जगदीश्वर चतुर्वेदी
भारत की आत्मा को समझने में पंडित जवाहरलाल नेहरू से बढ़कर और कोई बुद्धिजीवी हमारी मदद नहीं कर सकता. पंडितजी की भारत को लेकर जो समझ रही है, वह काबिलेगौर है. वे भारतीय समाज, धर्म, संस्कृति, इतिहास आदि को जिस नजरिए से व्यापक फलक पर रखकर देखते हैं, वह विरल चीज है. पंडित नेहरू ने लिखा है –
‘जो आदर्श और मकसद कल थे, वही आज भी हैं, लेकिन उन पर से मानो एक आब जाता रहा है और उनकी तरफ बढ़ते दिखाई देते हुए भी ऐसा जान पड़ता है कि वे अपनी चमकीली सुंदरता खो बैठे हैं, जिससे दिल में गरमी और जिस्म में ताकत पैदा होती थी. बदी की बहुत अकसर हमेशा जीत होती रही है लेकिन इससे भी अफसोस की बात यह है कि जो चीजें पहले इतनी ठीक जान पड़ती थीं, उनमें एक भद्दापन और कुरूपता आ गई है.’
चीजें क्रमशःभद्दी और कुरूप हुई हैं, सवाल यह है कि यह भद्दापन और कुरूपता आई कहां से ? क्या इससे बचा जा सकता था ? यदि हां तो उन पहलुओं की ओर पंडितजी ने जब ध्यान खींचा तो सारा देश उस देश में सक्रिय क्यों नहीं हुआ ? पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है –
‘हिंदुस्तान में जिंदगी सस्ती है. इसके साथ ही यहां जिंदगी खोखली है, भद्दी है, उसमें पैबंद लगे हुए हैं और गरीबी का दर्दनाक खोल उसके चारों तरफ है. हिंदुस्तान का वातावरण बहुत कमजोर बनानेवाला हो गया है. उसकी वजहें कुछ बाहर से लादी हुई हैं, और कुछ अंदरूनी हैं, लेकिन वे सब बुनियादी तौर पर गरीबी का नतीजा हैं. हमारे यहां के रहन-सहन का दर्जा बहुत नीचा है और हमारे यहां मौत की रफ्तार बहुत तेज है.’
पंडितजी और उनकी परंपरा ‘मौत की रफ्तार’ को रोकने में सफल क्यों नहीं हो पायी ? पंडित जानते थे कि भारत में जहां गरीबी सबसे बड़ी चुनौती है वहीं दूसरी ओर धर्म और धार्मिकचेतना सबसे बड़ी चुनौती है. पंडित नेहरू ने लिखा है –
‘अगर यह माना जाये कि ईश्वर है, तो भी यह वांछनीय हो सकता है कि न तो उसकी तरफ ध्यान दिया जाये और न उस पर निर्भर रहा जाये. दैवी शक्तियों में जरूरत से ज्यादा भरोसा करने से अकसर यह हुआ भी है और अब भी हो सकता है कि आदमी का आत्म-विश्वास घट जाए और उसकी सृजनात्मक योग्यता और सामर्थ्य कुचल जाये.’
धर्म के प्रसंग में नेहरूजी ने लिखा –
‘धर्म का ढ़ंग बिलकुल दूसरा है. प्रत्यक्ष छान-बीन की पहुंच के परे जो प्रदेश है, धर्म का मुख्यतः उसी से संबंध है और वह भावना और अंतर्दृष्टि का सहारा लेता है. संगठित धर्म धर्म-शास्त्रों से मिलकर ज्यादातर निहित स्वार्थों से संबंधित रहता है और उसे प्रेरक भावना का ध्यान नहीं होता. वह एक ऐसे स्वभाव को बढ़ावा देता है, जो विज्ञान के स्वभाव से उलटा है. उससे संकीर्णता, गैर-रवादारी, भावुकता, अंधविश्वास, सहज-विश्वास और तर्क-हीनता का जन्म होता है. उसमें आदमी के दिमाग को बंद कर देने का सीमित कर देने का रूझान है. वह ऐसा स्वभाव बनाता है, जो गुलाम आदमी का, दूसरों का सहारा टटोलनेवाले आदमी का होता है.’
आम आदमी के दिमाग को खोलने के लिए कौन सी चीज करने की जरूरत है ? क्या तकनीकी वस्तुओं की बाढ़ पैदा करके आदमी के दिमाग को खोल सकते हैं या फिर समस्या की जड़ कहीं और है ?पंडित नेहरू का मानना है –
‘हिन्दुस्तान को बहुत हद तक बीते हुए जमाने से नाता तोड़ना होगा और वर्तमान पर उसका जो आधिपत्य है, उसे रोकना होगा. इस गुजरे जमाने के बेजान बोझ से हमारी जिंदगी दबी हुई है. जो मुर्दा है और जिसने अपना काम पूरा कर लिया है, उसे जाना होता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि गुजरे जमाने की उन चीजों से हम नाता तोड़ दें या उनको भूल जाएं, जो जिंदगी देनेवाली हैं और जिनकी अहमियत है.’
यह भी लिखा –
‘पिछली बातों के लिए अंधी भक्ति बुरी होती है. साथ ही उनके लिए नफ़रत भी उतनी ही बुरी होती है. उसकी वजह है कि इन दोनों में से किसी पर भविष्य की बुनियाद नहीं रखी जा सकती.’
“गुजरे हुए जमाने का -उसकी अच्छाई और बुराई दोनों का ही-बोझ एक दबा देने वाला और कभी-कभी दम घुटाने वाला बोझ है, खासकर हम लोगों में से उनके लिए, जो ऐसी पुरानी सभ्यता में पले हैं, जैसी चीन या हिन्दुस्तान की है. जैसाकि नीत्शे ने कहा है- ‘न केवल सदियों का ज्ञान, बल्कि सदियों का पागलपन भी हममें फूट निकलता है. वारिस होना खतरनाक है.’ इसमें सबसे महत्वपूर्ण है ‘वारिस’ वाला पहलू. इस पर हम सब सोचें. हमें वारिस बनने की मनोदशा से बाहर निकलना होगा.’
पंडित नेहरू ने लिखा है –
‘मार्क्स और लेनिन की रचनाओं के अध्ययन का मुझ पर गहरा असर पड़ा और इसने इतिहास और मौजूदा जमाने के मामलों को नई रोशनी में देखने में मदद पहुंचाई. इतिहास और समाज के विकास के लंबे सिलसिले में एक मतलब और आपस का रिश्ता जान पड़ा और भविष्य का धुंधलापन कुछ कम हो गया.’
भविष्य का धुंधलापन कम तब होता है जब भविष्य में दिलचस्पी हो, सामाजिक मर्म को पकड़ने, समझने और बदलने की आकांक्षा हो. इसी प्रसंग में पंडित नेहरू ने कहा – ‘असल में मेरी दिलचस्पी इस दुनिया में और इस जिंदगी में है, किसी दूसरी दुनिया या आनेवाली जिंदगी में नहीं. आत्मा जैसी कोई चीज है भी या नहीं मैं नहीं जानता. और अगरचे ये सवाल महत्व के हैं, फिर भी इनकी मुझे कुछ भी चिंता नहीं.’
पंडितजी जानते थे भारत में धर्म सबसे बड़ी वैचारिक चुनौती है. सवाल यह है धर्म को कैसे देखें ? पंडितजी का मानना है – ‘धर्म’ शब्द का व्यापक अर्थ लेते हुए हम देखेंगे कि इसका संबंध मनुष्य के अनुभव के उन प्रदेशों से है, जिनकी ठीक-ठीक मांग नहीं हुई है, यानी जो विज्ञान की निश्चित जानकारी की हद में नहीं आए हैं.’ फलश्रुति यह कि जीवन के सभी क्षेत्रों में विज्ञान को पहुंचाएं, विज्ञान को पहुंचाए वगैर धर्म की विदाई संभव नहीं है.
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