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आरक्षण पर चन्द्रचूड़ : ब्राह्मणवाद जब जब संकटग्रस्त होता है, कोई बाभन अवतारी भेष में आता है

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आरक्षण पर चन्द्रचूड़ : ब्राह्मणवाद जब जब संकटग्रस्त होता है, कोई बाभन अवतारी भेष में आता है
आरक्षण पर चन्द्रचूड़ : ब्राह्मणवाद जब जब संकटग्रस्त होता है, कोई बाभन अवतारी भेष में आता है
सिद्धार्थ रामू

जब भी ब्राह्मणवाद संकटग्रस्त होता दिखता है, कोई बाभन नए अवतारी भेष में सामने आता है. बुद्ध की चुनौती खत्म करने बाभन शंकराचार्य आया. रैदास-कबीर की चुनौती खत्म करने तुलसीदास दुबे आया. फुले-शाहू जी की चुनौती खत्म करने बाभन तिलक आया.

अंबेडकर-पेरियार की चुनौती खत्म करने बाभन हेडगेवार-गोलवरकर और उनके चेले आए. इस समय दलितों-पिछडों और आदिवासियों की बनती एकता ब्राह्मणवाद के रथ को थोड़ा पीछे ढ़केल रही थी. इस एकता को तोड़ने बाभन चंद्रचूड़ सामने आया. सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में.

गज़ब पाखंडी चंद्रचूड़, जिसका बाप धनंजय विष्णु चंद्रचूड़ सुप्रीमकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश था, जो अपने बाप की कृपा से खुद सुप्रीमकोर्ट का न्यायाधीश और बाद में मुख्य न्यायाधीश बना, जिसका बेटा जल्द ही हाईकोर्ट का न्यायाधीश बनने वाला है. वह और उसकी टीम कह रही है, आरक्षण का लाभ एक पीढ़ी के बाद नहीं मिलना चाहिए.

ब्राह्मणवाद की रक्षा और सवर्णो के वर्चस्व को कायम रखने के लिए जो काम पिछडों के तथाकथित प्रतिनिधि के रूप में नरेंद्र मोदी कर रहे हैं, ठीक वही काम तथाकथित दलित जज के रूप में जस्टिस गवई ने किया था एससी के आरक्षण को बांटने और बांटने यह अधिकार राज्यों को सौंपने में हिस्सेदारी करके.

वंचित तबकों (एससी-एसटी और ओबीसी) के आरक्षण के सबसे प्रबल पैरोकार शाहू महराज और डॉ. आंबेडकर ने वंचित तबकों के लिए आरक्षण के पक्ष में जो तर्क और तथ्य दिए, उसमें कहीं भी आरक्षण को दलितों, आदिवासियों या अन्य पिछड़े वर्गों के गरीबी को खत्म करने के किसी प्रत्यक्ष उपाय के रूप में नहीं देखा गया.

सबसे पहले शाहू महराज ने एससी-एसटी और ओबीसी को आरक्षण क्यों जरूरी है, उससे पक्ष में मुकम्मल तर्क दिया था. उसके बाद आरक्षण के सबसे बड़े पैरोकार के रूप में डॉ. आंबेडकर सामने आए.

दोनों ने साफ शब्दों में कहा है कि दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़े वर्ग ऐतिहासिक तौर पर निर्णय प्रक्रिया के दायरे से बाहर रहे हैं. आरक्षण एक ऐसा कारगर उपाय है, जिसने इन तबकों के प्रतिनिधियों को हर स्तर पर निर्णय प्रक्रिया में और उन निर्णयों के क्रियान्वयन में हिस्सेदारी मिल सकती है.

उनका साफ तर्क था कि इस देश के सवर्ण और अन्य शासक जातियां हर उस जगह पर काबिज हैं, जहां पूरे देश के बारे में और इन तबकों के हितों-अहित के बारे में निर्णय लिए जाते हैं. अंग्रेजों के चले जाने के बाद तो हर तरह का निर्णय लेने का अधिकार इनके हाथ में आ जाएगा.

उन्होंने कहा कि सवर्णों और अन्य शासक जातियों का इतिहास यह बताता है कि जब ये निर्णायक के पदों पर होते हैं, तो अपनी वर्ण-जातियों के पक्ष में ही निर्णय लेते हैं. एससी-एसटी और ओबीसी के हितों के खिलाफ काम करते हैं.

इस देश में एससी-एसटी और ओबीसी के हितों में निर्णय तभी हो सकता है, जब इन तबकों के प्रतिनिधि उन सभी जगहों पर हों जहां निर्णय लिया जाता है. उन जगहों पर भी हों जहां निर्णय लेने में शामिल करने वालों को तैयार किया किया जाता है, जैसे शिक्षा संस्थान और अन्य जगहें.

शाहू महराज और बाबा साहेब ने यह भी कहा कि न केवल निर्णय की प्रक्रिया में, बल्कि निर्णयों के क्रियान्वयन ( लागू करने वाली जगहों) में इन तबकों प्रतिनिधि होने चाहिए. इसलिए हर संस्थान और हर स्तर पर आरक्षण का सिद्धांत सामने आया.

बाबा साहेब लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था में संसद और विधान सभाओं को निर्णय का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र मानते थे. उनका शुरू से मुख्य जोर इन संस्थाओं में एससी-एसटी के वास्तविक प्रतिनिधियों की उपस्थिति सुनिश्चित करना था.

इसके लिए उन्होंने सामुदायिक प्रतिनिधित्व ( कम्युनल रिप्रजेंटेशन) की मांग की थी. वे चाहते थे कि संसद और विधानसभाएं, जो लोकतंत्र में निर्णय के सबसे मुख्य केंद्र हैं, वहां एससी-एसटी के वास्तविक प्रतिनिधि उपस्थित हों. उनकी यह मांग स्वीकार भी कर ली गई थी.

लेकिन पूना पैक्ट ने इस राजनीतिक प्रतिनिधित्व के चरित्र को सिर्फ प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व में बदल दिया. सुरक्षित सीट से जीतने वाले एससी-एसटी प्रतिनिधि सिर्फ कहने को एससी-एसटी के प्रतिनिधित होते हैं.

लोकतंत्र में व्यक्ति व्यवहारिक तौर पर उसी का प्रतिनिधित्व करता है, जिसके वोट से जीतता है, सिद्धांत में चाहे जो बातें हो. एससी-एसटी सीटों से जीतने वाले प्रतिनिधि बहुत बार उन लोगों के वोटों और उन पार्टियों के प्रतिनिधि के तौर जीतते हैं, जो खुले तौर पर या छिपे तौर पर एससी-एसटी के विरोधी हैं.

जीतने वाले उम्मीदवारों को अगली बार भी जीतना होता है, वह एससी-एसटी की जगह उनका ध्यान रखता है, जिनके वोटों से जीता है. उसका दलितों-आदिवासियों के हितों से कोई लेना-देना नहीं होता है. इस तरह आंबेडकर की राजनीति आरक्षण की अवधारणा का सार पूना पैक्ट ने खत्म कर दिया. इस बात को बड़े दर्द के साथ आंबेडकर ने कहा कि पूना पैक्ट ने दलित राजनीति की रीढ़ तोड़ दी.

पूना पैक्ट ने एससी-एसटी, विशेषकर एससी के राजनीतिक आरक्षण की बहुत पहले ही ऐसी-तैसी कर दी थी. संसद और विधान सभाओं में एससी-एसटी के लिए सुरक्षित सीटों से जीतने वाले उम्मीदवारों के व्यवहार से सहज इसको आप देख सकते हैं. अब बचा नौकरियों (नीचे से ऊपर तक की नौकरशाही) और शिक्षा में आरक्षण. पहले तो इसे कभी ठीक से लागू नहीं होने दिया गया.

लेकिन इन दोनों आरक्षणों की बुनियादी पर सबसे निर्णायक हमला आर्थिक तौर पर गरीब तबकों (EWS) के नाम पर तथाकथित गरीब सवर्णों को आरक्षण देकर किया गया, जिसके लिए संविधान में कोई व्यवस्था नहीं थी. गरीब सवर्णों (सुदामा कोटा) के आरक्षण ने आरक्षण की बुनियादी अवधारणा को ही तोड़ दिया. आरक्षण को गरीब उन्मूलन के कार्यक्रम में तब्दील कर दिया गया.

दुखद यह है कि आरक्षण की शाहू जी-आबेडकर आदि की बुनियादी अवधारणा पर नरेंद्र मोदी के सबसे बड़े हमले की आंबेडकर के विचारों पर चलने वाली पार्टी कही जाने वाली बसपा ने सबसे आगे बढ़कर समर्थन किया. अन्य दलित-पिछड़ों की पार्टियां भी इसके पीछे हो ली, कुछ एक स्वरों को छोड़कर.

अब आरक्षण की अवधारणा और इसके आधार पर मिले एससी के आरक्षण पर एक दूसरा निर्णायक हमला चंद्रचूड़ के नेतृत्व में सुप्रीमकोर्ट ने किया है.

आरक्षण को हर तरह के निर्णय प्रक्रिया और क्रियान्वयन प्रक्रिया में हिस्सेदारी के आंबेडकर की बुनियादी अवधारणा को सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से पूरी तरह कुचल दिया गया है. इसमें साफ तौर पर आरक्षण को गरीबी उन्मूल कार्यक्रम के रूप में परिभाषित किया गया है. क्रीमी लेयर, एक पीढ़ी के बाद आरक्षण न मिले, जिन उपजातियों को आरक्षण मिल चुका है, उन्हें इससे बाहर किया जा सकता है, आदि-आदि बातें.

पूरे निर्णय और जजों की टिप्पणियों से ऐसा लगता है, जैसे वह यह मान रहे हों कि आरक्षण से एससी की कोई एक उप-जाति के कुछ लोग अमीर हो गए हैं, अब एससी की किसी दूसरी उप-जाति को अमीर बनाया जाए. मानो आरक्षण का यही उद्देश्य हो !

हालांकि आरक्षण को गरीब उन्मूलन कार्यक्रम बनाने में एससी समुदाय से आरक्षण पाए लोगों की भी कम भूमिका नहीं रही है. जब वे आरक्षण से निर्णायक पदों पर गए या लागू करने वाली जगहों पर गए तो उनमें से बहुतों यह नहीं सोचा कि वे दलितों के प्रतिनिधि के रूप में यहां जगह पाएं हैं. यह सिर्फ उनके लिए पक्की सरकारी नौकरी या घर-दुआर बनाने और पैसा कमाने की जगह नहीं है. वे किसी के हितों का प्रतिनिधित्व करने यहां आएं हैं. इस स्थित का सवर्ण शासक वर्ग ने फायदा उठाया.

नरेंद्र मोदी ने सुदाम कोटा (EWS) के माध्यम से और चंद्रचूड़ की टीम ने एससी आरक्षण के बंटवारे और इस बंटवारे के अधिकार को राज्यों को सौंप कर दलितों के प्रतिनिधित्व के प्रश्न को गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम बना दिया. इस तरह शाहू जी महराज और आंबेडकर के आरक्षण की अवधारणा कुचल और उलट दिया.

ब्राह्मणवाद और सवर्ण वर्चस्व को सबसे बड़ी चुनौती को खत्म करने का एक और बड़ा तरीका सुप्रीमकोर्ट ने निकाल दिया – सवाल है, कैसे ? इस देश में ब्राह्मणवादी की जिस संस्था सबसे अधिक रक्षा की है, उस संस्था का नाम सुप्रीमकोर्ट है.

इस बात से शायद कोई इंकार कर पाए कि दलित इस देश में ब्राह्मणवाद और सवर्ण वर्चस्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती रहे हैं. आंबेडकर ने इस समूह को ऐसे दार्शनिक, वैचारिका और राजनीतिक हथियारों से लैसे कर दिया कि यह चुनौती आधुनिक भारत में ब्राह्मणवाद और सवर्ण वर्चस्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई.

सुप्रीम कोर्ट ने दलितों की विभिन्न उप-जातियों के आपस में लड़ाने का ऐसा रास्ता निकाला है कि वे एक दूसरे को ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझें. एससी आरक्षण के बंटवारे में दलितों की हर उपजाति अधिक से अधिक हिस्सा पाने के लिए आपस में सिर फुटौवल करें. सवर्णों इसे देखकर मुस्काराएं. ब्राह्मणवाद सुरक्षित रहे.

एससी के किसी एक उप-जाति को राज्य सरकारें 99 प्रतिशत आरक्षण दे सकती हैं- आप इसका मतलब समझ रहे हैं ? चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीमकोर्ट की बेंच राज्यों को एससी आरक्षण में बंटवारे का अधिकार देते हुए कहा कि राज्य सरकार किसी एक उप-जाति को एससी का 100 प्रतिशत आरक्षण नहीं दे सकती है.

मतलब निर्णय के हिसाब से 95 प्रतिशत, 97 प्रतिशत यहां तक की 99 प्रतिशत आरक्षण एक उप-जाति को दे सकती है. मान लें शर्म-हया बस इतना न दे तो 60 प्रतिशत, 40 प्रतिशत दे सकती है.

फैसले से साफ है कि एससी की उप-जातियों के बीच एससी के कुल आरक्षण का बंटवारा करते समय जनसंख्या में उनकी आबादी का कोई ध्यान नहीं रखा जाएगा. 10 प्रतिशत वाली एससी की उपजाति को एससी के कुल आरक्षण का 60 प्रतिशत, 70 प्रतिशत या 99 प्रतिशत भी दिया जा सकता है.

इसमें यह भी निहित है कि एससी की किसी उपजाति को कुछ सालों के लिए आरक्षण से बाहर भी किया जा सकता है. एससी की किसी उप-जाति के आरक्षण को 5 प्रतिशत या 10 प्रतिशत तक सीमित किया जा सकता है. भले ही उसकी आबादी एससी की आबादी का 50 प्रतिशत हो.

कल्पना करना कोई मुश्किल नहीं है कि जो एससी की उप जाति उस समय के राज्य सरकार को वोट देती होगी, वह चाहे तो उसे 99 प्रतिशत आरक्षण दे सकती है. इस फैसले में इसके लिए प्रावधान है, बस 100 प्रतिशत नहीं होना चाहिए.

राज्य सरकार को ऐसा करने के लिए कुछ नहीं करना है. एक कमेटी बनानी है. जो यह रिपोर्ट दे कि फलां उप जाति का प्रतिनिधित्व एससी समूह में बहुत कम है, फलां का अधिक है. राज्य सरकार उस रिपोर्ट के आधार किसी उप जाति को एससी आरक्षण से बाहर कर सकती है, उसे 5 प्रतिशत पर सीमित कर सकती है.

जिस उप-जाति के बारे में कमेटी ने कहा है कि उसका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है या बहुत कम या नगण्य है, उस उपजाति को राज्य सरकार 100 प्रतिशत से कम, जितना चाहे उतना आरक्षण दे सकती है. कमेटी की रिपोर्ट सही है या नहीं, इस पर मुकदमा हाईकोर्ट-सुप्रीमकोर्ट में दायर किया जा सकता है. सबको पता है कि मुकदमा दायर करने और फैसला आने की प्रक्रिया क्या होती है. कितने दिन में फैसला आता है और कैसे आता है.

एससी की हर उपजाति यह कोशिश करेगी कि वह खुद को वर्तमान राज्य सरकार का वफादार वोटर साबित करे और उससे आरक्षण हासिल करे. मतलब एससी की उप-जातियां आपस में राज्य सरकारों के प्रति वफादारी के लिए प्रतियोगिता करेगी. आपस में संघर्ष करेगी. उनके बीच एकता के बिंदु टूट जाऐगी. इस सबका मजा सवर्ण लें. उनका वर्चस्व सुरक्षित रहे. ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष खत्म हो जाए.

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