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संतों और धर्म की पूंजीपतियों को जरूरत क्यों पड़ती है ?

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‘उस आदमी की शिक्षा भी वैसी ही है, जैसे उसके कपड़े हैं. कोई नहीं. मुझे नग्नता से कोई समस्या नहीं है. मुझे शासन में धर्म से समस्या है’ – विशाल डडलानी
संतों और धर्म की पूंजीपतियों को जरूरत क्यों पड़ती है ?
संतों और धर्म की पूंजीपतियों को जरूरत क्यों पड़ती है ?
जगदीश्वर चतुर्वेदी

संतों और धर्म की पूंजीपति को जरूरत क्यों पड़ती है ? इस सवाल का सही उत्तर समाजशास्त्री बेबर ने दिया है. उसने लिखा – ‘पूंजीपति को ऊर्जा पैदा करने के लिए धर्म की जरूरत पड़ती है.’ पूंजीवादी विकास के लिए ऊर्जा का होना बेहद जरूरी है. यही वजह है हमारे देश में धर्म का उन्माद पैदा करने लिए पूंजीपति-व्यापारी बड़े पैमाने पर पैसा खर्च करते हैं. पूंजीपति और संतों का गठजोड़ परंपरावाद और पूंजीवादी उपभोग के वैचारिक-सामाजिक तानेबाने को बनाने में लगा रहता है.

जो उपभोगवादी है, वह परंपरावादी भी है. यही वह बुनियादी प्रस्थान बिंदु है जहां से नया उपभोक्तावाद और उपभोक्ता बन रहा है. यह एक खुला सच है उपभोक्तावाद के विकास के साथ धर्म का भी तेजी से विकास हुआ है. वे एक-दूसरे के पूरक के तौर पर भूमिका अदा करते हैं. यह कैसे संभव है कि पूंजीवादी उपभोग तो सही है और धर्म गलत है. असल में धर्म और पूंजीवादी उपभोग एक पैकेज है.

पुरानी आर्थिक परंपरा से मुक्ति का अर्थ, धर्म से मुक्ति नहीं है बल्कि उलटा देखा गया है. पुराने आर्थिक संबंधों से मुक्त होते ही धर्म भी बड़े पैमाने पर फलने-फूलने लगता है. यही वजह है हमारे यहां पूंजीपति मात्र पूंजीपति नहीं होता बल्कि वह धर्मप्राण प्राणी भी होता है और वह समाज में प्रचार करता है कि मनुष्य धार्मिक-सामाजिक-प्राणी है. यह भी देखा गया है पूंजीवादी पेशेवर लोगों में धार्मिक भावबोध प्रबल होता है, खासकर हिन्दुओं में.

आधुनिक युग के संत भगवान के नहीं पूंजीवाद के गुलाम हैं. वे पूंजीवादी बर्बरता, शोषण और लूट के संरक्षक हैं. पूंजीवादी लूट को वैध बनाने, स्वीकार्य योग्य बनाने में इन संतों की बड़ी भूमिका है. ये वस्तुतः टैक्सचोरों की बैंक हैं, स्वर्ग हैं. ये टैक्सचोरों के भारतीय स्विस बैंक हैं. मेरी किसी संत से कोई दुश्मनी नहीं है और न मित्रता है. संतों का काम है संतई करना, लेकिन संत यदि गैर-धार्मिक विषयों पर उपदेश देते हैं तो मुझे शिकायत होती है.

धर्म और संत का गैर-धार्मिक क्षेत्र में प्रवेश वर्जित है. मुझे भगवान की उपासना करते संत पसंद हैं. भगवान के नाम पर, धर्म के दायरे में ईमानदारी-बेईमानी कुछ भी करें, हम हस्तक्षेप नहीं करते. धर्म उनका है वे धर्म के हैं, वे धर्म को बनाएं या बिगाड़ें हमें इससे क्या. लेकिन धर्म के क्षेत्र से बाहर निकलकर यदि कोई संत अपने पोंगापंथी ज्ञान के आधार पर हस्तक्षेप करता है, सलाह देता है, हरकत करता नजर आता है तो मन में बेचैनी होती है और यही बात उठती है कि संत होकर धर्म के क्षेत्र का अतिक्रमण क्यों कर रहे हो ?

अतिक्रमण ही करना है तो संतई छोड़ दो, नागरिक बनो और सभी विषयों पर बोलो, उन विषयों का उपभोग करो. विधानसभा, लोकसभा, सांसद, विधायक, मंत्री आदि अच्छे लगते हैं तो संतई छोड़ो नागरिक बनो. संत बनकर नागरिकता का उपभोग नहीं कर सकते. यह संतई का दुरूपयोग है. मैं यदि शिक्षक बनना चाहता हूं तो पहले मुझे कहीं नौकरी हासिल करके पढाने का अवसर हासिल करना होगा, बिना यह किए मैं शिक्षक नहीं बन सकता. उसी तरह संतई छोड़कर नागरिक बने बिना संत को सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक विषयों पर बोलने का कोई हक नहीं है. संत के रूप में यदि कोई बात कहोगे तो वह स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि इन क्षेत्रों के लिए संत अवैध प्राणी है.

आरएसएस के बगलगीर होकर जो धर्म और धार्मिक नेता इन दिनों सुर्खियां बटोर रहे हैं, उनके साथ किस तरह के व्यापारिक समूह सक्रिय हैं उनकी अनैतिकता, मूल्यहीनता और संवेदनहीनता को देखना हो तो सीधे बाजार जाओ और देखो कि जिस व्यापारी से सामान खरीद रहे हो उसकी नैतिकता, ईमानदारी किस तरह की है ?
मैंने आज तक आरएसएस करने वाले किसी भी व्यापारी को ईमानदारी से व्यापार करते नहीं देखा.

हमारे यहां व्यापारियों की वैचारिक शरणस्थली धर्म है. वे अपना सारा वैचारिक और सामाजिक कारोबार धर्म की आड़ में करते हैं. यही वजह है हमारे मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री आदि आए दिन इन संतों की चरण-रज लेते दिख जाएंगे. दैनंदिन राजनीतिक समस्याओं से लेकर गंभीर नीतिगत समस्याओं पर इन संतों से सलाह लेते दिख जाएंगे. हरियाणा विधानसभा में एक जैन संत ने जो कुछ कहा उसमें नया कुछ नहीं है. इस तरह की बातें हमारे संतजन आए दिन बोलते रहते हैं.

परंपराओं को बचाने के नाम पर वे पूरा जोर लगाए हुए हैं. परंपरागत जीवन शैली, परंपरागत परिवार, परंपरागत स्त्री-पुरूष संबंध, परंपरागत शासक, परंपरागत शासन व्यवस्था आदि के प्रति इन संतों में जबर्दस्त आकर्षण है. वे परंपराओं को बचाने के नाम पर संविधान से लेकर आधुनिक न्यायपालिका तक सबकी उपेक्षा करते हैं. कभी कभी उनके खिलाफ जहर भी उगलते हैं. उनके मन में परंपरा का आग्रह इस कदर भरा हुआ है कि उसने समूचे समाज को परंपरा की बेड़ियों में कसकर बांधा हुआ है.

वे परम्परा बचाकर ऊर्जस्वित होते हैं, उनको आनंद मिलता है, लेकिन परंपराएं तो समाज को, युवाओं को, स्त्रियों और पुरूषों को आए दिन बर्बर ढ़ंग से उत्पीड़ित करती हैं, अपमानित करती हैं. इस समूची प्रक्रिया में नागरिक अधिकारों का आए दिन हनन होता है. संविधान प्रदत्त हकों और संवैधानिक माहौल की क्षति होती है. संत संतई करें हमें परेशानी नहीं होगी, लेकिन वे परंपरा बचाने के नाम पर आतंक पैदा करें, जीवनशैली, खान-पान, पहनावे, रीति-रिवाज आदि में हस्तक्षेप करें, हमें स्वीकार्य नहीं है.

संत वह है जो समाज से परे है लेकिन इन दिनों संत वे हैं जो समाज के वैचारिक नियंता बने हुए हैं. संतों का वैचारिक नियंता बनना असल में फंडामेंटलिज्म है और यह तालिबान का भारतीय संस्करण है. हिन्दुस्तान के व्यापारियों की वैचारिक और धार्मिक मनोदशा के बीच में वैचारिक साम्य है. उनके व्यापारिक विवेक को धार्मिक विवेक ही निर्धारित करता रहा है. इस नजरिए से व्यापारियों को देखेंगे तो धर्म की तमाम किस्म की सड़ांध आपको व्यापार में भी साफ नजर आएगी. हमलोग धर्म की आलोचना करते हैं लेकिन धर्म और व्यापारियों के मानसिक सहस्संबंध की अनदेखी करते हैं.

किसी भी हमारे देश में पूंजीपतियों के मूल्यों को निर्मित करने में धर्म ही सबसे बड़ी भूमिका निभाता रहा है. पूंजीवाद में उतनी क्षमता नहीं है कि वह नए सकारात्मक मूल्यों को पैदा कर सके. फलतः पूंजीपति पुराने धार्मिक विचारों से बंधा रहता है. पुरानी धार्मिक विचारधाराओं को आधार बनाकर जीने वाले हिन्दुस्तानी व्यापारियों के यहां पूंजीवाद और धर्म की सड़ांध का व्यापक जमावड़ा सहज ही देख सकते हैं.

यही वजह है धर्म की हिमायत में, धर्म की परवरिश पर, पुराने सड़े-गले मूल्यों को बचाने के लिए पुराने बर्बर सामाजिक संबंधों की हिमायत में भारत के व्यापारी नियमित पूंजी निवेश करते रहते हैं.
RSS की यह राजनीतिक सफलता है वह अपने हिन्दुत्ववादी एजेण्डे के साथ बौद्ध और जैनधर्म के बडे लोगों को जोड़ने में सफल हो गया है जबकि हिन्दुत्व की विचारधारा का इन दोनों धर्मों के साथ तीन-तेरह का संबंध है.

मांसाहार और मुस्लिम विरोध के आधार पर वह इन दोनों धर्मों को करीब लाने में सफल हो गया है और यह बेहद खतरनाक स्थिति है.
जैन व्यवसायीवर्ग के बहुसंख्यक हिस्से का आरएसएस की ओर आर्थिक मदद का हाथ बढ़ा हुआ है. वे भाजपा और संघ के संगठनों के लिए फंड देने वाले सबसे बड़े सहयोगी हैं. यह वह वर्ग है जो कांग्रेस को भी मदद देता रहा है. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जैनधर्म के मुनियों को आरएसएस अपने राजनीतिक हितसाधन में इस्तेमाल करने में क्यों सफल रहा है.

अब मांसाहार के खिलाफ हिन्दुत्ववादी सड़कों पर हैं. हिंसा के मूड में हैं. मांसाहार के विरोधी संत, सम्प्रदाय और सामाजिक समूह हिंसकों की सामाजिक शक्ति बनकर सामने खड़े हैं और राजनीतिज्ञों को बंधक बनाने की कोशिश कर रहे हैं. जैन नया दबाव ग्रुप है. यह चिंता की बात है. सहिष्णुता के पक्षधर घटिया राजनीति में कूद पड़े हैं.

एक राजनेता मंदिर जा सकता है, किसी धर्मगुरू या बाबा से मिलने या आशीर्वाद लेने जा सकता है. उसके प्रवचन सुनने जा सकता है, यह सब कानूनन वैध है. लेकिन एक राजनेता किसी संत या बाबा को संसद या विधानसभा में प्रवचन के लिए नहीं बुला सकता, राजनीति के मंंच से धर्म के नाम पर बाबा के नाम पर वोट नहीं मांग सकता. अपने भाषणों में धर्म और राजनीति में घालमेल नहीं कर सकता. सत्ता के साथ धर्म का घालमेल नहीं कर सकता है. यह कानूनन अवैध है.

दिलचस्प बात यह है अधिकतर राजनीतिक दल इस अवैध काम को अवसरवाद के रूप में करते हैं, कई हैं जो आदतन करते हैं. मसलन् साम्प्रदायिक-आतंकी संगठन आदतन धर्म का इस्तेमाल करते हैं. इधर जैन मुनि का हरियाणा विधानसभा में प्रवचन संवैधानिक मान-मर्याओं और परंपराओं का सीधे उल्लंघन है.

सवाल यह है धर्मनिरपेक्षता को क्या इस तरह के अवसरवादी दल और नेता बचा पाएंगे ? धर्मनिरपेक्षता उन नेताओं के हाथों क्षतिग्रस्त हो रही है जो धर्म का राजनीति में अवैध इस्तेमाल कर रहे हैं. आम आदमी पार्टी ने जैनमुनि के हरियाणा विधानसभा में दिए गए प्रवचन के पक्ष में राय देकर सबसे घटिया क़िस्म की साम्प्रदायिकता का परिचय दिया है. भाजपा संतों को राजनीति से जोडकर सभी राजनीतिक दलों की राजनीति को साम्प्रदायिकता के बैनर तले गोलबंद करने की मुहिम पर चल निकली है.

जैनमुनि ने क्या कहा वह तो महत्वपूर्ण है, साथ ही महत्वपूर्ण है राजनीति और धर्म के बीच स्थापित किया जा रहा सहसंबंध. यह बुर्जुआ राजनीति और बुर्जुआ संतई का खुला गठजोड़ है. इसका बुनियादी लक्ष्य है राजनीति का अपराधीकरण करना, राजनीति में साम्प्रदायिकता को वैधता प्रदान करना. सवाल उठा है कि जैनधर्म के नाम पर क्या सब कुछ माफ है ? संविधान और नागरिक समाज को जैन धर्माघिकारियों से सीधे सवाल करना चाहिए और मांग करनी चाहिए कि जैनधर्म अपने को राजनीति से दूर रखें. भगवा गैंग ने दो विकल्प पेश किए हैं – गुलामी या बर्बरता. आप इनमें से एक चुन लें और लोकतंत्र भूल जाएं. उनके सारे नए एक्शन इसी दिशा में देश को ले जाने वाले हैं.

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