30 जुलाई 1987 को प्रधानमंत्री राजीव श्रीलंका एयरपोर्ट पर थे. वहां वे शांति समझौते के लिए गए थे. वापसी में उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाना था. श्रीलंकन सैनिकों की गारद के सामने, लाल कारपेट पर चलते हुए उन्होंने सलामी ली. जब वे विजेता विजेमुनी नाम के सैनिक के सामने से गुजरे, उसने आगे बढ़ अपनी राइफल के बट से राजीव पर वार किया. स्वप्रेरणा से राजीव झुके, वार कंधे औऱ पीठ पर लगा. तुरन्त ही उस सैनिक को काबू कर लिया गया.
श्रीलंका, मूलतः दक्षिण भारतीय रेस है, जो सदियों पहले जा बसे, अब बौद्ध, सिंहल भाषी, सिंहली हैं. जो 18वी सदी में, चाय बागानों में काम करने के लिए तमिलनाडु से गए, तमिलभाषी, हिन्दू है. वे तमिल हैं. तो तमिल, मजदूर थे. धीरे धीरे समृद्ध होते गए. इनमें शिक्षा और अंग्रेजी का प्रसार था, सो ब्रिटिश दौर में अच्छे पदों पर थे. अंग्रेजों के जाने के बाद उनके प्रति नफरत को सरकारी शह मिली क्योकि अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का खेल, वोट कैचर होता है और अशान्ति, गृहयुद्ध का कारक भी.
50 के दशक में तमिल प्लांटेशन वर्कर्स की नागरिकता हटाई गई, फिर सिंहली को राष्ट्रभाषा बना, तमिलों पर थोपा गया. इस नीति ने लंका में दंगे भड़काये. समाज भीतर ही भीतर सुलगता रहा. धीरे-धीरे तमिल भाषा, तमिल साहित्य, फ़िल्म बैन होने लगी. तमिलों को नौकरी और शिक्षा के अवसर घटा दिये गए. इसकी प्रतिक्रिया, पोलिटीकल एक्टिविज्म में हुई और सशस्त्र विद्रोह में बदल गयी.
70 के दशक में कई हथियारबन्द तमिल संगठन बने. ये लंका सरकार के ठिकानों को निशाना बनाते और एक दूसरे को भी. क्योंकि अलग तमिल देश की मांग हो रही थी. हर संगठन इसका अकेला दावेदार बनना चाहता था. आखिर सबको मार मूर कर, लिट्टे नाम संगठन ताकतवर हो गया. प्रभाकरण इसका नेता था. 1983 में तमिल विरोधी दंगे हुए. जो छिटपुट आतंकवाद था, वह फुल फ्लेज सिविल वॉर में बदल गया.
इंदिरा के दौर में भारत की सहानुभूति तमिलों के साथ थी. कई तमिल संगठनों को ट्रेनिंग और हथियार, भारत से मिलने के आरोप हैं पर इंदिरा की हत्या औऱ राजीव के बाद सिनेरियो बदल गया. राजीव को आजकल लोग, कश्मीर में आतंकवाद, सिख दंगे, शाहबानो और राम मंदिर वगैरह के लिए याद करते हैं क्योंकि इतना ही व्हाट्सप ग्रेजुएशन के सिलेबस में है. सचाई यह कि (कुछ अपवाद के अलावे) वो भारत के निर्माण और ताकत का दौर था.
पाकिस्तान से सियाचिन जीता गया, चीन को अरुणाचल में पीछे धकेला गया. नए हथियार, युद्धपोत, जहाज आ रहे थे. अर्थव्यवस्था बूम पर थी. जीडीपी 7-8-9-10% की ग्रोथ दिखा रही थी. वहीं पंजाब समझौते, असम समझौते और उत्तर पुर्व में आतंकियों को मुख्यधारा में आने का अवसर देकर शान्ति स्थापित की गई. कश्मीर में आतंक, उनके सत्ता से हटने का बाद फूटा. स्वर्ण मंदिर में जो काम बहुचर्चित ‘ब्लू स्टार’ न कर सका, गुमनाम ऑपरेशन ‘ब्लैक थंडर’ ने कर दिया.
तो इंदिरा के अधूरे काम समेटते राजीव ने श्रीलंका पर नजर डाली. श्रीलंका सरकार से बात की. प्रभाकरण को दिल्ली बुलाकर बात की. दोनों पक्षो को युद्ध विराम के लिए राजी किया. श्रीलंका में शांति सेना भेजने का समझौता किया. कभी सोचा इस सब्जेक्ट पर.. ?? कि दुनिया मे या तो UN पीसकीपिंग फोर्स भेजता है, या अमेरिका. यहां ‘भारतीय प्रभाव के इलाके में’ भारत शांति सेना भेज रहा था. इसी दौर में नेवी/एयरफोर्स ने मालदीव में घुसकर मारा, और तख्ता पलट करने वालों को भगाकर गयूम की सरकार रिस्टोर की. यह राजीव का दम था.
लेकिन यह बात न लिट्टे को पसन्द थी, न लंका सरकार को. लिट्टे को लगता कि वह भारी पड़ रहा था, पृथक देश बना लेता लेकिन शान्ति सेना के सामने सरेंडर करना पड़ रहा है. श्रीलंका सरकार को भी अपनी भूमि पर विदेशी सेना, मन मारकर स्वीकारनी पड़ी थी. तो शांति समझौते के अगले ही दिन, गार्ड ऑफ ऑनर के समय राजीव पर हमला हो गया.
मूर्खाधिपति के एक गद्दार समर्थंक ने यह तस्वीर मेरी सोशल मीडिया पेज पर भेज करके बताया, कि देखो.. उस दौर में लोग राजीव से कितनी नफरत करते थे. हमने उस दौर को देखा है पगले. जिया है. एक घटिया कैम्पेन के बाद, राजीव सत्ता से बाहर हुए. नई सरकार ने शान्ति सेना को वापस लाने का फैसला किया और साल भर में गिर गई. चुनाव हुए. राजीव के सत्ता में लौटने की संभावना थी. श्रीलंका में शान्ति की उनकी नीति जगजाहिर थी.
प्रभाकरण ने उनकी जान ले ली. विजेता विजेमुनी ने नहीं. उसकी बंदूक में संगीन लगी थी. हत्या करना चाहता, तो बंदूक उल्टी कर वार न करता ? नेता को रिस्क लेना पड़ता है. राजीव के बाद, क्षेत्रीय महाशक्ति के रूप में भारत का लगातार पराभव हुआ. अब बंगलादेश नेपाल, लंका, भूटान तो क्या…मालदीव भी आंखें दिखाता है.
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राजीव-श्रीलंका के उपरोक्त लेग पर…कमेंट्स आये –
ये ऑपरेशन फेल था, बेवकूफी थी. 1200 भारतीय सैनिकों को जान गई. देश को कोई लाभ नही हुआ.
एक सीनियर IAS हैं, उम्र में बड़े, मगर उनका प्रेम रहा मुझ पर. एक शाम, मैनें उनसे, दो अफसरों की कार्यशैली की तुलना की. सुर्खियों में रहने वाले पूर्व अफसर की तारीफ की. कहा- उसने फलां फलां क्राइसिस बढ़िया निपटाया.
और मौजूदा अफसर ??
मैनें उसे उबाऊ..बोझिल, निष्क्रिय कहा.
साहब मुस्कुराए. एक घूंट लिया, ग्लास रखा, बोले – ‘मनीशश्श.. काबिल अफसर वही है, जिसका कार्यकाल पब्लिक को बोझिल और निष्क्रिय लगे. जिसके दौर में कोई संकट, लॉ एंड ऑर्डर, सुर्खियों की सिचुएशन ही न बने. लम्बी स्पीच का लब्बोलुआब था कि जिले में, अपराध, सोशल टेंशन, विवाद, संकट के बादल हर समय घुमड़ते हैं. बुद्धिमान अफसर निगाह रखता है, और आग भड़कने के पहले डिफ्यूज कर देता है. तो पब्लिक को उसका कार्यकाल उबाऊ, नॉन हैपीनिंग लगता है. जिस अफसर ने संकट झेला, हीरो बना, वह होशियार नहीं, नाकाबिल था. संकट बनने ही न दे, काबिल तो वह है.
तमिल ईलम की मांग श्रीलंका में शुरू हुई थी. इसे भारतीय तमिलों का समर्थन था. धन, हथियार, नेटवर्क, सेफ हाउस, रेमिंटेन्स, संचार सब भारत से होकर गुजरता था. और एक ग्रेटर ईलम, याने अखण्ड तमिल राष्ट्र का कॉन्सेप्ट जमीन पकड़ने लगा था. तमिलनाडु और श्रीलंका के तमिल बहुल इलाकों को मिलाकर तमिल होमलैंड की सुगबुगी बन रही थी.
श्रीलंका में गृहयुद्ध का फ्यूचर कोर्स, राजीव सरकार ने भांप लिया था.आग श्रीलंका में ही बुझ जाए, बेहतर होता. तमिलों को समर्थन की नीति त्यागी गई. IPKF ने, दरअसल भारत में एक नए अलगाववादी आंदोलन की भ्रूण हत्या कर दी. राजीव के कई कदम, ऐसे प्रिवेंटिव एक्शन थे –
- शाहबानो मसले में कोर्ट का आदेश, औरत के हक में मानवीय फैसला था. मगर पर्सनल लॉ में दखल था. भविष्य में ऐसे और फैसलों का परनाला खोलता. संविधान- सर्वोच्च कानून है, और पर्सनल लॉ उसकी गारंटी. राजीव ने उस गारन्टी को रिस्टोर किया. हां, इसमें उन्हें राजनीतिक लाभ की आशा भी थी. जो बूमरैंग हुआ, और ‘तुष्टिकरण’ शब्द भारतीय राजनीति में अविष्कृत हुआ.
- राम मंदिर शिलान्यास, 1988 में ही न्यूट्रल प्लेस में कर चुके थे. सत्ता में होते तो 2-3 साल में एक गैर विवादित मन्दिर बन जाता. देश कितनी डेथ, डिस्ट्रक्शन और नफरती राजनीति से समाज के भ्रंश को बाईपास कर जाता. 30 साल मन्दिर-मस्जिद, हिन्दू मुस्लिम प्रश्न की जगह हम कम्प्यूटर, इकॉनमी, युवाओं पर सोचते, तो देश कहां खड़ा होता ? थिंक ईट ओवर..
उन्हें राजनीतिक लाभ की आशा भी थी तो क्या दिक्कत है ??संविधान के साथ खड़े रहकर, एकता की राह बनाकर, वोट पाने की लालसा…संविधान उखाड़कर, एकता नष्ट कर वोट कबाड़ने की लालसा से बेहतर है न ?
नार्थईस्ट में लालडेंगा समझौता, मिजो-कुकी, नगा सँघर्ष का अंत उनकी उपलब्धि है. जो आज आप नॉर्थ ईस्ट पर्यटन को जाते हैं, यह उस दौर का लगाया फल है. असम समझौता तो गजब था.
कभी सोचा कि प्रधानमंत्री, अपनी पार्टी की गवर्मेंट से इस्तीफा दिलवाए, चुनाव कराए और छात्रों के लुंजपुंज दल को जीतकर सरकार बनाने दे ?? प्रफुल्ल मोहन्ता स्टूडेंट होस्टल से CM हाउस शिफ्ट हुए, राज्य में शांति आयी. पंजाब समझौता सीमित कारगर रहा. ब्लू स्टार के बाद, इस समझौते ने पंजाब में शान्ति की खिड़की खोली लेकिन आतंकी अब भी ताकतवर थे.
स्वर्ण मंदिर हथियारों और चरमपंथियो का सेफ हाउस था. ‘ऑपरेशन ब्लेक थंडर’ हुआ. यह सेकंड ‘ब्लू स्टार’ था, और सौ गुना सफल था. पर लोग ब्लू स्टार को जानते हैं, इसे नहीं. आपको नही पता होना ही तो सफलता है.
जब तक राजीव पीएम थे, कश्मीर में आतंकवाद नहीं था. ’87 के चुनाव में,चरमपंथियों को बेईमानी से हराने की बात कही जाती है. वह कितना राजीव का काम था, कितना जगमोहन का, आप सर्च करें. अतिवादी एक्शंस के कारण राजीव ने जगमोहन को हटा दिया था. वीपी सरकार उन्हें दोबारा राज्यपाल बनाकर लायी. और उनका दोबारा आना, कश्मीर में नर्क के दरवाजे खुलने का क्षण था.
एक और आरोप है- एंडरसन को भगा देना. तो क्या आपको पता है कि एंडरसन को कोर्ट ने जमानत दे दी थी. अब क्या भोपाल की सड़कों पर लिंच होने को छोड़ दिया जाता. उसे सुरक्षित निकाल दिया, ठीक किया. वैसे, वो यहां रहता तो कानूनन क्या ही उखाड़ लेते भाई ?? केशव महिंद्रा, जो यूनियन कार्बाइड का लोकल हेड था, असली लापरवाह- उसका क्या उखाड़ लिए ?? नथिंग ??
राजीव, घुटे हुए पॉलिटिशियन नहीं थे. उनकी यही कमजोरी, हमारा लाभ थी. उनकी निगाह अगले चुनाव पर नहीं होती थी. कल की हेडलाइन पर नहीं होती थी. वो 21वीं सदी के भारत निर्माण पर टिकी होती थी.
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