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‘खून की पंखुड़ियां’: एक परिचय

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‘मैं मानता हूं कि जब तक एक भी व्यक्ति जेल में है, मैं भी जेल में हूं. जब तक एक भी व्यक्ति भूखा और नंगा है, मैं भी भूखा और नंगा हूं. फिर ऐसी हालत में एक पीड़ित व्यक्ति दूसरे पीड़ित व्यक्ति को अपमानित क्यों कर रहा है ? हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि उन लोगों की याद मेें, जिन्होंने हमारी दुनिया को बेहतर बनाने के लिए अपनी जानें दे दीं, जिन्होंने उस वर्ग के दम्भ को खारिज कर दिया और जिनका मुहब्बत, सचाई और खूबसूरती में यकीन था, अपने अन्दर की इस नीचता को, इस तुच्छता को छोड़ दें.’ (इसी किताब से)
'खून की पंखुड़ियां': एक परिचय
‘खून की पंखुड़ियां’: एक परिचय
मनीष आजाद

यह उपन्यास एक मर्डर मिस्ट्री से शुरु होता है. देश के दो बड़े पूंजीपति और एक शिक्षा-अधिकारी की न्यू इल्मरोग कस्बे में जलकर मौत हो जाती है. पुलिस वान्जा, करेगा, मुनीरा और अब्दुल्ला से पूछताछ करती है. इन चारों के पास अपने अपने कारण है कि वे ये हत्या अंजाम दे सकते थे. लेकिन 450 पेज के इस उपन्यास में आपको अन्त में जाकर ही पता चलता है कि दरअसल हत्या किसने की है. हत्या और हत्या की गुत्थी सुलझने के बीच ही पूरा उपन्यास पसरा है.

फ्लैशबैक के सहारे हमें उपरोक्त चारों चरित्रों के बारे में पता चलता कि वे ‘इल्मरोग’ कब और क्यों आये, इन चारों मुख्य चरित्रों के बीच आपसी क्या रिश्ता है और इल्मरोग से इनका क्या सम्बन्ध है. इन चारों मुख्य पात्र के अलावा ‘इल्मरोग’ गांव भी एक प्रमुख पात्र है. अपने विभिन्न पात्रों और फ्लैशबैक के सहारे ‘गुगी वा थ्योंगा’ इस गांव के अतीत वर्तमान और कुछ कुछ संकेतों में भविष्य की भी कहानी कहते हैं.

लगभग सभी पात्रों के और इल्मरोग गांव की पृृष्ठभूमि में केन्या का मशहूर ‘माओ माओ आन्दोलन’ सन्दर्भ बिन्दु के रूप में हर समय मौजूद रहता है. सच तो यह है कि गुगी वा थ्योंगा ने अपनी रचनाओं में सीधे सीधे कभी भी ‘माओ माओ आन्दोलन’ को अपना केन्द्रीय विषय नहीं बनाया, लेकिन अंग्रेज उपनिवेशवादियों के खिलाफ केन्याई जनता का यह शानदार सशस्त्र आन्दोलन नमक की तरह उनके समूचे रचनाकर्म में रचा बसा है.

उपन्यास की मुख्य कहानी केन्या के ‘आजाद’ होने के बाद की है. लेकिन फ्लैशबैक के सहारे यह केन्या के औपनिवेशिक अतीत में जाती है और वहीं से वह सूत्र भी लाती है जिससे आज के केन्या के नवऔपनिवेशिक वर्तमान को समझा जा सकता है.

इल्मरोग गांव में जब भीषण सूखा पड़ता है तो ‘करेगा’ के उत्साहित करने पर गांव के लोग शहर जाकर अपने क्षेत्र के सासंद से मिलकर अपनी पीड़ा बताने का निर्णय लेते हैं. और शुरु हो जाती है गांव के लोगों का अपना ‘लांग मार्च.’ कई दिनों के बाद कई तरह की मुसीबतें झेलने के बाद जब वे शहर पहुंचते है तो उन्हें वहां कोई पूछने वाला नहीं है, बल्कि शहर में अव्यवस्था निर्मित करने के आरोप में कई लोगों गिरफ्तार भी कर लिया जाता है. यहां तक कि वान्जा से बलात्कार भी हो जाता है.

हालांकि एक जनपक्षधर वकील इनके मुद्दों को मीडिया में उठाता है और गिरफ्तार साथियों को छुड़ाता है. यह पूरा एपीसोड बरबस ही कुछ सालों पहले सूखे के ही कारण दिल्ली के जंतर मंतर पर तमिलनाडु से आये किसानों की याद दिला देता है.

बहरहाल मीडिया में आने के कारण इल्मरोग केन्या के नक्शे पर आ जाता हैै और सरकार इल्मरोग गांव का विकास करके उसे न्यू इल्मरोग बनाने का फैसला लेती है. और इसके बाद जैसा कि आज भारत समेत पूरी दुनिया में हो रहा है, विकास का रथ गरीबों और उनके संसाधनों को कुचलते हुए विकास की चकाचौध से उन्हें अंधा बनाने लगता है.

इस तरह इल्मरोग गांव ‘न्यू इल्मरोग’ कस्बे में बदल जाता है. यह पूरा एपीसोड दरअसल एक ‘साहित्यिक केस स्टडी’ की तरह है कि वास्तव में पूंजीवादी विकास होता क्या है. उपन्यास में जिस गहराई और व्यापकता के साथ गुगी वा थ्योंगा ने इसे चित्रित किया है, वह इस विषय पर मौजूद किसी भी शोध-पत्र पर भारी पड़ेगा. गुगी वा थ्योंगा ने ना सिर्फ इसके आर्थिक पहलू को दर्शाया है वरन् इसके सांस्कृृतिक, मनोवैज्ञानिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और यहां तक कि आध्यात्मिक पहलू की भी ठोस चर्चा की है.

इल्मरोग के ‘विकास’ का सरकार ने जब फैसला किया तो वहां सबसे पहले किस चीज की स्थापना की गयी- ‘थाना और चर्च की.’ राज्यसत्ता और धर्म के पुराने गठलोड़ को एक सन्दर्भ के बीच महज एक लाइन मेें गुगी वा थ्योंगा ने जबर्दस्त तरीके से उजागर कर दिया.
विकास हो जाने के बाद अब न्यू-इल्मरोग की नयी संस्कृति है (वान्जा के शब्दों में)- ‘खाओ या खुद को खा लिए जाने दो.’ गुगी वा थ्योंगा जैसे रचनाकार जीवन को उसके अन्तरविरोधों में पकड़ते हैं इसलिए अतीत की बात करते हुए वे कभी भी उसे रोमानी नहीं बनाते.

अपनी इसी दृृष्टि के कारण गुगी वा थ्योंगा इल्मरोग में हो रहे पूंजीवादी विघ्वंस को ही नहीं देख रहे होते बल्कि इस विध्वंस के अन्दर छुपी संभावना को भी बखूबी पकड़ रहे होते है. इसलिए वे अन्य दूसरे रचनाकारों की तरह इस विध्वंस का रोना नहीं रोते वरन् इस विध्वंस के कारण पैदा हो रहे मजदूरों के संघर्षो में भविष्य की तस्वीर देखते हैं. न्यू-इल्मरोग में ‘करेगा’ इन मजदूरों को संगठित कर रहा है. करेगा का बड़ा भाई ‘माउ माउ आन्दोलन’ का शहीद है. अब करेगा नये समय में नये वर्ग को संगठित कर रहा है. निरन्तरता और परिवर्तन के द्वन्द को गुगी वा थ्योंगा अच्छी तरह समझते हैं.

अब्दुल्ला, करेगा के बड़े भाई का दोस्त है और उसी की तरह ‘माउ माउ’ आन्दोलन का योद्धा रहा है और इस युद्ध में अपना एक पैर भी गंवाया है.

तथाकथित आजादी के बाद जब वह एक फैक्ट्री में काम मांगने जाता है और उसे वहां से लंगड़ा कह कर अपमानित किया जाता है, तभी वह देखता है कि एक बड़ी विदेशी गाड़ी से काले सूट में एक व्यक्ति निकलता है. फैक्ट्री के लोग जिस तरीके से उसे सम्मान देते हैं, अब्दुल्ला समझ जाता है कि वह फैक्ट्री का मालिक है, लेकिन नजदीक से देखने पर अब्दुल्ला के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता, यह तो वही व्यक्ति है जिसने माउ माउ आन्दोलन से गद्दारी की थी और करेगा के भाई को मरवाया था. करीब आधे पेज का यह विवरण केन्या की आजादी के वर्ग चरित्र का स्पष्ट कर देता है.

वान्जा इस उपन्यास की सबसे जटिल पात्र है और नये केन्या में वहां की औरत के विभिन्न रूपों और उनके अन्तरविरोधों को सामने लाती है. उसके दादा माउ माउ आन्दोलन केे समर्थक थे और उन्हें फांसी दे दी गयी थी, वही उसके पिता अंग्रेज समर्थक थे और माउ माउ आन्दोलन से धृृणा करते थे. वान्जा पूरी तरह से स्वतंत्र महिला है. जीवन के तमाम पड़ावों से गुजरती हुई वह अन्त में अब्दुल्ला को ही अपना पार्टनर चुनती है. अन्य पात्र भी किसी ना किसी तरह से वान्जा के साथ अपने जटिल समीकरणों में बंधे हुए हैं.

मुनीरा भी एक दिलचस्प पात्र है. यह केन्या के नवमध्यवर्ग की दुविधाओं का प्रतिनिधित्व करता है. उपन्यास के अन्त में अब्दुल्ला जब अपने छोटे भाई जोसेफ से मिलता है (जिसे उसने वास्तव में गोद लिया था) तो उसके हाथ में ‘सेम्बेन ओस्मान’ का उपन्यास ‘गॉड्स बिट्स अंफ वुड’ (God’s Bits of Wood) था.

यह उपन्यास 1940 में सेनेगल में हुई रेल मजदूरों की हड़ताल पर है. यहां गुगी वा थ्योंगा स्पष्ट संकेत देते हैं कि भविष्य जोसेफ का और उसके बहाने मजदूरों का है. सेम्बेन ओस्मान का जिक्र भी यहां अनायास नहीं है. दरअसल सेनेगल के सेम्बेन ओस्मान ने अपनी फिल्मों के माध्यम से वही किया है, जो गुगी वा थ्योंगा ने अपने उपन्यासों और नाटकों के माध्यम से किया है.

पूरे उपन्यास मेें ‘जीवन का सौन्दर्य’ केन्या की श्रमशील जनता के सामाजिक-राजनीतिक-प्राकृतिक-सांस्कृतिक परिवेश में रचा बसा है, जिसे अलग से रेखांकित करना असम्भव है. अपने एक इंटरव्यू में गुगी वा थ्योंगा ने कहा भी है कि ‘सौन्दर्य सामाजिक निर्वात में पैदा नहीं होता.’ दरअसल यह उपन्यास प्रकारान्तर से ‘क्रान्तिकारी चेतना’ के निर्माण की कहानी कहता है. यह चेतना आती कहां से हैै, कौन इसका वाहक होता है. इस चेतना से व्यक्ति और समष्टि किस रूप में जुड़े होते हैं.

अल्जीरिया के मशहूर क्रान्तिकारी लेखक ‘फ्रेन्ज फेनान’ ने किसी क्रान्तिकारी लेखक के तीन चरण दर्शाये है- पहला, जब वह जनता के साथ बिना शर्त घुल मिल जाता है, दूसरा, जब वह परेशान होता है कि वह कौन है, उसकी पहचान क्या है और वह इसका उत्तर पाने के लिए इतिहास और अतीत की यात्रा शुरू करता है और तब उसका तीसरा संघर्षशील चरण आता है जहां लेखक जनता को जागृत करने की भूमिका में आ जाता है.

शायद इसे ही ग्राम्शी ‘आरगैनिक इन्टेलेक्चुअल’ का नाम देते हैं. इसी सन्दर्भ में हम यह समझ सकते हैं कि क्यों इस उपन्यास के बाद गुगी वा थ्योंगा ने अंग्रेजी मेें लिखना छोड़कर अपनी देशज भाषा ‘गिकियू’ अपना ली. और इस भाषा मेें उनकी पहली रचना छपते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.

अनुुवाद के बारे में क्या कहा जाय. कहते हैं कि एक भाषा से दूसरी भाषा में जाने से अनिवार्यतः कुछ खो जाता है. यह कितना सच है मैं नहीं जानता, लेकिन आनन्द स्वरूप वर्मा द्वारा अनुवाद किये गये इस उपन्यास में मुझे कुछ भी खोया महसूस नहीं हुआ. पात्रों और स्थान का नाम नजरअंदाज कर दे तो ऐसा लगता है कि यह भारत के ही किसी हिस्से की कहानी है. हां, वहां के लोकगीतों का अनुवाद जरूर अखरने वाला है, लेकिन शायद यह अनुवाद की ही सीमा है, ना कि आनन्द स्वरूप वर्मा की.

इस उपन्यास को गार्गी प्रकाशन ने बहुत अच्छी गुणवत्ता में छापा है. फिलहाल यह उपन्यास गार्गी और अमेजन दोनों जगह उपलब्ध नहीं है.

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