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बंगलादेश : बेरोज़गार युवाओं की लड़ाई व्यर्थ चली गई

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बंगलादेश : बेरोज़गार युवाओं की लड़ाई व्यर्थ चली गई
बंगलादेश : बेरोज़गार युवाओं की लड़ाई व्यर्थ चली गई
Subrato Chatterjeeसुब्रतो चटर्जी

बिना किसी आर्थिक हितों के भयंकर टकराव के किसी भी देश की स्थिति श्रीलंका या बांग्लादेश जैसी नहीं बन सकती है. बांग्लादेश के हालिया प्रतिक्रांति के पीछे चीन की विस्तारवादी नीति के साथ साथ भारत (मतलब अदानी) के आर्थिक हितों के बीच टकराव के साथ साथ अमरीकी सामरिक और आर्थिक हितों का टकराव भी है. इसे बहुत ध्यान से समझने की ज़रूरत है. भारत और चीन दोनों का बहुत बड़ा निवेश बांग्लादेश में है, यह सर्वविदित है. अमरीकी कपड़ा उद्योग की निर्भरता भी बांग्लादेश पर दशकों से रही है ।

अब सवाल यह है कि जब तीनों देशों के आर्थिक हित बांग्लादेश के स्थायित्व के साथ जुड़े हुए हैं तो इस तरह की प्रतिक्रांति से लाभ किसे हुआ ? अगर मान लिया जाए कि चीन और पाकिस्तान दोनों ने मिल कर तख्ता पलट किया तो to what end ?

क्या पाकिस्तानपरस्त बीएनपी के सत्ता पर आ जाने से बांग्लादेश खुल कर पाकिस्तान के साथ खड़ा हो जाएगा ? याद रखिए कि दोनों देशों के बीच भारत जैसी एक regional महाशक्ति खड़ी है जो यह होने नहीं देगा.

चीन हसीना को तीस्ता नदी के समझौते पर धोखा देगा यह बात भी pearl necklace की थ्योरी को सपोर्ट नहीं करता है. बांग्लादेश वैसे ही चीनी क़र्ज़ के नीचे दबा हुआ है और कोई भी प्रधानमंत्री रहे वह चीन के influence से पूरी तरह से बाहर नहीं निकल सकता है.

अब आईए अमरीका पर. अमरीका को भारत के दोनों तरफ़ दुश्मन देश चाहिए, तभी वह चीन के सामने नई सामरिक चुनौती स्थापित कर सकेगा. हसीना अमरीका को एयर बेस देने के लिए तैयार नहीं थी, जो कि शायद ख़ालिदा जिया दे दे.

यहीं पर सारा मसला है. अमरीकी एयर बेस के साये में बांग्लादेश में अमरीकी हितों की रक्षा भी होगी और चीन और भारत के विरुद्ध एक power centre भी बनेगा.

देर सबेर अमरीका, बर्मा और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों को मिला कर एक ईसाई बहुल देश भी बनाएगा और इसमें भारत के उत्तर पूर्व के ईसाई बहुल इलाक़ों को भी शामिल करने के लिए वहां सशस्त्र विद्रोह को हवा देगा.

भारत टुकुर टुकुर देखता रह जाएगा, क्योंकि यहां की सरकार मूर्खों और सांप्रदायिक घृणा से लबरेज़ फ़ासिस्ट लोगों के हाथों में है, जिनका एकमात्र लक्ष्य कतिपय बेईमान धंधेबाज़ों की दलाली के सिवा और कुछ नहीं है.

मैं सिर्फ़ क़यास ही लगा सकता हूं कि आज अगर ईंदिरा गांधी होतीं तो क्या करतीं ! जेनरल मानेक शॉ की कमी तो आज भी देश में नहीं है, लेकिन नपुंसक राजनीति नेतृत्व का क्या करूं ? ऐसे में विपक्ष लाख सरकार के साथ इस समस्या का सामना करने के लिए खड़ा रहे, कोई फ़ायदा नहीं होगा. वैसे पूंजीवादी व्यवस्था को ढोने वाले विपक्ष को भी राजपक्षे या हसीना गति प्राप्त होने से डर तो लगता ही होगा ?

हसीना के बाद बांग्लादेश में जो व्यवहार अल्पसंख्यकों के साथ हो रहा है, उससे समझ जाइए कि फ़ासिस्ट शक्तियों के मुक़ाबले के लिए तथाकथित अधिनायक की ज़रूरत क्यों पड़ती है. हसीना ने सख़्त हाथों से बांग्लादेश में पाकिस्तान और अमरीका परस्त ताक़तों को सत्ता से दूर रखा था, उनको dictator कहा गया.

आज बांग्लादेश सेना के हाथों में है और सेना लुंपेन और पाकिस्तान परस्त फ़ासिस्ट लोगों से देश को नहीं बचा पा रही है. जिस नेशनल सरकार की बात सेना कर रही है वह ख़ालिदा जिया की सेना समर्थित सरकार होगी. मतलब भारत के पूर्व में एक और पाकिस्तान.

भागाराम मेघवाल लिखते हैं – ‘बांग्लादेश के छात्रों का आंदोलन भी लोकतंत्र के उत्तर काल का आंदोलन है, जो बांग्लादेश वाशिन्दों के लिए काल के रूप में ही आया है. इस आंदोलन के पीछे CIA ही है. वह अपना मिलिट्री शासन ले आई. किसी भी स्वतःस्फूर्त आंदोलन का एक समय व परिस्थितियां होती है उसको समझना चाहिए.

‘लोकतांत्रिक मीडिया के उफान के दौर में बिना किसी संगठित, सुविचारित, जन हितैषी पार्टी की अगुवाई के बाहरी शक्तियां ही ऐसे आंदोलन को दिशा देकर अपने हितों के अनुकूल मोडती है.

‘बांग्लादेश में फौजी शासन आना मतलब भारत व चीन को अमेरिका द्वारा घेरना है. दोनों देश ब्रिक्स की बैकबोन है व ब्रिक्स का सम्मेलन अक्टूबर में रूस में आयोजित होना है, इससे पहले CIA सब पासे फेंकेगी ताकि डॉलर की शक्ति बनी रहे व उसकी सुप्रीमेसी को हालफिलहाल कोई चुनौती नही दी जा सके।.

‘पिछले सितंबर के साउथ अफ्रीकी सम्मेलन में भी ब्रिक्स कोई ठोस निर्णय नही ले पाया था, बस कुछ नए सदस्य ही बना पाया था. अगर अक्टूबर के सम्मलेन से पहले जितने देशों को अमेरिका अपनी तरफ मोड़ने में कामयाब होता है, उतने ही ठोस निर्णय लेने में ब्रिक्स को परेशानी होगी.

‘दुनिया के पैमाने पर यह न्यू ऑर्डर स्थापित करने की लड़ाई है. उसमें कौन किधर व किसके साथ रहता है वही महत्वपूर्ण हैं. पहले पाकिस्तान व बाद में बंगलादेश में CIA का बैठना भारत के लिए सबसे अधिक चिंता की बात है. अरब स्प्रिंग में जिन लोगों ने मिश्र के आंदोलन का समर्थन किया था, उन्होंने ही आंख मीचकर ट्यूनीशिया, यमन व लीबिया के तख्तापलट का समर्थन किया था.

‘अरब स्प्रिंग की दिशा जब मुड़ी तथा तुर्की के पड़ोसी सीरिया में असद को जबरदस्ती हटाने पर अमेरिका अड़ा तब रूस भिड़ा जिससे तुर्की, जॉर्डन, सऊदी, क़तर, कुवैत, अमीरात, ओमान उखड़ने व बर्बाद होने से बचे. बंग्लादेश के बदलाव की तरफ सावचेत से ध्यान दीजिए व उस बदलाव के निहितार्थ को समझने की कोशिश करिए.

‘इस बदलाव से कश्मीर-पंजाब, उतर प्रदेश, बंगाल व बिहार असुरक्षित हो गए है, इसे मध्यनजर रखिये. CIA एक ही हाथ में अनेक बॉल उछालकर नियंत्रित करना जानता है. राजनीति कभी भी सीधी व सरल नहीं होती.’

बेरोज़गार युवाओं की लड़ाई व्यर्थ चली गई, क्योंकि उनके पास वामपंथी नेतृत्व नहीं था. श्रीलंका में भी यही हुआ. दरअसल अर्थव्यवस्था का कोई भी पूंजीवादी मॉडल रोज़गार सुनिश्चित नहीं कर सकता है, जबकि चीन ने तीस सालों पहले ही बेरोज़गारी मिटा दी थी. बिना व्यवस्था परिवर्तन के राजनीतिक नेतृत्व के परिवर्तन का कोई भी नतीजा नहीं निकलता है.

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