जगदीश्वर चतुर्वेदी
आरएसएस-भाजपाईयों के तर्कशास्त्र की यह विशेषता है कि वे किसी भी वस्तु, घटना, परंपरा, संस्कार आदि पर जब भी बातें करते हैं या उसका प्रचार करते हैं तो उसके ऐतिहासिक संदर्भ को नष्ट कर देते हैं या विकृत करते हैं या संदर्भहीन बनाते हैं. उनका तर्कशास्त्र तनाव, उन्माद और विभ्रम की सृष्टि करता है. ‘हम सब हिन्दू हैं’ के बारे में गढ़ा गया उनका आख्यान और प्रौपेगैंड़ा इस पद्धति का आदर्श नमूना है. सच यह है भारत रहने वाले सब हिन्दू नहीं हैं. हिन्दू वे ही हैं जो वेद, पुराण और स्मृतियों में विश्वास करते हैं और उनके अनुसार आचरण करते हैं. इस नज़रिए से देखें तो भारत में हिन्दुओं के अलावा अन्य धर्म के मानने वाले लोग भी रहते हैं. लेकिन संघी अहर्निश यही प्रचार करते हैं कि भारत में जो रहता या जन्मा है, वह हिन्दू है.
आरएसएस प्रचार के जरिए ‘भारतीय’ की अवधारणा को भी विकृत करता है. ‘भारतीय’ पदबंध बहुलतावाद को व्यंजित करता है. लेकिन उसे यदि हिन्दू का पर्याय बना देंगे तो वह हिन्दूवाद को व्यक्त करेगा और यह बहुलतावाद का अंत है. उसकी अवधारणा का अस्वीकार है. संघियों ने प्रचार के ज़रिए भारतीय के पर्याय के रुप में हिन्दू नाम को खूब उछाला है. वे नागरिक की धारणा को भी हिन्दू की अवधारणा के आधार पर व्याख्यायित करते हैं. नए नागरिकता क़ानून में उन्होंने नागरिक माने हिन्दू के परिप्रेक्ष्य में ही नागरिक की नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश की है, जिसका चौतरफ़ा विरोध हो रहा है. ये कुछ नमूने हैं उनके ऐतिहासिक संदर्भ और सटीक अर्थ को भ्रष्ट करने के.
ऐतिहासिक संदर्भ या सही संदर्भ को विकृत करना फासिज्म की जानी-पहचानी पद्धति है. इस पद्धति का एक ज़माने में हिटलर ने खूब इस्तेमाल किया था.
हिन्दू वोट बैंक राजनीति का आर्थिक दर्शन है ‘पूंजीवाद के बिना पूंजीवाद.’ वे बुनियादी तौर पर पूंजीवाद के द्वारा निर्मित संरचनाओं और जीवन मूल्यों के ख़िलाफ़ खुली बग़ावत करते हैं. वे उन तमाम चीजों, विचारों, वस्तुओं और नेताओं को प्रचारित करती हैं. इस मेनीपुलेशन के ज़रिए वे एक ऐसी अर्थव्यवस्था निर्मित करते हैं जिसमें पूंजीवादी घराने तो होते हैं लेकिन सामाजिक-राजनीतिक जीवन में पूंजीवादी मूल्यों और पेशेवराना नज़रिए, न्याय, समानता, लोकतंत्र, भाईचारे आदि पूंजीवादी मूल्य और व्यवस्थाएं अर्थहीन बना दी जाती हैं. यही वजह है कि वे ऐसा पूंजीवाद विकसित करते हैं जिसमें रोजगार-काम धंधे एकदम चौपट हो जाते हैं.
विगत दस सालों में नरेन्द्र मोदी की सरकार ने ईमानदारी से ‘पूंजीवाद के बिना पूंजीवाद’ के विकास के मॉडल का पालन किया है और तक़रीबन 40 करोड़ से अधिक लोगों को बेरोज़गार बना दिया. वहीं दूसरी ओर कारपोरेट घरानों के मुनाफ़ों में कोई कमी नहीं आई बल्कि औसतन हरेक कारपोरेट घराने के मुनाफ़े में 20 से 30 फ़ीसदी तक की वृद्धि हुई है. कारपोरेट घरानों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफ़ों में इज़ाफ़ा हुआ है. बेकारों को अन्य ग़ैर जरुरी चीजों में व्यस्त कर दिया है. इनमें सबसे बड़ी व्यस्तता है इंटरनेट की.
अधिकांश बेकार नौजवानों को इंटरनेट-सोशल मीडिया कम्युनिकेशन में इस तरह उलझा दिया है कि वे सामाजिक यथार्थ देखने को तैयार ही नहीं हैं. गैर-जनतांत्रिक मूल्यों और समस्याओं के कम्युनिकेशन और वाद-विवाद में उन्मादियों की तरह उनको व्यस्त कर दिया है. इस सबका मूल लक्ष्य है कि यथार्थ से दूरी रखो, यथार्थ मत देखो, यथार्थ समस्याओं पर बातें मत करो. इसके कारण पूरे समाज को समुदाय. जाति, धर्म, जीवन शैली, मनोरंजन के अर्थहीन मसलों में व्यस्त कर दिया गया है.
‘पूंजीवाद के बिना पूंजीवाद’ मूलतः विकासहीन विकास है. यह ऐसा पूंजीवाद है जिसमें पूंजीवाद होगा लेकिन पूंजीवाद का कहीं पर विरोध नज़र नहीं आएगा. वर्ग विभाजन, वर्गीय शोषण नज़र नहीं आएगा. वर्गीय शोषण-उत्पीड़न, निष्कासन, छंटनी, हड़ताल आदि पर कभी मीडिया कवरेज नज़र नहीं आएगा. पीएम नरेन्द्र मोदी कभी इन समस्याओं पर नहीं बोलते. आरएसएस का कोई नेता इन पर भाषण नहीं देता. उनको मजदूरों की अशांति और पामाली नज़र नहीं आती. आपको लगेगा कि राष्ट्र का निर्माण और पूंजीवाद का विकास मज़दूरों के बिना हो रहा है.
कहने का आशय यह कि वर्गीय अंतर्विरोधों को छिपाना और उनको अस्वीकार करना, वर्गीय दमन और वर्गीय लूट को छिपाना और ख़ुशहाली का झूठा प्रचार करना इनकी प्रवृत्ति है. यही वजह है किसान आंदोलन को सरकार अस्वीकार कर रही है, मीडिया कवरेज नहीं दे रहा. आरएसएस प्रमुख चुप्पी साधे बैठे हैं. वे असमानता और लूट को बड़े कौशल से छिपा रहे हैं. इसे ही नॉर्मलसी कह रहे हैं. इस समूचे प्रौपेगैंडा का लक्ष्य है आम जनता की यथार्थ से दूरी बनाना, यथार्थ से अलगाव पैदा करना.
आरएसएस की राजनीति को देखने का तरीक़ा यह है कि आप यह देखें कि वह चीजों को कैसे देखता है ? राजनीतिक उत्पीड़न, मानवाधिकार हनन, संस्कृति और मासकल्चर को कैसे देखता है ? छात्रों-नौजवानों, शिक्षकों, निम्न मध्यवर्ग-मध्यवर्ग, किसान, मजदूर की समस्याओं को कैसे देखता है ? देखता भी है या नहीं ?
आरएसएस असल में मेनीपुलेशन और दृष्टिकोण को भ्रष्ट करने वाले नज़रिए से चीजों को देखता है. मेनीपुलेशन के नज़रिए से देखना उसकी मूल दृष्टि है. मेनीपुलेशन के बिना संघ कोई कम्युनिकेशन नहीं करता. वह यदि विवेकानंद, आम्बेडकर, गांधी, पटेल, सुभाष चन्द्र बोस आदि पर बातें करता है और उनको अपना बनाकर पेश करता है तो वस्तुतः मेनीपुलेट करता है. उनके विचारों को विकृत करके पेश करता है. उनके बारे में झूठ बोलता है जबकि इन सभी नेताओं का संघ के नज़रिए से कोई संबंध नहीं है.
मेनीपुलेशन का एक अन्य बड़ा क्षेत्र है इतिहास, उसका वे बार-बार मेनीपुलेशन करते हैं. वैज्ञानिक इतिहास लेखन पर हमले करते हैं.
इसी तरह भाषा में वे हिन्दी को सबसे ऊपर दर्जा देते हैं. हिन्दी को भेदभाव की भाषा और वर्चस्व की भाषा के रुप में इस्तेमाल करते हैं. प्रतिगामी और विकृत विचारों के कम्युनिकेशन की प्रभावशाली भाषा के रुप में उन्होंने नए क़िस्म की हिंदी को विकसित किया है.
यह वह हिंदी है जिसका हिंदी साहित्य की परंपरा, भाषाओं की परंपरा और संस्कृति की परंपरा से कोई संबंध नहीं है. यह मूलतः निर्मित हिंदी है. नक़ली हिंदी है. संघ के मीडिया-साइबर सैल द्वारा रचित हिंदी है. इसका जन्म आरएसएस की शाखाओं में ब्रेन वाशिंग की भाषा के रुप में हुआ है. इसका हिंदी भाषी समाज से कोई संबंध नहीं है लेकिन इन दिनों इस हिंदी ने हिन्दी भाषी युवाओं को अपने भाषायी कम्युनिकेशन में बांध लिया है.
आरएसएस के फ़ासिस्ट चरित्र को विश्लेषित करते समय उसे हूबहू यूरोपीय फ़ासिस्ट मॉडल के आधार पर विश्लेषित करने से बचना चाहिए. यह सच है यूरोपीय फासिज्म से उन्होंने बहुत कुछ उधार लिया है, उसी तरह उनके नज़रिए में बहुत सारे तत्व वे भी हैं जो सीआईए ने शीतयुद्धीय राजनीति के तहत निर्मित किए हैं.
आरएसएस असल में ‘आंदोलन’ की तरह काम करता है. उसके द्वारा भारत में सत्ता हथियाए जाने को राज्य के चरित्र के साथ एकमेक नहीं करना चाहिए. आरएसएस को राज्य की संरचना न समझें. ‘आंदोलन’ के कारण ही वे ‘चेतना’ और ‘संस्कृति’ के रुपों को प्रभावित करने में सफल हो जाते हैं. अपने विचारों और संघ संचालित आंदोलनों को आकर्षित करने में सफल हो जाते हैं. वे अपनी गतिविधियों से स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव पैदा करने में सफल हो जाते हैं.
वे जनता को नियमित और नियंत्रित करने के लिए ‘धर्म’ और ‘आध्यात्मिकता’ के उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं. उनके मॉडल को ‘संघी आंदोलन’ मॉडल कहना समीचीन होगा. इस मॉडल के ज़रिए वे ‘सत्ता के प्रति समर्पण’ और ‘अध्यात्म के (द्वारा) नियंत्रण’ का प्रचार करते हैं. उसे भारतीय इडियम में पेश करते हैं. देशज भाषा, देशज प्रतीक और मिथों का इस्तेमाल करते हैं. ‘अनुकरण’ और ‘क़ुर्बानी’ पर ज़ोर देते हैं. फलतः संघ स्थानीय स्तर पर प्रभावित करने में सफल हो जाता है लेकिन उसका ग्लोबल स्तर पर कोई असर नहीं होता.
धार्मिक संरचना और धार्मिकता के आवरण में हर चीज को पेश करने के कारण आरएसएस हर चीज को रहस्यमय बना देता है. अदृश्य बना देता है. यही वजह है उनकी कार्यप्रणाली में कोई पारदर्शिता नहीं है. वे ग्लोबल फासिज्म के स्थानीय एजेंट की तरह भूमिका अदा करते हैं. आमतौर पर संस्कृति के सवालों के बहाने राष्ट्रीय राजनीति करते हैं. इस अर्थ में वे राजनीतिक संगठन की भूमिका अदा करते हैं.
आरएसएस के नज़रिए में कोई पारदर्शिता नहीं है जिसके कारण उसने अपना न तो रजिस्ट्रेशन कराया है और नहीं वह अपने आय-व्यय का ब्यौरा देता है. वह संस्कृति पर जब भी बातें करता है तो संस्कृति को समय के संदर्भ से काटकर पेश करता है. संस्कृति उनके यहां समय रहित होकर आती है. आम जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए वे अतीत की ओर लौटता है. अतीत के समाधानों से वर्तमान की समस्याएं कभी हल नहीं होतीं. अतीत के समाधानों को संघ प्रौपेगैंडा के ज़रिए आरोपित करने की कोशिश करता है और समस्याओं के वैज्ञानिक और सही समाधान से ध्यान हटाने की कोशिश करता है. अतीत के समाधान एक काम और करते हैं वे मृत मूल्यों-संस्कारों को ज़िंदा करते हैं. इसके कारण नए क़िस्म की प्रतिगामिता जीवन में दाखिल होती है.
इसके अलावा आरएसएस व्यक्ति के अंदर और बाहर काल्पनिक शत्रु की सृष्टि करता है और इन काल्पनिक शत्रुओं से लड़ने में अपने अनुयायियों और समाज को व्यस्त रखता है. संघ व्यक्ति के जीवन में व्याप्त अलगाव, एकांत और सांस्कृतिक अभाव का दोहन करता है और कृत्रिम सामाजिकता के ज़रिए उस अलगाव को दूर करने की कोशिश करता है. तात्कालिक मित्रता, मदद और आत्मीयता के ज़रिए संघ अपने सामाजिक आधार का विस्तार करता है. मित्रता और मदद के नाम पर फ़ासिस्ट मनोदशा बनाता हैं और भक्ति आंदोलन, रैनेसां, राष्ट्र-राज्य और संविधान प्रदत्त मूल्यों के प्रति विद्वेष की सृष्टि करके वोट बैंक की राजनीति करता है. इसे ही बहुसंख्यकवादी हिन्दू राजनीति कहते हैं. यह सब काम वे संस्कृति के नाम से करते हैं.
असल में संस्कृति का काम है शांति, सद्भाव आनंद देना, लेकिन आरएसएस अपने प्रौपेगैंडा के ज़रिए संस्कृति के सवालों पर चर्चा के ज़रिए सामाजिक तनाव और सामाजिक ध्रुवीकरण को पैदा करता है. उसकी कार्य शैली का प्रमुख अंग है प्रचलित धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक विचारों से समाज का संबंध विच्छेद करना. इस तरह के विचारों के ख़िलाफ़ आत्म-सेंसरशिप का विकास करना. सैन्यवाद, अनुदारवाद और हिंदू एकता की धारणा का प्रचार करना. इसके लिए वे बड़े पैमाने फेक भाषा का इस्तेमाल करते हैं और यही फेक भाषा फेक हिन्दू की पहचान निर्मित करती है. फेक हिन्दू ही उनके वोट बैंक का मूलाधार है.
Read Also –
हिन्दू ब्रेन वाशिंग और हिन्दू बोट बैंक की राजनीति
मोदी सरकार विज्ञान कांग्रेस और संविधान का विरोध क्यों करती है ?
सावधान ! संघी गुंडे मोदी की अगुवाई में भारत को एक बार फिर हजारों साल की गुलामी में ले जा रहा है
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]