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कुछ अनकही-कुछ अनबूझी : मिथिला चित्रकला संदर्भ में मेरा गांव, मेरे लोग

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कुछ अनकही-कुछ अनबूझी : मिथिला चित्रकला संदर्भ में मेरा गांव, मेरे लोग
कुछ अनकही-कुछ अनबूझी : मिथिला चित्रकला संदर्भ में मेरा गांव, मेरे लोग (प्रतिकात्मक तस्वीर, इंटरनेट से)
कैलाश चंद्र झा, रॉटी, मधुबनी, बिहार

‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’, अशोक कुमार सिन्हा द्वारा लिखित व बिहार संग्रहालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक एवं अनीष अंकुर ने प्रेरित किया मुझे इस लेख के लिए. स्वतंत्र लेख होते हुए भी इसमें ‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’ के कुछ अंश की समीक्षा भी निहित है.

मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं कला इतिहासकार नहीं हूं और न कलाकार. मेरा दायरा सीमित है, हर तरह से और उसी परिपेक्ष्य में इस लेख को देखा जाना चाहिए. मेरा अुनभव राँटी के सामाजिक परिवेश में पालन-पोषण और उस ग्रामीण समाज का हिस्सा होने के उस काल व समय को परिलक्षित करता है. ग्रामीण समाज की अपनी संरचना होती है और वह उस रूप में अपने को व्यक्त करता है. गरीबी-अमीरी, जाति-धर्म, क्रिया-कलाप सभी उसी अनुसार कार्य करते हैं. इसलिए इन सब भावों को महिमा मंडित और रूमानी करण से दूर रख कर विषय वस्तु को समझने की आवश्यकता होती है.

किसी कलाकार के माध्यम से प्रचार के पर्चे में उद्धृत करना कि बाढ़ (2008) में धनी लोग घर में ताला लगाकर गांव से चले गए, रूमानीकरण का हास्यास्पद और दुःखद उदाहारण है. उस बाढ़ में सदा मैं गांव के संपर्क में था. सब वहीं थे. Jacob Dean-Otting (Kenyon College, Gambier, Ohio), एक अमरिकी छात्र मेरे घर पर रह रहा था और बच्चों के पुस्तकालय में उनके साथ काम कर रहा था (Children”s Library की अलग कहानी है).

उसके माता-पिता उन दिनों कलकत्ता में थे और बहुत घबराये हुए थे. मधुबनी के कलक्टर के माध्यम से उसे रीलीफ हेलिकाप्टर से पटना लाने की व्यवस्था हुई, क्योंकि रेल व सड़क यातायात बंद थी. और मेरे मित्र श्री उदय नारायण चौधरी (भूतपूर्व बिहार विधान सभा अध्यक्ष) के बेटे ने उसे पटना हवाई अड्डे से लेकर कलकत्ता के ट्रेन में बैठाया. जीवन चरित व आत्म जीवन चरित में अनकही, अनबूझी, अतिशयोक्ति व तोड़ मरोड़ कर विषय वस्तु को रखने की संभावनाएं रहती हैं. शोधकर्त्ताओं का कर्त्तव्य बनता है इन सब की ओर ध्यान देना.

मैंने इस लेख में कई कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया है, मधुबनी चित्रकला के शुरूआती दौर से संबंधित. ‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’ पुस्तक और अन्य पुस्तकों व लेखनियों में विस्तार से काफी कुछ लिखा जा चुका है, जिससे मैं विज्ञ हूं. कहावत है, ‘इतिहास लेखन कभी समाप्त नहीं होता, नए तथ्य सामने आते हैं और फिर कोई और उनको लिखता है.’ आगे के शोधकर्त्ताओं पर मैं छोड़ रहा हूं, इन कड़ियों को जोड़ने और उनके मूल्यांकन के लिए.

सबसे अहम् कड़ी है- ‘राँटी डयोढ़ी’ – बाबू चन्द्रधारी सिंह, बाबू शशिधारी सिंह व प्रोफेसर श्रुतिधारी सिंह. मैंने अबतक के लेखन में कहीं इस कड़ी को नहीं पाया है. मुझे हमेशा आश्चर्य रहा कि किन्हीं के मन में यह प्रश्न क्यों नहीं आया कि जितने भी वर्णित विदेशी, देशी जब राँटी (मधुबनी) आए तो उनका सुरक्षित आश्रय स्थल कहां था ? मैं उन दिनों की बात कर रहा हूं जब मधुबनी में होटल नहीं थे. और यातायात व्यवस्था भी ऐसी नहीं थी कि पटना से आना-जाना एक दिन में संभव हो. इनमें से कुछ लोगों का आश्रय स्थल बना – राँटी डयोढ़ी ! साथ ही यहां बौद्धिक स्तर पर मिथिला के संस्कृति और कला का भी ज्ञान होता था. लोगों ने महीनों यहां रहकर मिथिला की संस्कृति पर काम किया है.

भास्कर कुलकर्णी का प्रथम आगमन राँटी में हुआ – अकाल के और रोजगार के प्रयोजन के जो वर्णन मिलते हैं, उसके बहुत पहले ही. करीब-करीब सारी लेखनियों में उस अकाल और रोजगार प्रयोजन की आवश्यकता से कुलकर्णी के आगमन को जोड़ा जाता है. मेरी यादाश्त में अकाल 1966-67 में हुआ. अकाल के वर्ष भी भिन्न-भिन्न मिलते हैं लेखनियों में. कहीं-कहीं 1962-63 (बिहार के पद्मश्री कलाकार), 1965 (Indian Express, July 25, 2024, Swarup Tripathi).

मैंने खुद स्वयंसेवक के रूप में डॉ. गणेश प्रसाद सिन्हा (बाद में ‘पटना विश्वविद्यालय’ के उपकुलपति) के साथ राजेन्द्र नगर, पटना में ‘बिहार रीलीफ कमिटी’ के लिए अनाज, कपड़े, पैसे एकत्रित किया है. ‘बिहार रीलीफ कमीटी’ का गठन श्री जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुआ था. राँटी में भाग्यवश मकई और अल्हुआ (शकरकंद) की उपज हुई थी. हमलोग मकई को उबालकर भात के रूप में और अल्हुआ को सुखाकर, पिसवाकर रोटी के रूप में खाते थे.

टाटा समूह ने डेस्क कैलेंडर बनाने के लिए कलकत्ता के एक फोटो कम्पनी J. Walter Thompson Co. Pvt. Ltd. को अनुबंधित किया था. W.G. Archer के लेख ‘Maithili Painting’, ‘Marg’ Vol. 3, No – 3, 1949 से प्रेरित होकर. भास्कर कुलकर्णी को फोटो कम्पनी ने इसी संदर्भ में राँटी भेजा. S. A. Shere उन दिनों Patna Museum के Curator होते थे. फोटो कम्पनी ने उन्हें लिखा और S.A. Shere ने बाबू चंद्रधारी सिंह और फोटो कम्पनी को संपर्क में डाला.[1]

‘राँटी डयोढ़ी’ कुलकर्णी का आश्रय स्थल बना. समयकाल के कारण उन्हें मिथिला चित्रकला नहीं मिल पाया गांव की महिलाओं से. राँटी में दो डयोढ़ी है- ‘पुरना डयोढ़ी’ व ‘नवका डयोढ़ी.’ 1934 के भूकम्प में पुरना डयोढ़ी ध्वस्त हो गया था. अवशेष में ‘भगवती घर’ बच गया. 2 परिवार ’नवका ड्योढ़ी’ में आ गया, जो बाबू चन्द्रधारी सिंह ने संग्रहालय बनाने के लिए बनवाया था. वह संग्रहालय ‘चन्द्रधारी सिंह संग्रहालय’ के नाम से दरभंगा में बना (उसकी अलग कहानी है). S.A. Shere और बाबू चन्द्रधारी सिंह में इसी संग्रहालय को लेकर संबंध था. ‘भगवती घर’ में जो मिथिला चित्रकला थी, कुलकर्णी ने उनका फोटो लिया. उनके पास अच्छा कैमरा न होने के कारण अच्छे फोटो नहीं आ पाए और टाटा का यह डेस्क कैलेंडर वाला प्रोजेक्ट पूरा नहीं हो सका.

भगवती घर और पुरना ड्योढ़ी[2,3]

अब आते हैं सत्तर के दशक में. श्रीमती इंदिरा गांधी, श्री ललित नारायण मिश्र और फ्रांसीसी राजदूत का संदर्भ. मैं यहां दो पत्र उद्धृत कर रहा हूं और यह अपने आप शोधकर्त्ताओं को नई सोच प्रदान करेगा. ललित नारायण मिश्र जी का योगदान शुरूआती दौर में महत्वपूर्ण था. दोनों पत्र बतातें हैं कि कैसे उन दिनों रॉटी ड्योढ़ी को जोड़ा जा रहा था.

पत्र – 1

पत्र – 2

Yves Vequaud (French) और Raymond Owens (American) दोनों ‘राँटी’ डयोढ़ी’ में महीनों रहे और एक समय पर साथ भी रहे. दोनों के बीच गहरा मतभेद था और एक दिन समस्या ऐसी हो गई कि उन दोनों के रहने की व्यवस्था में परिवर्तन करना पड़ा ‘डयोढ़ी’ पर. मैं Email Exchage दे रहा हूं प्रोफेसर श्रुतिधारी सिंह और Helene Fleury के बीच का.[4] इसमें हम यह भी पाते हैं कि Raymond Owens, Social Activism में भी आ गए और उस कारण उन्हें दिक्कतें आई. मेरी कोई टिप्पणी नहीं. शोधकर्त्ताओं पर छोड़ता हूं अन्वेषण के लिए.

इसी बीच एक और संदर्भ है- मेरा और प्रो. वाल्टर हाउज़र का. मैं उनके संपर्क में आया 1974/75 में. वह विषय अलग है – स्वामी सहजानंद सरस्वती और किसान सभा का. करीब से गांव को जानने का सिलसिला जारी हो गया और मैं उनको रॉटी लाने लगा.

कैलाश झा और वालटर हाउज़र (स्टीमर से गंगा पार करते हुए रॉटी की यात्रा पर)
कैलाश झा और वालटर हाउज़र (स्टीमर से गंगा पार करते हुए रॉटी की यात्रा पर)
कैलाश झा का पुस्तैनी घर (1974/75)
कैलाश झा का पुस्तैनी घर (1974/75)

उन्होंने पेंटिग्स खरीदना शुरू किया. शुरूआत हुई महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी से. फिर गोदावरी दत्त से और अंततः सबों का. दाई जी (महासुंदरी देवी) ने एक दिन मुझे कहा, ‘वउआ इ असोरा (दलान) अहॉक संग जे रहथि (वाल्टर हाउज़र) पेंटिंग खरीदल खिन्ह, वही पाई सॅ बनलै.’ मेेरे अंतराात्मा को छू गया. आज के दिन वह पेंटिग The Fralin Museum of Art, University of Virginia में है. वाल्टर हाउज़र ने उपहारस्वरूप उसे वहां दिया और साथ ही गोदावरी दत्त की भी एक पेंटिग.

दिल्ली जाने पर वाल्टर हाउज़र के Ph.D छात्रों (Prof. Wendy Singer, Prof. William Pinch…) व राजनयिकों को विभिन्न दूतावासों से रॉटी लाने लगा. दो उद्देश्य था. भारत को गांव के स्तर पर समझने के लिए और साथ-साथ पेंटिग्स खरीदने के लिए. विदेशियों का दूसरा आश्रय स्थल बना मेरा घर. सत्तर से नब्बे के दशक तक यह सिलसिला चलता रहा. मैंने उन दिनों में किसी भी सामाजिक प्रयोजनों में चुन्नी, साड़ी, Greeting cards, और मधुबनी पेंटिग्स ही देना-भेजना उचित समझा. इनमें से ज्यादातर दुल्ला (पद्मश्री दुलारी देवी) और स्वर्गीय रंजना कुमारी (उदयमान कलाकार का असामयिक निधन हो गया) की कृतियां होते थे. दोनों ने बडे़ स्नेह से हमेशा मेरी पत्नि और दोनों बेटियों को ये सब भेंट भी करती रही. आभा दास, विभा दास और अन्य कलाकारों की कृतियां भी रहती थी.

1981/82, दाईजी (पद्मश्री महासुंदरी देवी) राष्ट्रीय पुरस्कार लेने दिर्ल्ली आइं. विपिन (उनका लड़का विपिन कुमार दास) भी साथ था. सरकारी व्यवस्था सारे पुरस्कृतों के लिए ठहरने की लोघी होटल में था. मैं आश्चर्यचकित था व्यवस्था पर. रात के खाने पर मैं भी शरीक हुआ. छूरी-कांटे-मेनु-सबके सब कलाकार घबराये थे. पता ही नहीं कि क्या करें. किन्हीं ने पापड़-भात, किन्हीें ने उबले अंडे-भात मंगाये. मैंने बैरे को बुलाया और कहा, छूरी-कांटे सब हटाओ, इन्हें भात-दाल, रोटियां, विभिन्न प्रकार की सब्जी इकट्ठे ला दो.

मैंने प्रश्न उठाया. आगे से उनलोगों के ठहरने की व्यवस्था बिहार भवन में होने लगी. दाई जी को प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के यहां से निमंत्रण, Roosevelt House, American Ambassdor (Amb. Harry Barnes) के यहां से निमंत्रण रहता था. प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कुत्तों का वर्णन करती थीं- हंसकर. ये सब अस्सी के दशक की शुरूआती दौर की कहानी है.

नब्बे का दशक और भी कारण से प्रमुख है मिथिला के सांस्कृतिक इतिहास में. 1990 से 2000 तक रॉटी में मेरे घर पर दो Microfilming कैमरे लगाकर पंजी-प्रबन्ध का संरक्षण Genealogical Society of Utah, Salt Lake City, U.S.A. द्वारा किया गया (यह अलग कहानी है).

जब व्यवसायिकरण होता है तो साथ में बहुत सारी खामियां/दुर्गुण भी आते हैं. मेरा मत है कि किसी शोध में यह आवश्यक है उन खामियों का भी जिक्र होना, नहींतो  वह ‘राजा के दरबार में भॉट द्वारा विरदावली प्रस्तुति’ बनकर रह जाती है. रॉटी में दो कैंप बन गए. गांव में टोल व दूरी का महत्व होता है. इर्ष्या, द्वेष, दोषारोपण का भी महौल बना. खरीददार विषय वस्तु चुनवाने लगे. प्राकृतिक रंगोें से अप्राकृतिक रंगों पर आ गए. बाजारीकरण ने और भी दुर्गुणों को जन्म दिया. जूनियर कलाकार फंसते रहे.

श्रीमती कर्पूरी देवी की कलाकृतियां

यह लेख मैं चाची (श्रीमती कर्पूरी देवी) को समर्पित करता हूं. ‘चाची’, ‘बिहार के पद्यश्री कलाकार’ पुस्तक में दाइजी (महासुन्दरी देवी), काकी (गोदावरी दत्त) व दुल्ला (दुलारी देवी) के देखलहुं. अहां नै छी. मोन में कचोट भेल. संसार छैक-चाची. अन्याय भेल ! मोती (मोती कर्ण) कहियो रहत. हमर पटना के घर, दिल्ली के घर, रूमकी (Richa Jha) के लंदन घर आ सोना (Archita Jha) के लंदन घर में अहां छी. मोती कहलक, मॉ दुनू बौआ लेल सुजनी के काज छोड़िकए गेल अछि. पिछला वर्ष मोती से लेल आ दूनू के लंदन में देलिऐक.’

श्रीमती कर्पूरी देवी की कलाकृतियां
श्रीमती कर्पूरी देवी की कलाकृतियां

अस्सी के दशक के अंत में व नब्बे के दशक के शुरूआत में चाची (कर्पूरी देवी) और उनके दामाद सत्यनारायण कर्ण ने बहुत ही शर्मीन्दगी की स्थिति से Prof. Philip Lutgendorf, University of Iowa को और मुझे भी बचाया. वो एक अयोजन अमेरिका में कर रहे थे. दाईजी (महासुन्दरी देवी) ने स्वीकृति दी थी जाने के लिए. अंतिम क्षण में उन्होंने मना कर दिया.

मुझे पहले Prof. J.E. Llewellyn, Missouri State University का फोन आया, क्योंकि वो और Philip मित्र थे और उन्होंने ही मुझे Philip से Chicago में पहलीबार (1985) मिलवाया था. और फिर Prof. Philip Lutgendorf का भी फोन आ गया. आनन-फानन में मैंने चाची (कर्पूरी देवी) से बात की. वो तैयार हो गईं, शर्त था कि अकेले नहीं जा पायेंगी. सत्यनारायण जी साथ जायेंगे. और दोनों गये. कार्यक्रम सफल रहा. दोनों के प्रति मैं आभार प्रकट करता हूं.

मैंने ‘कुछ अनकही-कुछ अनबूझी’ बातों से तथ्यों को प्राणाणिक तौर पर रखने का प्रयास किया है. इतिहास प्रमाण खोजता है और शोधार्थियों को यह जानने की आवश्यकता है.

श्रीमती इंदिरा गांधी, श्री ललित नारायण मिश्र, सुश्री पुपुल जयकर, श्री भास्कर कुलकर्णी, श्री उपेन्द्र महारथी, श्री ज्योतिन्द्र जैन, श्रीमती गौरी मिश्र, सुश्री विजी श्रीनिवासन, Erika Moser (German), Yves Vequed (French), Raymond Owens (American), Tokyo Hasegawa (Japanese), David Szanton (American) आदि लोगों का योगदान रहा है और कहीं न कहीं इनलोगों की चर्चा होती रही है लेखनियों में. मैंने उन अहम कड़ियों को जोड़ने की कोशिश की है, जिनका जिक्र अभी तक कहीं नहीं हुआ था. आशा करता हुूं कि यह लेख विषेष तौर से प्रोत्साहित करेगा शोधार्थियों को मिथिला चित्रकला से संबंधित आधुनिक इतिहास लेखन में.

फुटनोट :

  1. भगवती घर और पुरना ड्योढ़ी
  2. Dear Shrutidhari, Wonderful !! At first, we hope you ‘re well also ! I’m delighted to have read the enthralling letters you sent me. It’s very useful to understand better the role played by the pioneers. If I have any more questions, I will allow to ask later. I’m looking forward to analyze these letters further. I’m obviously very grateful to you for your message and your sending. Please feel free to ask us anything you might find useful from France & Véquaud in France. What’s more, I did read more of your book on History and Order in Mithila : I found it really interesting. I will write more at length later. I will probably have the pleasure to be back to Mithila at early ovembe 2018 : I will let you know as soon as I can. By then, I wish you a nice monsoon summer, without, I hope, too much floods. Best Wishes & Kind Regards, from Damien also !! Hélène Fleury.Dear Shrutidhari,
    I hope you are doing well! As I progress in the writing of my thesis, I am very pleased to review the letters you sent to us from Cécile Houlet, Bruno Caye, André Kowalski and His Excellency Ambassador Jean Jurgensen.
    The interview you gave us with Damien in April 2017 is also full of valuable and enthralling information! We thank you very much for this exciting news!
    We also had evidence that a moment of collaboration existed between Yves Véquaud, Ray Owens and Erika Moser-Schmitt, probably shortly after the creation of MCAM in October 1977. Everyone agrees to – shortly – play the role of volunteer artistic advisor; in France, the architect Bernard Mayran joins Yves Véquaud. For Germany and the USA, Erika Moser Schmitt and Ray Owens plays respectively this role.
    Have you heard about Bernard Mayran or maybe you have met him yourself?
    In addition, the film A Day in the Life of Mithila was screened in 1978 at Ray Owens’ first exhibition in Austin, at the Huntington Gallery, the Art Museum at the University of Texas (19 September -19 November 1978). The film was also sold to non-French television channels, particularly in Belgium, where it was broadcast in French and Flemish. We have other evidence of international traffic, particularly merchant of the film.
    Véquaud also intervened during the above-mentioned exhibition in Austin. Information about Véquaud’s probable stay in the USA could certainly be verified by the program contained in the 1978 exhibition “catalogue with notes”:
    Mishra G., Owens R., 1978, Mithila Folk Paintings, Austin, Huntington Gallery, The Art Museum, University of Texas.
    Sadly, this document is neither available in French libraries nor on sale on the Internet. International loans being very difficult in France as we have experimented, would you know how to get it or to consult it? It is frequently quoted by different authors and seems resolutely exciting! In the journal of the University of Texas in Austin (Alcade) we saw only the mention of the exhibition on the Internet, but nothing else.
    One point therefore raises a question for me to trace certain aspects of the relationship between Véquaud and Owens: you mentioned the conflictive encounter between Owens and Yves Véquaud in Mithila, at your house with your father Babu Sashi Dhari Singh and your grand-father. You dated it from the late 1970s to the early 1980s.
    Do you have any more precise memories of this meeting?
    Did Yves Véquaud and Ray Owens already know each other when they met at the Mithila?
    Do you remember any other aspects of the relationship between Véquaud and Owens?
    We thank you in advance for your attention to our efforts and we would be very happy to share other sources concerning Ray Owens and Yves Véquaud.
    Looking forward to keep in touch,
    Warmly, Yours, with Best Wishes from Damien,
    Hélène.
    [12:46 PM, 7/5/2024] Kailash Jha Sir: Dear Helene,
    It was nice to hear from you. As far as I can remember Yves Vequaud and Ray Owens met at my place (home) for the first time ever. And since the first day Mr Yves developed a severe distaste for Ray Owens. Causes were apparent – Wide difference of perspective on research, difference in the personality of the two scholars and the unnecessarily superimposing character of Ray Owens. While Yves was interested in recording what he saw and understood, Ray was rather interested in changing the substantive content of Mithila’s traditional frescoes. Ray, in course of his romanticism, got involved in a murder case in one of the villages in Mithila. Once it was reported to the US Embassy at Delhi, the University of Texas was informed and Ray lost his Full Bright fellowship. After this event Ray fell back upon holding exhibitions of the paintings at different places in the US and selling them too. Later he is reported to have died in course of a surgery. I think Ray and Yves never collaborated on any issue whatsoever. And I do not know anything more than this.
    Best wishes and regards,
    Shrutidhari Singh.
    [12:46 PM, 7/5/2024] Kailash Jha Sir: Dear Shrutidhari, Many thanks for your prompt answer and I deeply apologized for the slight delay of my answer. Im’ not that much on Facebook and I just see your answer. Excellent, all right, it confirms what you explained to us previously and it shows so accurately how their visions of research differed. If ever you remember the date, the year of this meeting ; it could be between 1977 and 1980, isn’t ? I remember Vequaud sojourned again in Mithila with Madeleine Perriot, two months – from ovember to 28 december 1980 – to be part of your wedding.In any case, many thanks to have answered, it’s always a pleasure to read you & to keep in touch !! I will let you know any changes concerning my work on Mithila. Best Wishes, Warmly, to you, your friends & family, also from Damien. Hélène Fleury.
Yves Vequard की हस्तलिखित नोट
Yves Vequard की हस्तलिखित नोट

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