खिलाफ लड़ने की भावना किस तरह कूट-कूट कर भरी हुई थी. वह पुस्तक लाजपतराय भवन, लाहौर में हमारे घर में वर्षों तक रही. स्वयं मेरे बच्चों विजय, सन्तोष और मनोरमा ने कई बार इस किताब को लेकर मुझसे ढेरों सवाल पूछे. मेरे बच्चे भी यह जानना चाहते थे कि भगत सिंह को कौन-सी किताब पसंद थी और क्यों ?

भगत सिंह को पढ़ने की आदत तो इतनी प्रबल थी कि जिस दिन उसे फांसी लगाई गई उस दिन भी वह अपने नियमानुसार किताब पढ़ने में मगन था. तो स्वयं उन दिनों जेल में था लेकिन जेल ही से मिलने वाली रिपोर्टों से पता चलता था कि जिस दिन भगत सिंह को फांसी लगनी थी उस दिन उसके चेहरे पर परेशानी और गम की कोई झलक दिखाई नहीं पड़ती थी.

जब वार्डन ने उससे आकर तैयार होने को कहा कि जेल के नियमों के अनुसार हर कैदी को बाकायदा नहा-धोकर कपड़े बदलवाकर और उसकी कोई अंतिम इच्छा हो तो उसे पूरी करके फांसी के तख्ते पर ले जाया जाता है, कहते हैं भगत सिंह ने हंसते-हंसते यही कहा था कि भाई पहले मुझे अपनी किताब तो पूरी कर लेने दो. भगत सिंह उस समय लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे. एक नौजवान जो जानता था कि कुछ ही घंटे बाद उसे फांसी के तख्ते पर लटकाया जाना है, अगर अपनी कोई प्रिय पुस्तक पढ़ने में मगन रहे तो उससे यही अन्दाजा लगाया जा सकता है कि वह सचमुच एक अनोखे इरादे का व्यक्ति होगा.

मैंने नेशनल कॉलेज में और बाहर भी भगत सिंह को हमेशा हंसते हुए देखा. लेकिन उस हंसी के पीछे भी उसका पक्का इरादा और अपने मकसद को पूरा करने की भावना झलकती थी. लगता था कि भगत सिंह को जीवन के सांसारिक बंधनों से गहरी चिढ़ थी इसलिए उसने कभी शादी करवाने की हामी नहीं भरी. बहुत साल बाद भगत सिंह की माताजी उसके विषय में बातचीत करते हुए बताती थीं कि वह हमेशा हंसकर यही कहता था- बेबे तुम परेशान न हुआ करो, तुम्हारे लिए एक अनोखी दुल्हन ब्याह कर लाऊंगा. भगत सिंह का मतलब हिंदुस्तान की आजादी से था.

जब भगत सिंह की मां श्रीमती विद्यावती फांसी लगने से कुछ दिन पहले अपने बेटे से मिलने गईं, तब भी वह जोरों से हंस रहा था और मां को दिलासा दिलाने के लिए बार-बार यही कहता कि भारत को जल्दी ही आजादी मिलेगी और उसे तो खुशी होनी चाहिए कि उसका बेटा किसी मकसद के लिए मरने जा रहा है. लोग तो बीमारियों से भी मरते हैं. लेकिन कितने खुश किस्मत ऐसे हैं जिन्हें देशभक्ति और वतनपरस्ती के इल्जाम में फांसी का तख्ता नसीब होता है.

भगत सिंह को विश्वास था कि शादी का बंधन इंकलाब के रास्ते में बहुत भारी रुकावट है. मुझे याद है एक बार लाहौर में दरिया रावी में मैं और भगत सिंह कश्ती की सैर कर रहे थे, मेरी तरह भगत सिंह को भी दरिया में कश्ती की सैर का बहुत शौक था. उस वक्त शाम का अंधेरा होने ही वाला था. भगत सिंह ने हंसते हुए मुझसे पूछा- ‘गुरुजी सुना है आप शादी कर रहे हैं ? क्या यह खबर ठीक है ?’ जब मैंने कहा, ‘हां’ तो भगत सिंह एकदम से कहने लगा ‘फिर इंकलाब कैसे आएगा ? आप घर गृहस्थी में पड़ जाएंगे या मुझ जैसे नौजवानों को इंकलाब का सबक पढ़ायेंगे ?’ मैंने महसूस किया भगत सिंह को मेरी शादी करने का फैसला पसंद नहीं आया.

मैंने भगत सिंह को बताया कि मैं जिस लड़की से शादी कर रहा हूं वह कोई मामूली लड़की नहीं है बल्कि स्वयं एक आदर्शवादी और क्रांतिकारी विचारों के व्यक्ति की बेटी है. मुझे प्रसन्नता है कि स्वतंत्रता संग्राम में लड़ने के लिए मुझे एक सहयोगी और मिल गया है. मेरा वह जवाब सुनकर भगत सिंह हंसने लगा लेकिन मुझे उस समय ही यह एहसास हो गया था कि भगत सिंह को मेरे जवाब से सन्तोष नहीं हुआ था. वह यही सोच रहा था कि उसके गुरुजी ने अपनी जिंदगी का यह गलत फैसला किया था.

लेकिन मेरी पत्नी सीता देवी ने जिस तरह सक्रियता से स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया, बार-बार जेल यात्रा की और आजादी मिल जाने के बाद भी उन्होंने महिलाओं व मजदूरों के अधिकारों के संघर्ष को अपना मकसद बनाये रखा था, उसने हमेशा मुझे यही एहसास दिया कि चाहे भगत सिंह को मेरा फैसला कितना भी नापसंद था लेकिन मेरा फैसला गलत नहीं था.

हमारे सौभाग्य में जिन दिनों देश भर में महात्मा गांधी तथा स्वराज्य आंदोलन की लहर मची हुई थी, उन्हीं दिनों विदेशी विशेषत: आयरलैंड तथा सोवियत रूस से धड़ाधड़ राजनीतिक लिटरेचर, किताबें, टेक्स्ट, अखबारों और मैग्जीनों का आना शुरू हो गया था. आयरिश लिटरेचर तो केवल यही नारा लगाता था कि किसी भी देश अथवा जाति को आजादी प्राप्त करने के लिए बन्दूकों, पिस्तौलों, बमों तथा हवाई जहाजों की भारी जरूरत होती है. भारत में अंग्रेजी शासन अपनी फौजों तथा छावनियों से सशस्त्रा सैनिकों तथा टैंकों द्वारा स्थापित हुआ है और अब तक चल रहा है.

बाइबिल में स्पष्ट घोषणा दी गयी है कि ‘इफ यू हैव फेथ इन द सोर्ड, बाई द सोर्ड यू शैल बी पनिश्ड’ अर्थात् यदि तुम तलवारों और बंदूकों द्वारा किसी को गुलाम बनाते हो तो समय और अवसर आने पर वही लोग तुमसे अधिक तेजतर शस्त्रों व बंदूकों से तुम्हें अपने हाथ से धकेल कर बाहर करेंगे. अत: यदि सचमुच ही भारत की जनता अपनी दासता का जुआ अपनी गरदन से उतार फेंकना चाहती है तो किसी न किसी ढंग से अणु शस्त्र प्राप्त करे. वे साधन बेग-बारो-स्टील अर्थात् कहीं से मांगकर, उधार लेकर अथवा जबर्दस्ती कहीं से चुराकर अथवा लूटकर प्राप्त करे.

हमारा दूसरा पड़ोसी देश जो हमें धड़ाधड़ अपना साहित्य भेज रहा था वह था सोवियत रूस, जिसने 1917 में देश के किसानों तथा मजदूरों के बलबूते पर अपने देश में किसानों और मजदूरों का शासन स्थापित कर लिया था और सदियों की तानाशाही के जुए को अपनी गर्दन से उतार फेंका. नौजवान भारत सभा के एक दल ने आयरिश ढंग को अपनाकर और अस्त्र जमा करके अपना काम शुरू कर दिया. भारत की सेंट्रल असेंबली के अधिवेशन में बम फेंककर बहरे कान को सुनाने के लिए ऊंची आवाज की जरूरत होती है, वाले पोस्टर भी फेंके थे. फिर उन्होंने हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के समीप ही मद्रास से लौटते हुए वायसराय की ट्रेन पर बम चलाने का प्रोग्राम भी पूरा किया.

फिर पंजाब के बड़े-बड़े शहरों जैसे लाहौर, अमृतसर, गुंजरांवाला, लायलपुर और रावलपिंडी आदि में एक ही दिन एक ही समय में बम चलाने का कार्य पूरा किया. राजधानी दिल्ली के चांदनी चौक बाजार में लार्ड हार्डिंग वायसराय के जलूस वाले हाथी पर भी बम चला दिया जिसमें हाथी का महावत तथा उसका लड़का तत्काल ही दम तोड़ गए. लेडी हार्डिंग की गर्दन पर छह इंच गहरा जख्म लगा और लार्ड हार्डिगं स्वयं बेहोश हो गए. बंगला में कुछ पोस्टर भी फेंके जिसमें लिखा था कि हम अंग्रेज हुकूमत को सचेत करना चाहते हैं कि अंग्रेजी शासन के विरोधी तथा शत्रु केवल बंगाल एवं कलकत्ता में ही नहीं बसते. अब वे भारत में जिस भाग में भी कदम रखेंगे वहीं अपने शत्रु तथा जानलेवा मौजूद पायेंगे.

आजादी का साहित्य तैयार करने वालों तथा नौजवान भारत सभा में कांगड़े वाले लेखक रामचंद्र और मिंटगुमरी के मेहता सत्यपाल इत्यादि सम्मिलित थे, जिन्होंने दो-दो पैसे वाले टैक्स्ट उर्दू भाषा में हजारों की संख्या में छापकर पंजाब के गांव-गांव व कोने-कोने में बांटना और बेचना शुरू कर दिया. हमारा सबसे प्रथम टैक्स्ट भारतमाता के दर्शन अर्थात् हम स्वराज्य क्यों चाहते हैं, था. टैक्स्टों के प्रकाशन का प्रोत्साहन फ्रांस की राज्य क्रांति के जन्मदाता वाल्टेयर से लिया गया था.

मैंने अपने टैक्स्ट के दूसरे पृष्ठ पर प्रकाशन के शीर्षक में वाल्टेयर का वह ऐतिहासिक वाक्य लिखा कि दस-दस, बीस-बीस जिल्दों वाली हजारों पृष्ठों की मोटी-मोटी किताबों को भला कौन खरीद सकता है और उसे पढ़ और समझ भी कौन सकता है. सच्ची बात तो यह है कि यह गरीब से गरीब किसान और मजदूरों की झोंपडियों तक पहुंच सकने वाले पैसे दो-दो पैसे वाले टैक्स्ट ही होते हैं जिनसे सल्तनतों के तख्ते उलट जाया करते हैं. प्रेस का मालिक मेरा एक मुसलमान दोस्त था. यह वाक्य पढ़कर वह मुझसे पूछने लगे कि आप भी अंग्रेजी राज्य का तख्ता उलटना चाहते हैं ?

मैंने जवाब दिया जनाब यह वाक्य मेरा नहीं है बल्कि एक फ्रेंच विद्वान तथा फिलॉसफर वाल्टेयर का है. आप तो मुसलमान हैं और आपने फारसी की वह मिसाल नहीं सुनी है कि नकले कुफ्र-कफ्र न बासद अर्थात् कुफ्र के शब्दों को दोहराना कुफ्र नहीं होता. हमारी कचहरियों में ऐसे भी मुकदमे पेश होते हैं जहां एक आदमी जज के सामने पेश होकर कहता है कि अमुख आदमी ने मुझे बहुत ही गंदी गाली दी है और जज के सामने वह आदमी उस गंदी गाली के शब्दों को दोहरा देता है तो वह उसे अपराध नहीं समझता. प्रेस का वह मालिक मेरी बात सुनकर हंस पड़ा और मेरे टैक्स्ट की पांडुलिपि अपने हाथ मैं लेकर बोला जनाब में इसे अवश्य ही छाप दूंगा. इसके बाद तो वह टैक्स्ट तथा मेरे लिखे हुए दर्जनों टैक्स्ट हजारों की संख्या में छपते रहे और चलते रहे.

जब ब्रिटिश सरकार ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी लगाने का फैसला किया तो उस वक्त मैं मुल्तान जेल में था. लेकिन जिस दिन यानी 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी लगाई गई तो जेल से रिहा होकर देहरादून अपनी पत्नी और बच्ची विजय को मिलने गया हुआ था. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी का समाचार मेरे जैसे बहुत से लोगों के लिए बेहद दुःख का समाचार था. सारे पंजाब में सनसनी और दुःख की लहर फैल गई थी. उस दिन शायद कुछ टोडियों को छोड़कर किसी घर में चूल्हा नहीं जला था.

सारा पंजाब मातम में डूबा हुआ था. औरतें सिसक-सिसक कर रो रहीं थीं. अंग्रेज सरकार ने इस भय से कि अगर उन्होंने इन तीनों शहीदों की लाशें उनके रिश्तेदारों के हवाले कर दीं तो कहीं पंजाब में और उसके साथ ही सारे हिंदुस्तान में तूफान खड़ा हो जाए, इन तीनों की लाशों को रात के अंधेरे में सतलुज नदी के किनारे फिरोजपुर के नजदीक एक स्थान पर मिट्टी का तेल डालकर जला दिया. जो क्रांतिकारी जीते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिए भारी आतंक और चुनौती बने हुए थे, उनकी लाशों से जैसे पूरा ब्रिटिश साम्राज्यवाद भयभीत था.

यह प्रश्न भी वाद-विवाद का रहा है कि गांधीजी की अहिंसा और असहयोग आंदोलनों में लाहौर तथा पंजाब के लोगों की प्रतिक्रिया कैसी रही ? पंजाब मुस्लिम, हिंदू और सिख संप्रदायों में विभाजित था. मुसलमान पचास प्रतिशत से ज्यादा थे. उनका कांग्रेस और कांग्रेसियों के साथ कोई नाता नहीं था. हिंदू संप्रदाय सनातन धर्म और आर्यसमाजियों में बंटा हुआ था. आर्यसमाज भी गुरुकुल पार्टी और कॉलिज पार्टी में बंटी हुई थी.

हर संस्था की अपनी-अपनी समस्याएं थीं. इसलिए कोई भी पूरी तरह से आंदोलन की ओर आकर्षित नहीं हुआ. सिखों में भी एक वफादार ग्रुप था जो हमेशा ब्रिटिश सेना को जवान सप्लाई करने में गर्व अनुभव करता था. बंगाल, यू.पी. और दक्षिणी भारत के मुकाबले में पंजाब में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन की प्रतिक्रिया बहुत कम और कमजोर रही. पंजाब सांप्रदायिक रूप से विभाजित था और लोग आपस में खींचातानी करते रहते हैं.

पंजाब में कांग्रेस शक्तिशाली नहीं थी. विशेष रूप से शहरी इलाकों में कांग्रेस का प्रभाव कम था. गांवों में सिखों की एक संख्या कांग्रेस में शामिल हुई लेकिन उसका कारण उनमें राजनैतिक चेतना उत्पन्न होना नहीं बल्कि गुरुद्वारों में सुधार लाने की इच्छा थी. शहरी इलाकों में नाम की कांग्रेस कमेटियां तो बनी थीं लेकिन गांवों में वह भी नहीं थीं. पंजाब में लोग सार्वजनिक मीटिंगों में शामिल होते थे, जब कोई बड़े लीडर किसी अन्य राज्य से लाहौर तथा पंजाब के किसी शहर में आते थे लेकिन उनकी हिदायतों की कोई व्यावहारिक प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी.

‘क्राई फॉर जस्टिस’ के अलावा भगत सिंह की प्रिय पुस्तकें थीं डॉन ब्रीन लिखित ‘माई फाइट फॉर आयरिश फ्रीडम’ और ‘हीरोस और हीरोइन्स आफ रशिया.’ भगत सिंह ने मुझे भी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी में शामिल होने के लिए कहा. मैंने उसे कहा ‘मैंने सर्वेंट्स आफ पीपुल्स सोसायटी के आजीवन सदस्य बनते हुए जो प्रतिज्ञा की है उसके अंतर्गत मैं हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी में शामिल नहीं हो सकता.’

मैंने उससे कहा कि मैंने आपकी संस्था के और नियम पढ़े हैं. मैं जानता हूं कि आपके तीन नियम हैं, शस्त्र और असलह को जमा करना, उसका उचित अवसर पर इस्तेमाल करना और सारे देश में साम्राज्यवाद विरोधी प्रोपेगैंडा करना. मैंने भगत सिंह से पूछा था कि क्या तुम जानते हो कि मैं आजकल क्या काम कर रहा हूं ? मैं आजकल किताबें और पैम्पलेट लिख रहा हूं और जगह-जगह लेक्चर दे रहा हूं.

यह सुनकर भगत सिंह ने कहा, ‘गुरुजी मैं संतुष्ट हूं.’ मैंने भगत सिंह से कहा. ‘मैं तुम्हें आश्वासन दिलाता हूं कि तुम्हारी हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी में औपचारिक रूप से प्रवेश किए बिना भी मैं ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूध्द अपने प्रोपेगैंडा को दुगना कर दूंगा ताकि लोग तुम्हारी संस्था और तुम्हारी कार्रवाही को सही मानें.’
नेहरू म्यूजियम नई दिल्ली के लिए ली गई एक इन्टरव्यू में मुझसे पूछा गया कि मेरे यह छात्र, जिनमें भगत सिंह भी शामिल था, मुझसे एक अध्यापक होने के नाते प्रेरणा लेते होंगे ?

मैंने तब भी अपने उत्तर में कहा था कि हर अध्यापक अपने शिष्यों को किसी न किसी तरह से प्रेरणा जरूर देता है और प्रभावित करता है. लेकिन विद्यार्थी भी अपने अध्यापकों को प्रभावित करते हैं और प्रेरणा देते हैं. मैं यह बात बहुत प्रसन्नता और दावे के साथ कहता हूं कि भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, भगवतीचरण तथा नेशनल कॉलेज में मेरे अन्य विद्यार्थियों ने मुझे बहुत प्रभावित किया.

जहां तक भगत सिंह का स्वभाव है उसकी प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत स्वयं उसका अपना परिवार था. उसके पिता सरदार किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह महान देशभक्त थे, जिन्होंने अपना सारा जीवन भारत की स्वतंत्रता के लिए अर्पण कर दिया और बहुत मुसीबतें उठायी. भगत सिंह अपने चाचा सरदार अजीत सिंह के बहुत भारी प्रशंसक थे और औरसंख्या कांग्रेस में शामिल हुई लेकिन उसका उन्हें अपना आदर्श मानकर उनकी इज्जत करते थे.

क्रांतिकारी भगत सिंह को तो बस देश की आजादी की ही लग्न थी. क्रांति ही उसका धर्म था और वह किसी और देवी देवता में विश्वास नहीं रखता था. भगत सिंह मुझसे हर राजनैतिक विषय पर बातचीत करता था. हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की गतिविधियों की बातें वह मुझसे नहीं करता था. क्योंकि वह सभी गुप्त कार्रवाहियां थीं. जो आर्मियों के सदस्यों के बीच की बातें थीं. मैं हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का सदस्य नहीं था. जब भी हम असहयोग आंदोलन की प्रगति और गांधी के विषय में बातचीत करते तो भगत सिंह उत्तेजित होकर गांधीजी की आलोचना करता.

गांधीजी के प्रति भगत सिंह का रवैय्या सुभाषचंद्र बोस की तरह था. सुभाषचंद्र बोस ने गांधी जी से कहा था- ‘बापू, आइये हम वही भाषा सीखें जो अंग्रेज समझते हैं. अहिंसा और जुर्म सहने की फिलोस्फी अंग्रेजों की समझ में नहीं आ सकती. उनका साम्राज्य ताकत के सहारे टिका हुआ है. हमारे पास भी अगर वैसे ही हथियार हों तो नि:सन्देह हमारी विजय होगी. अंग्रेज चार करोड़ हैं और हम चालीस करोड़ हैं.’ भगत सिंह भी इसी तरह का दृष्टिकोण रखता था.

भगत सिंह के साथ मेरी अंतिम भेंट जनवरी के प्रथम सप्ताह 1929 में कलकत्ता में हुई. वह अप्रैल 1929 को गिरफ्तार कर लिया गया था. भगत सिंह ने अपने केश कटवा दिए थे. वह कोट-पैंट और हैट पहनता था. मैं भी कलकत्ता में कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने गया हुआ था. भगत सिंह से मेरी मुलाकात कांग्रेस अधिवेशन में नहीं बल्कि एक दोस्त के घर हुई थी. उनका नाम सेठ छज्जूराम था. सेठ छज्जूराम एक बिजनेस मैन थे. उनके घर पंजाब के बहुत लोग आकर ठहरते भी थे. भगत सिंह वहीं ठहरा हुआ था. मैं पोर्टिको में खड़ा था. भगत सिंह तेजी से आया और सीढ़ियों के रास्ते ऊपर चला गया.

उस समय मेरी भगत सिंह से बातचीत नहीं हुई. हमने एक दूसरे की ओर देखा. उसने मुझे नमस्ते की और वह गायब हो गया. उसके बाद भगवतीचरण मेरे पास आए और कहने लगे – ‘गुरुजी, आपने भगत सिंह को देख लिया है. कृपया यह रहस्य किसी को न बतायें कि आपने उसे कलकत्ता में देखा था.’ मुझे समझ में आ गया कि क्या बात थी. भगवतीचरण, भगत सिंह से पढ़ाई में एक साल सीनियर था.

लाहौर में भगत सिंह, सुखदेव और भगवतीचरण अक्सर मेरे कमरे में आया करते थे. साथ ही गुसलखाना था जिसमें वे नहाते थे. वे अपने कोट-और दूसरे कपड़े गुसलखाने के बाहर ही टांग देते थे. मैंने अक्सर उनकी कपड़ों की जेबों में पिस्तौलों को रखे देखा था. मुझे बहुत से लोगों से पता चला कि हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की शाखाएं बंगाल, बिहार और उत्तरप्रदेश में थीं. दिल्ली और महाराष्ट्र में भी उनका प्रभाव था. राजगुरू तो महाराष्ट्र के रहने वाले थे.

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