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जरूरत है महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की विरासत को आगे बढ़ाने की

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जरूरत है महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की विरासत को आगे बढ़ाने की
जरूरत है महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की विरासत को आगे बढ़ाने की
मुनेश त्यागी

‘मैं ईसा की तरह सूली पर से यह नहीं कहता- पिता उन्हें क्षमा कर. वे नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं. मैं कहता- पिता इन्हें हरगिज क्षमा मत करना. ये कमबख्त जानते हैं कि यह क्या कर रहे हैं.’

ये कमाल के शब्द हैं महान व्यंग्यकार साहित्यकार हरिशंकर परसाई के. हरिशंकर परसाई का जन्म मध्य प्रदेश में इटारसी के निकट जमानी में 22 अगस्त 1924 को हुआ था. उनका निधन 10 अगस्त 1995 को जबलपुर में हुआ था. उनकी पूरी शिक्षा मध्यप्रदेश में हुई थी. उन्होंने हिंदी में एमए किया था. उन्होंने ‘वसुधा’ नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका आरंभ की थी. उन्होंने हिंदुस्तान, धर्मयुग आदि पत्रिकाओं आदि में नियमित रूप से लेखन किया था.

उनकी प्रमुख रचनाएं हैं – हंसते हैं, रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, तब की बात और थी, वैष्णव की फिसलन, तिरछी रेखाएं, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, शिकायत मुझे भी है, सदाचार की तारीफ, बेईमानी की परत, भूत के पांव पीछे, पगडंडियों का जमाना.

हरिशंकर परसाई ने अपने जीवन में नौकरी की, अध्यापन किया, 33 वर्ष की उम्र में सरकारी नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्र लेखन की शुरुआत की. उस समय उनके पास कोई अनुभव भी नहीं था, बस उनके पास केवल अद्भुत इच्छा शक्ति थी. उन्होंने अपनी व्यंग रचनाओं में उर्दू हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया था. वे व्यंग्य के रूप में लिखते हैं – ‘मैं मरूं, तो मेरी नाक पर सौ का नोट रख देना, शायद उठ जाऊं.’

वे कबीर की तरह खरी-खोटी सुनाने से नहीं हिचकते थे. उन्होंने अपने व्यंग ‘मैं नर्क से बोल रहा हूं’ में लिखा था –

‘हे पत्थर पूजने वालों, तुम्हें जिंदा आदमी की बात सुनने का अभ्यास नहीं है, इसलिए मैं मर कर बोल रहा हूं. जीवित अवस्था में तुम जिसकी ओर आंख उठाकर नहीं देखते थे, उस सड़ी हुई लाश के पीछे जुलूस बनाकर चलते हो. जिंदगी भर तुम जिससे नफरत करते हो, उसकी कब्र पर तुम चिराग जलाने जाते हो. मरते वक्त तक जिसे तुमने चुल्लू भर पानी नहीं दिया, उसके हाड गंगाजी में ले जाते हो. अरे, तुम जीवन का तिरस्कार और मरण का सत्कार करते हो. इसलिए मैं मर कर बोल रहा हूं. मैं नर्क से बोल रहा हूं.’

उनका व्यंग केवल मनोरंजन के लिए नहीं था. उन्होंने अपने व्यंग में पाठकों का ध्यान, समाज में व्याप्त विसंगतियों और कमजोरियों की ओर आकर्षित किया था. उन्होंने अपने लेखन में राजनीतिक और सामाजिक जीवन में फैले शोषण, जुल्म, अन्याय और भ्रष्टाचार पर जोरदार तंज किया था, जो हिंदी साहित्य में अनूठा स्थान रखता है. उनकी मान्यता थी कि सामाजिक अनुभव के बिना वास्तविक और सच्चा साहित्य और लेखन नहीं किया जा सकता.

उन्होंने सामाजिक विसंगतियों पर जोरदार प्रहार किया. उन्होंने अपने सारे जीवन संघर्ष किया, मगर कलम का कभी समझौता नहीं किया. उन्होंने सीधा और सच्चा लेखन किया. उन्होंने गोलमोल भाषा का प्रयोग कभी नहीं किया. उन्होंने लिखने के लिए पढ़ना हमेशा जारी रखा. वह पढ़ाई को जीवन और संघर्ष की आधारशिला समझते थे. हरिशंकर परसाई ने अपने लेखन से हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा को नया रूप, रंग और पहचान दी. हिंदी संसार सदैव ही उनका कर्जमंद रहेगा.

हरिशंकर परसाई अगर आज होते तो वे ‘भिखारी’, ‘साहेब’, ‘सरकार’, ‘कुछ का विकास गरीबों का विनाश’, ‘विश्व गुरु’, ‘अपना-अपना समाजवाद’, ‘मनुवाद’, ‘शोषण’, ‘अन्याय’, ‘भेदभाव’, ‘जुल्मो सितम’ के सनातनी रूप और रंग, किसी को भी नहीं बख्शते. उनके व्यंग्यकारी बाण इन सनातनी विसंगतियों को अबाध गति से, बिना चूके ही बेधते रहते.

भारत की आजादी के बाद वे शोषण, अन्याय, संप्रदायवाद, साम्राज्यवाद, पाखंड, अनीति, अनाचार और अत्याचार के खतरों से जीवन पर्यंत लड़ते रहे और उनके खिलाफ लिखते रहे. वे अपनी सारी जिंदगी एक विद्रोही बन कर रहे. उनके पसंदीदा लेखक और शायर थे – कबीर, ग़ालिब, प्रेमचंद, निराला, फैज अहमद फैज और मुक्तिबोध.

उनके कुछ व्यंग्य गजब के हैं, उन पर एक नजर डालते हैं –

‘तारीफ करके आदमी से बडी से बडी बेवकूफी करायी जा सकती है.’

‘चूहा दानी के मुंह से छोटी से छोटी चुहिया घुस सकती थी, मगर उसके पीछे का दरवाजा इतना बड़ा बनाया गया था कि उससे बड़े से बड़ा चूहा भी बड़ी आसानी से बाहर निकल सकता था.’

‘जब धर्म, धंधों से जुड़ जाये तो इसे योग कहते हैं.’

‘धर्म अच्छे को डरपोक और बुरे को निडर बना देता है.’

‘सड़ा हुआ विद्रोह, एक रुपए में चार आने के हिसाब से बिक जाता है.’

‘दानशीलता, सीधापन, भोलापन, असल में एक तरह का इन्वेस्टमेंट हैं.’

‘अर्थशास्त्र, जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ़ बैठता है तो गौरक्षा आंदोलन के नेता, पंडित जूतों की दुकान खोल लेते हैं.’

महान साहित्यकार हरिशंकर परसाई, सच्चाई से परिपूर्ण विचारधारा के प्रचार प्रसार करने पर जोर देते थे. उन्होंने कहा था – ‘सत्य को भी प्रचार चाहिए, अन्यथा वह मिथ्या मान लिया जाता है.’ मुक्ति के बारे में उन्होंने कमाल की कल्पना की थी. उन्होंने कहा था –

‘मुक्ति अकेले-अकेले नहीं मिलती. अलग से अपना भला नहीं हो सकता, मनुष्य की छटपटाहट है मुक्ति के लिए, सुख के लिए, न्याय के लिए, पर यह बड़ी लड़ाई अकेले-अकेले नहीं लड़ी जा सकती. अकेले वही सुखी है जिसे कोई लड़ाई नहीं लड़नी.’

‘आवारा भीड के खतरे’ में हरिशंकर परसाई कहते हैं –

‘दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंशवादी, बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है. इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं. इस भीड़ का उपयोग हिटलर और मुसोलिनी ने किया था. यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है.

‘यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उन्माद और तनाव पैदा कर दें. फिर इस भीड़ से विध्वंशक कम कराई जा सकते हैं. यह भीड़ फ़ासिस्टों का हथियार बन सकती है. हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है. इसका उपयोग भी हो रहा है. आगे इस भीड़ का उपयोग राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है.’

हरिशंकर परसाई लेखकों को सलाह देते हैं कि उन्हें अहंकारी बनने की जरूरत नहीं है. वे कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर रहे हैं. वे लेखकों का आह्वान करते हैं कि वे लोगों के संघर्षों में शामिल हों और एक बेहतर व्यवस्था और बेहतर इंसान बनाने की कोशिश करें. ‘माटी कहे कुम्हार से’ की भूमिका में हरिशंकर परसाई कहते हैं –

‘अपने लेखन के बारे में मुझे गलतफहमी नहीं है. अनुभव ने सिखाया है कि लेखक का अहंकार व्यर्थ है. हम कोई युग परिवर्तन नहीं हैं. हम छोटे-छोटे लोग हैं. हमारे प्रयास छोटे-छोटे होते हैं. हम कुल इतना कर सकते हैं कि जिस देश, समाज और दुनिया के हम हैं और जिनसे हमारा सरोकार है, उनके उस संघर्ष में भागीदार हों जिससे बेहतर व्यवस्था और बेहतर इंसान पैदा हों.’

हरिशंकर परसाई जनता के लेखक थे. वे जनता से मिलते थे, जनता की बात करते थे, जनता के दुख दर्द दूर करने की कोशिश करते थे और जनता के दुःख दर्दों पर जमकर लिखते थे. आतताईयों को खरी खोटी सुनाते थे. उनके विरोधियों ने उन पर व्यक्तिगत हमले किए, उनके साथ मारपीट की, मगर उन्होंने उनकी परवाह नहीं की.

वे इतने कमाल के लेखक थे कि जनता ने उनके पीछे लामबंद होकर, उनके लेखन का समर्थन किया और उनकी रक्षा की और उन्हें कई हमलों से बचाया. आज हमें भी सच्चे साहित्यकार बनकर, जनता के साहित्यकार बनाकर, हरिशंकर परसाई के नक्शे कदम पर चलने की जरूरत है, जनता की मुक्ति के लेखक बनने की जरूरत है.

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