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मीडिया की साख और थ्योरी ऑफ एजेंडा सेटिंग

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मीडिया की साख और थ्योरी ऑफ एजेंडा सेटिंग
मीडिया की साख और थ्योरी ऑफ एजेंडा सेटिंग
कमलेश

पिछले तीन दिनों से अखबार और टीवी न्यूज चैनल लगातार केवल और केवल सचिन राग आलाप रहे हैं. ऐसा लग रहा है मानो देश में पिछले तीन दिनों से दूसरा कोई मसला ही नहीं है. आप सचिन तेंदुलकर को पढ़िये, उसे देखिये और उसी के बारे में बात कीजिए. और कुछ मत सोचिए. थ्योरी ऑफ एजेंडा सेटिंग का इससे बेहतर शायद ही कोई उदाहरण हो सकता है.

हाल के कुछ वर्षों में भारतीय मास मीडिया ने यह दिखा दिया है कि अब उसके लिए विश्वसनीयता अथवा साख के कोई मायने नहीं है. वह उन्हीं मसलों को देश का अहम मसला बनाने का प्रयास कर रहा है, जो इस देश के शासक वर्ग के हित के लिए सही हैं. थ्योरी ऑफ एजेंडा सेटिंग का जितना विकराल रूप आज दिखाई पड़ रहा है उतना मीडिया के किसी भी कालखंड में इस देश के लोगों ने नहीं देखा होगा.

मीडिया के सिद्धांत कहते हैं कि जब मीडिया द्वारा थोपे जा रहे एजेंडे में और आम आदमी के वास्तविक एजेंडे में फर्क शुरू होता है, तो मीडिया के साख का संकट भी शुरू होता है. यह फर्क जितना बड़ा होगा मीडिया की साख भी उतनी ही संकट में पड़ेगी. इतिहास के किसी भी दौर में फर्क इतना बड़ा नहीं हुआ था.

लोकतंत्र और मीडिया

हम अक्सर मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहते हैं. ठीक बात है. यह लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है. अब भारत का लोकतंत्र किनका लोकतंत्र है ? यह लोकतंत्र किनके लिए प्राणवायु का काम करता है ? यह वही लोकतंत्र है जहां बाथे और बथानी टोला के दलितों के हत्यारों को कोई सजा नहीं मिलती. इस देश के महज बीस फीसदी लोगों का है लोकतंत्र.

तो जब लोकतंत्र इस देश के महज बीस फीसदी लोगों का लोकतंत्र है तो इसका चौथा स्तम्भ मीडिया भी महज बीस फीसदी लोगों का ही मीडिया है. जिस तरह इस देश के 80 फीसदी लोग इस लोकतंत्र में हाशिये पर हैं, उसी तरह इस देश के 80 फीसदी लोग मीडिया की चिंता से बाहर है. यही कारण है कि चाहे वह छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की लड़ाई हो या उड़ीसा के आदिवासियों का संघर्ष, इसे मुख्यधारा की मीडिया में कोई जगह नहीं मिल पाती है.

लेकिन इसे स्थानीयता के वृत्त से बाहर निकाल कर जरा बड़े कैनवास पर देखने की जरूरत है. हम अक्सर इसके लिए इन मीडिया हाउसों में काम करने वाले पत्रकारों को जिम्मेवार ठहराते हैं. क्या किसी मीडिया हाउस में काम करने वाले पत्रकार उसका स्वरूप और उसका एजेंडा बदल सकते हैं ? क्या पत्रकारों के बदलने से साख का संकट हल हो जाएगा ?

मीडिया की आंतरिक संरचना

1988 में एडवर्ड एस हरमन और नॉम चॉम्सकी ने एक किताब लिखी थी- मैन्यूफैक्चरिंग कंसेंट. इस किताब में इन मीडिया विशेषज्ञों ने जिन बातों को सूत्र रूप में रखा, वह आज भारत में अपने विराट रूप में दिखाई पड़ रहा है. इन विशेषज्ञों ने उसी समय कहा था कि दरअसल अभी के मीडिया में जो कुछ दिखाई पड़ रहा है वह किसी षड़यंत्र की वजह से नहीं है. मीडिया की अपनी आंतरिक बनावट ही ऐसी है जो उसे आम लोगों और मेहनतकश लोगों के खिलाफ खड़ा करती है.

मीडिया की संरचना से ही उसका कंटेंट प्रभावित होता है. मीडिया की संरचना शासक वर्ग अथवा इलीट वर्ग के पक्ष में है इसलिए मीडिया का कंटेंट भी शासक वर्ग और इलीट वर्ग के पक्ष में होता है. मीडिया की सामाजिक भूमिका प्रभुत्वशाली समूहों के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक एजेंडे को न केवल स्थापित करना है बल्कि उसका बचाव भी करना है.

युद्ध और मीडिया का सच

कोई भी साम्राज्यवदी देश जब किसी कमजोर मुल्क पर हमले शुरू करता है तो भारत का शासक वर्ग तुरत उस साम्राज्यवादी मुल्क के पक्ष में उसी तरह खड़ा होता है, जैसे उस साम्राज्यवादी देश का शासक वर्ग खड़ा होता है. चूंकि शासक वर्ग इस युद्ध के पक्ष में खड़ा होता है इसलिए मीडिया उस युद्ध के पक्ष में आम राय बनाने में जुट जाता है. पिछली सदी में इराक पर हुआ अमेरिकी हमला इसे बड़े दिलचस्प तरीके से दिखाता है.

पिछले दिनों वरिष्ठ लेखिका अरुंधति राय ने अपने एक साक्षात्कार में इस मसले को लेकर एक दिलचस्प घटना बताई थी. उनके अनुसार इराक युद्ध के पहले न्यूयार्क टाइम्स के रिपोर्टर ने लगातार खोजी खबर लिखी कि इराक के पास आणविक और रासायनिक हथियार हैं. इसी को आधार बनाकर अमेरिका ने इराक पर हमला कर दिया. जबकि इराक बार-बार कह रहा था कि उसके पास कोई आणविक हथियार नहीं है. फिर भी इराक को तहस-नहस कर दिया गया.

हालांकि उस समय भी लोगों को इस बात की जानकारी थी कि इराक पर हमले की वजह उसके पास परमाणु हथियार का होना नहीं है. इराक को पूरी तरह बरबाद कर दिया गया. इस घटना के छह साल बाद न्यूयार्क टाइम्स ने भीतर में एक छोटी सी जगह में यह कहते हुए अपने पाठकों से माफी मांग ली कि हमने जो इराक के पास आणविक हथियार होने की खबर छापी थी, वह दुर्भाग्य से गलत थी क्योंकि बाद में छानबीन से साबित हो गया है कि इराक के पास कोई हथियार मौजूद नहीं था.

लेकिन मजेदार तो यह रहा कि अमेरिका के प्रसिद्ध डॉक्यूमेंटरी फिल्म मेकर माइकल मूर ने इस माफीनामे का उपयोग अपने किताब में करने की अनुमति न्यूयार्क टाइम्स से मांगी. लेकिन न्यूयार्क टाइम्स ने कापीराइट एक्ट के उल्लंघन का हवाला देते हुए इसकी अनुमति नहीं दी.

युद्ध और वीडियो गेम

यहां यह याद रखना जरूरी है कि भारत का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उस युद्ध को किस तरह दिखा रहा था. यह शायद दुनिया के इतिहास में पहली बार था कि मीडिया ने एक युद्ध को वीडियो गेम की तरह दिखाया. पूरी खबरें दिखाने का अंदाज ऐसा था कि आप इस युद्ध की विभिषिका से दुःखी मत होइये, इसका मजा लीजिए. मीडिया की किताबें कहती हैं कि खबर के स्रोत जितने ज्यादा होते है मीडिया की साख उतनी ही ज्यादा होती है.

आप याद कीजिए कि अमेरिका-इराक युद्ध की रिपोर्टिंग कर रहे भारतीय पत्रकारों के स्रोत क्या था- केवल अमेरिकी फौज और उनके द्वारा दी गई सूचनाएं. किसी भी चैनल ने हम भारतीयों को यह दिखाने की कोशिश नहीं की कि इस युद्ध को लेकर इराक के लोग किस तरह की नारकीय यंत्रणा झेल रहे हैं. आप जरा हाल में अफजल गुरु के प्रकरण को याद कीजिए. असहमति का स्वर मीडिया में दिखाई नहीं पड़ रहा था. अखबारों और न्यूज चैनलों में केवल उनकी बातें आ रही थीं जो भारत सरकार के कदम को देशभक्ति का सबसे बड़ा कदम मान रहे थे.

मीडिया कवरेज और पांच फिल्टर

नॉम चॉम्सकी कहते हैं कि मीडिया के कवरेज को पांच चीजें प्रभावित करती हैं –

  1. स्वामित्व,
  2. विज्ञापन,
  3. असहमति,
  4. स्रोत और
  5. कम्युनिज्म विरोध.

कम्युनिजम विरोध को जरा और व्यापक फलक पर कहें तो दलित विरोध, पिछड़ा विरोध, आदिवासी विरोध और कुल मिलाकर मेहनतकश आवाम का विरोध.

मीडिया टाइजेशन

एक नया सिद्धांत चर्चा में है जिसे मीडिया टाइजेशन या मीडिया चालन कहते हैं. जब मीडिया की ताकत इतनी बढ़ जाए कि वह राजनीतिक सत्ता पर हावी हो जाए. मसलन नीरा राडिया प्रकरण से इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है. जब कारपोरेट सेक्टर को सरकार को लेकर खेल करना था तो उसने नीरा राडिया की पीआर कंपनी के माध्यम से मीडिया की मदद ली. मीडिया इस काम को करने में सक्षम था क्योंकि वह राजनीतिक सत्ता पर अपना प्रभाव डाल रहा था. इसका मतलब यह भी मीडिया बेलगम और उद्दंड हो गया है तथा उस पर किसी का नियंत्रण नहीं रह गया है.

साख मतलब हिस्सेदारी

और हम जब इस मीडिया में साख की बात करते हैं तो इसका सीधा मतलब है कि हम इस मीडिया में आम आदमी के लिए हिस्सेदारी मांग रहे हैं. वह मीडिया जिसमें इस देश के कारपोरेट सेक्टर के 60 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा लगे हैं, वह इस देश के आदमी को हिस्सा देगा ? मीडिया कारपोरेट घराने द्वारा संचालित है जिसका मुख्य काम मुनाफा कमाना है. फिर इसमें वह उनलोगों को जगह क्यों दे जो उसके मुनाफा कमाने के सिलसिले में किसी भी काम के नहीं हैं.

तो इस हिस्से को पाने के लिए के लिए इस देश के लोगों को उसी तरह लड़ना होगा जिस तरह आप अपने बाकी के हक-हकूक के लिए लड़ते हैं. याद रखिये राजा को नंगा वह मीडिया नहीं कहेगा जो उसी राजा की मदद से अपने 60 हजार करोड़ के कारोबार को चला और बढ़ा रहा है. इस मीडिया में हिस्सेदारी के लिए या फिर इस मीडिया का चेहरा बदलने के लिए लड़ाई लड़नी होगी. इस लड़ाई को देश के सुदूर गांव-देहातों में लड़ी जा रही उस लड़ाई से जोड़ना होगा, जिसका उद्देश्य इस देश की सूरत को बदलना है. यह काम इस देश का आम आदमी ही कर सकता है और वही करेगा.

  • यह आलेख 17 नवंबर, 2013 को लिखा गया था. यह आलेख आज और ज्यादा प्रसांगिक है.

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