सुधीर विद्यार्थी
बात 40 साल पुरानी है. मेरी डायरी में अमृतलाल नागर जी का पता चौक, लखनऊ लिखा हुआ था लेकिन ‘शहर-ए-लखनऊ’ में उनके घर तक पहुंचने में हमें कोई दिक्कत नहीं हुई. एक पुरानी हवेली के बड़े-से फाटक पर उनके नाम की हस्ताक्षरनुमा पट्टिका देखकर मैं प्रसन्नता से भर उठा. आवाज दी तो दरवाजे पर उनकी पत्नी श्रीमती प्रतिभा नागर ने आकर हमारा परिचय पूछा. फिर वे भीतर ले गईं.
खूब चौड़े-चकरे आंगन को पार करके हमने एक बरामदे में प्रवेश किया, जिसके सामने बड़ा-सा कमरा जो पुरानी ईंटों, गुम्मो और खुदाई में निकली न जाने कितनी पुरातात्विक चीजों से भरा पड़ा था. इसी संग्रहालय जैसे ऊंची छत वाले अपने इस घर में नागर जी एक ओर बिस्तर पर बड़ी-सी मसनद की धोक लगाए घुटनों को ऊपर की तरफ़ मोड़े अधलेटे बनियान और सफेद धोती पहने बहुत भव्य लग रहे थे. उनके मुंह में पान खूब रच रहा था.
मैंने आगे बढ़ कर चरण स्पर्श कर लिए. बताया उन्हें कि शाहजहांपुर से आया हूं, आपसे चिट्ठी-पत्री भी हुई है. ‘ग़दर के फूल’ पर बात शुरू हुई तो मैंने कहा कि 1957 के उन दिनों में अवध से थोड़ा बाहर आकर आप यदि शाहजहांपुर, मोहम्मदी, पुवायां और जेबां की तरफ आ जाते तो शहीद मौलवी अहमदउल्ला शाह आपके लिए मख़फी नहीं रहते, जिनका सिर पुवायां रियासत की गढ़ी पर वहां के राजा जगन्नाथ सिंह ने धोखे से कटवा लिया था. हमारे शहर के एक छोर पर बसे लोधीपुर गांव में इस शहीद का मज़ार है.
इतिहास पर नागर जी का कार्य मुझे आरंभ से ही प्रेरित करता रहा था. ग़दर के सौ वर्ष पूरे होने पर उन्होंने पूरे अवध क्षेत्र की धूल छानकर उस पहली क्रांति की जनमानस में बसी स्मृतियों को इकट्ठा किया था. यह एक अद्भुत यात्रा-डायरी है, जिसे उन्होंने बहुत आत्मीयता से लिपिबद्ध किया था. इसके लिए वे गांव-गांव, डगर-डगर घूमे और भटके. ऐसी किताबें बंद कमरे में बैठकर नहीं लिखी जाती.
अपने लेखन के लिए उनकी यात्राओं और खोजबीन का नमूना इस कमरे में रखी पुरातत्व की दुर्लभ सामग्री, खंडित मूर्तियों और ज़मीन के भीतर से निकली ऐतिहासिक महत्व की वस्तुओं के रूप में उस समय हमारे सामने था. मैं उठकर उन जमा की गई चीजों को ध्यान से देखता-बूझता रहा, जिनमें सामाजिक और राजनीतिक उत्थान-पतन का इतिहास छिपा था.
नागर जी बताने लगे – एक हजार बीसी से लेकर 1891 तक का गुम्मा है मेरे पास. लक्ष्मण टीला की खुदाई में बहुत मसाला मिला है. मैंने पुरातत्व की बहुत मदद की है… हां, जनपदीय इतिहासों का कार्य बहुत आवश्यक है. देखो, यह फतेहपुर का सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास अभी लिखा गया है. इसके लिए स्वतंत्रता संग्राम के अलावा लेखकों, कवियों, कलाकारों और हुनरमंद लोगों के बारे में सामग्री एकत्र की जानी चाहिए. संगठित होकर इस काम को करने की आज बड़ी ज़रूरत है. दुःख है कि हम अपने जनपदीय इतिहासों के लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं. इससे अधिक तो अंग्रेज हमारा इतिहास सुरक्षित कर गए.
हिन्दी पर बात चली तो वे ज्यादा ही तल्ख़ हो गए. बोले – हिन्दी को हिन्दू मत बनाओ. मैं आपसे यही कहता हूं कि इसे हिन्दुओं तक सीमित न करिए. आज हम मुसलमानों के बारे में इतना ही जानते हैं कि ईद और मुहर्रम होती है. इससे ज्यादा हम कुछ नहीं जानते. हम हिन्दू रहें, लेकिन हमें एक दूसरे के अधिक नज़दीक आना होगा. अधिक जानना होगा उनको.
…आज हम केवल सूर और तुलसी को ही याद करते हैं. यह स्थिति अच्छी नहीं है. हमें रहीम और रसखान की स्मृति में भी समारोह आयोजित करने चाहिए. इससे दूरियां घटेंगी. जबकि हम ऐसा नहीं कर रहे हैं. हमने हिन्दी को हिन्दुओं तक सीमित कर रखा है. रही मासूम रज़ा, मेहरुन्निसा परवेज हिन्दी में लिखते हैं लेकिन हम उनको नहीं अपनाते. यह काम आप सबको करना है.
नागर जी से बातचीत में उर्दू से उनका प्यार बार-बार सामने आ जा रहा था. उन दिनों चल रहे हिन्दी और उर्दू के झगड़े से वे बहुत आहत थे. बोले मुझसे- भाषाओं का यह तमाशा अच्छा नहीं लगता. उर्दू मीठी जबान है, पर ऑफिशियल लैंग्वेज तो एक ही होनी चाहिए.
उस दिन नागर जी से चौक की उस हवेली में बहुत-सी बातें हुईं. देश, समाज, इतिहास और साहित्य प्रायः हमारी चर्चा के विषय थे. रुक-रुक कर घर परिवार की बातें भी हो जा रही थीं यानी कि अचला (नागर जी की पुत्री अचला नागर) इन दिनों बंबई में हैं…और कि कई बार लेखक को जल्दी ख्याति मिल जाना नुकसानदायक होता है…यह भी कि भुवनेश्वर का मेरा साथ रहा था.
बहुत इंटेलिजेंट आदमी था वह. अंग्रेजी बहुत अच्छी जानता था. अपनी कुशाग्र बुद्धि से उसने बहुत थोड़े समय में समस्त हिन्दी जगत–प्रेमचंद और पंत को भी प्रभावित कर लिया था. ‘चकल्लस’ में मैंने उसका नाटक छापा था. पर वह आदमी सफल नहीं हो सका. उसकी हालत पर मुझे दुःख होता था…
बैठने में तकलीफ हो रही है मुझे–मेरी ओर देखकर बोले नागर जी. फिर उन्होंने प्रतिभा जी को आवाज दी- ये पर्दे गिरा दो. आंखों पर चमक लगती है. एकाएक मेरी तरफ पान का डिब्बा सरकाकर कहा-मैं लेट जाऊं ? दर्द रहने लगा है. अब पड़े-पड़े पढ़ता और लिखता रहता हूं. यही कर सकता हूं इस उम्र में. चल फिर नहीं सकता. और अब तो शहर की गोष्ठियों में भी जाना छोड़ दिया है…सुनाई कम पड़ता है. जब तक विचार-विनिमय सरलता से न हो सके, अच्छा नहीं लगता.
कहीं गहरे से फूट रहा था यह सब और मुझे छह सात वर्ष पूर्व अपने ही बारे में कहे गए उनके वे शब्द याद आ रहे थे- मैंने खुरदरे सादा पत्थर को तराश-तराश कर अपनी जो जीवन-मूर्ति बनाई है, वह अपनी और आलोचकों की नजरों में काफी अच्छी रही है. उसे और भी सुंदर बना सकता हूं-केवल पढ़ी लिखी बातों से ही नहीं. अब तो अपनी भी एक अनुभव-ज्ञान सीढ़ी बन गई है.
जहां तक बनेगा उस पर चढ़ता ही जाऊंगा. जब तक बनेगा अपना दम बढ़ाता ही रहूंगा और जब दम ही न रहेगा तब फिर चिंता कैसी ? मेरी आकांक्षाएं यदि दमदार हैं तो उसका परचम लेकर आगे बढ़ने वाले दमदार लोग भी सामने आ जायेंगे. मेरा कोई समानधर्मा अवश्य ही मेरे काम को समझ-सराह कर उसे आगे बढ़ाएगा.
नागर जी ने उस रोज बताया कि वे एक उपन्यास लिखने में व्यस्त हैं. ‘ये कोठेवालियां’, ‘अमृत और विष’, ‘खंजन नयन’, ‘नाच्यो बहुत गोपाल’, ‘अग्निगर्भा’, ‘बूंद और समुद्र’, ‘बिखरे तिनके’ आदि के बाद यह कैसा उपन्यास होगा- पौराणिक ? ‘अमृत और विष’ के बाद उनकी लगभग सारी कृतियां पौराणिक धरातल पर आ गईं देखकर ही मैंने उनसे यह प्रश्न कर दिया था.
वे बोले–इस नए उपन्यास की पृष्ठभूमि पौराणिक नहीं, सामाजिक है. क्या इसके बाद आत्मकथा जैसा कुछ लिखने का इरादा है आपका ? इस प्रश्न पर नागर जी हंस कर बोले- अभी आत्मकथा लिखने का कोई विचार नहीं है. यह बाद में देखा जायेगा. अभी तो और बहुत काम करने को पड़ा है.
1990 में नागर जी नहीं रहे तो लगा कि वे जल्दी चले गए. उनका बहुत काम पड़ा रह गया. चौक की उनकी वह पुरातन हवेली अक्सर मेरी आंखों में घूम-घूम जाती है…
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