रामकवीन्द्र सिंह
जातिवार गणना के प्रश्न पर मार्क्सवादी पार्टियों और ग्रुपों में शायद ही कोई हो जो इसके खिलाफ खड़ा हो. हमारा भी मानना है कि भारतीय समाज में जब जाति के आधार पर विभाजन है और जातीय उत्पीड़न के आधार पर शिक्षा और नौकरी में आरक्षण है तो इसकी अद्यतन जानकारी होनी ही चाहिए कि समाज में किस जाति की आबादी कितनी है.
1979 में जब मंडल कमीशन की घोषणा हुई थी तो विभिन्न जातियों की आबादी के आंकड़ों के लिए कमीशन ने 1931 की जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल किया था. लेकिन सच्चाई है कि इस अवधि में जातियों की जनसंख्या संबंधी आंकड़ों में भारी फेर बदल आया होगा. शासक वर्ग की पार्टियों की रूचि इस जानकारी के साथ ही खत्म हो जाती है कि किस जाति या जाति समूह की संख्या कितनी है.
लेकिन इससे जातियों के भीतर सामाजिक आर्थिक संरचना की सही जानकारी नहीं मिलती, क्योंकि आरक्षण लागू होने के बाद दलितों और पिछड़ी जातियों की आंतरिक संरचना में काफी बदलाव आया है. आरक्षण के प्रभाव के सही आकलन के लिए भी इन बदलावों का अध्ययन जरूरी है.
इन बदलावों की सामाजिक व राजनीतिक अभिव्यक्ति जाति आंदोलन की बदली हुई दिशा से समझी जा सकती है. 1931 की जनगणना में पिछड़ी जातियां इस मांग के लिए लड़ रही थीं कि उन्हें सवर्ण सूची में रखा जाय जबकि आज सवर्ण समूह या पुराने शासक समूह के कुछ लोग मांग करने लगे हैं कि उन्हें दलित या ओबीसी में रखा जाय. इस मांग के केंद्र में रोजगार के अवसर की कमी और आरक्षण की सुविधा है.
अन्यथा यह कैसे हो सकता है कि जिन मराठों ने लम्बे समय तक देश के बड़े भू-भाग पर शासन किया, आज वह ओबीसी में दर्ज होकर आरक्षण की मांग करे. उसी तरह पटेल गुजरात में, जाट हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में दबंग जातियां हैं और सब अपने-अपने राज्य में आरक्षण के लिए दबाव बना रही हैं. ओबीसी बिल में हालिया संशोधन इसी का परिणाम है.
जरा तस्वीर के दूसरे पक्ष पर गौर किया जाय. हमारे माननीय प्रधानमंत्री बड़े गर्व से घोषणा करते हैं कि वे अत्यंत पिछड़ी जाति से आते हैं. इन दिनों यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि केंद्रीय मंत्री परिषद में 35 सदस्य ओबीसी समूह से हैं. संभव है, यह सब उत्तरप्रदेश में इन जातियों के वोट बैंक को ध्यान में रखकर किया जा रहा हो.
जाहिर है कि हमारे देश में दलित व पिछड़े उप प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक पहले भी हो चुके हैं. अपने राजनीतिक पद और आर्थिक व सामाजिक स्टेटस के हिसाब से ये लोग न तो सामाजिक रुप से उत्पीड़ित हैं, न आर्थिक रुप से. उल्टे ये सबसे बड़े उत्पीड़क पूंजीपति वर्ग के सर्वोच्च प्रतिनिधि बन गये हैं. तो क्या इस विवरण से देश में जातीय संरचना की सच्ची तस्वीर मिल जाती है ? निश्चित तौर पर नहीं मिलती.
तब इससे सिर्फ यह जानकारी मिलती है कि पूंजीपति वर्ग ने अपनी जरूरत के अनुसार दलित और पिछड़ी जातियों से कुछ ऐसे प्रतिनिधि तैयार कर लिये हैं जो इनका दोहरा उद्देश्य पूरा करते हैं. इससे वे इन जातियों के गरीब उत्पीड़ित वर्गों में मृगमरिचिका की स्थिति पैदा किए रहते हैं और पूरी दुनिया के सामने इन नेताओं व मंत्रियों को शोपीस की तरह पेश कर अपने ‘जनतंत्र’ का बखान करते हैं.
अपने पहले उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूंजीपति वर्ग सरकार में दलित-ओबीसी मंत्रियों की संख्या तो गिनवा देता है, लेकिन कार्यपालिका, न्यायपालिका, पुलिस, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे निकायों में मांग के बावजूद न तो वहां बहाली करता है और न संख्या उजागर करना चाहता है. ऐसा नहीं है कि इन निकायों में दलित ओबीसी की संख्या नदारद है, बल्कि आबादी के अनुरूप नहीं है.
दूसरा कटु सच यह है कि दलितों और पिछड़ों की विशाल आबादी में उपर्युक्त लोग समुद्र में टापू की तरह हैं. इससे अलग गांवों और शहरों में फैली इन समूहों की विशाल आबादी दरिद्रता और उत्पीड़न का शिकार हो रही है. इसका मतलब यह कि आज जातीय संरचना समरूप नहीं है. एक ही जाति में अलग अलग श्रेणी के लोग मिल जायेंगे जिनके आर्थिक हित अलग अलग हैं और एक दूसरे से टकराते हैं.
कई कारणों से (जिनकी समीक्षा यहां संभव नहीं है) आरक्षण का प्रभाव एक सीमा में अवरुद्ध हो गया है और उसका ज्यादा लाभ दलित ओबीसी के आगे बढ़े हुए लोगों के बच्चे ही उठा रहे हैं. उत्पीड़न की दोहरी मार झेलने वाला समूह यहां भी वंचित रह जाता है.
इस विभाजन को पैदा करने में आरक्षण से मिली सुविधाओं ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इस प्रकार आरक्षण के बाद बनी सामाजिक संरचना में वर्गों में अगर जाति प्रभाव साफ दीखता है तो जातियों के भीतर भी वर्ग का प्रभाव उभरने लगा है, जिसे साफ करने की जरूरत है.
हमारी समझ है कि जातिवार गणना करते समय ऐसे कॉलम भी शामिल किये जाने चाहिए, जिनसे स्पष्ट हो कि इन जाति समूहों की कितनी बड़ी आबादी उत्पीड़क वर्ग का हिस्सा व सेवक बन गयी है और कितनी बड़ी आबादी आज भी आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक तीनों स्तरों पर उत्पीड़ित है.
ऐसा होने के बाद ही सही तस्वीर उभर सकती है. क्रांतिकारी समूह को एक बात याद रखनी चाहिए कि उत्पीड़ित जातियों का उत्पीड़ित वर्ग ही क्रांतिकारी आंदोलन का झंडा थाम सकता है.
Read Also –
जातिवार जनगणना से कौन डरता है ?
हॉलीवुड डाइवर्सिटी रिपोर्ट 2021 के आईने में अमेरिकी जनगणना
‘जाति व्यवस्था को तोड़ना असंभव नहीं है’ – प्रो. आनंद तेलतुंबडे
सुरेन्द्र और अंशी बहन से मुलाकात : जातिवाद की समस्या और सूचना का अधिकार कानून
जाति-वर्ण की बीमारी और बुद्ध का विचार
(संशोधित दस्तावेज) भारत देश में जाति का सवाल : हमारा दृष्टिकोण – भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]