ज़िंदगी
मेरी तेरी यादों की
एक साझा विरासत थी
तुमने खो दिया उसे
और मैंने संजो कर रखा
अब हम सही मायने में
मैं और तुम बन गए हैं
आत्मश्लाघा
तुम्हारे प्रेम ने
मुझे ख़ुद पर रश्क करना सिखाया
और मचल पड़ा मैं
बरसाती नाले की तरह
मौसम बदला
और आसमान से ज़मीन की दूरी
बढ़ती गई
अब तुम्हारे निस्पृह नील को
मैं आंसुओं के दो बूंदों में उतारते हुए
अपनी अंतिम यात्रा पर हूं
स्पर्श
तुम्हारी नाज़ुक कलाई पर
मेरे गर्म, सख़्त पंजे की पकड़
ढीली होने के पहले
बता गया था
स्पर्श का महत्व
जब अभ्यारह्न में
फूट पड़े थे असंख्य
लाल, चटक पलाश
हृदय से फूटते रक्त की तरह.
पुकार
मुझे मालूम है कि
वह आज भी पुकारती है मुझे
सोच्चार हो कर
जब कॉफी बनाते हुए उसमें
चीनी के बदले डाल देती है
नमक
बाहर जाने के पहले
वार्डरोब से चुनते हुए कपड़े
छाँट देती है मेरे दिये हुए कपड़े
ताकि कोई पूछ न ले
कहां से ख़रीदी थी ये कपड़े
उसे मालूम है कि
मेरे प्रेम ने उसे कई वस्त्र दिये थे
जो उसके शरीर के लिए नहीं थे
मुझे
उसकी उपेक्षा में
उसकी पुकार सुनने की
सलाहियत है.
- सुब्रतो चटर्जी
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