हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
नए आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने स्वीकार किया है कि देश के विश्वविद्यालयों से डिग्री लेकर निकलने वाला हर दूसरा नौजवान किसी काम के लायक नहीं होता. यानी पचास प्रतिशत, कहें तो आधे डिग्रीधारी नौजवान किसी नौकरी के लायक नहीं होते.
कुछ वर्ष पहले चैंबर ऑफ कॉमर्स ने यह अनुपात इससे भी भयानक बताया था. कहा गया था कि देश के तकनीकी संस्थानों से निकलने वाले पचहत्तर प्रतिशत तकनीकी ग्रेजुएट किसी काम के लायक नहीं होते जबकि पचासी प्रतिशत सामान्य ग्रेजुएट किसी नौकरी के लायक नहीं होते.
अब, सरकार है तो अपनी रिपोर्ट में कुछ लाज बचा कर ही बातें करेगी. इसलिए पचासी और पचहत्तर प्रतिशत को पचास प्रतिशत के दायरे में समेट कर नए आंकड़े जारी किए गए.
जब कोई ग्रेजुएट हो कर रोजगार के बाजार में उतरता है तो उसे ‘किसी काम के लायक नहीं’ का तमगा पहना देना बहुत आसान है लेकिन यह जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं होता कि आखिर किसी नौजवान को इस शिक्षण तंत्र ने कैसे ‘नालायक’ बना कर अकेला छोड़ दिया. न सिर्फ बना कर, बल्कि अब वे उसे नालायक बता भी रहे हैं.
क्या इसमें उस नौजवान की एकांत जिम्मेदारी है या हमारे शिक्षण तंत्र की विफलता भी इसमें शामिल है ? सीधा सादा मामला बनता है शिक्षण की गुणवत्ता का और उस माहौल का, जो हम उस नौजवान को देते हैं.
यानी, हमारा तंत्र अरबों रुपए खर्च कर करोड़ों नौजवानों को ‘किसी काम के लायक नहीं’ की माला पहना कर जिंदगी के बियाबान में भटकने छोड़ देता है और हम विश्व गुरु आदि के दिवास्वप्न में डूबने लग जाते हैं.
इस संदर्भ में कुछ बातें काबिले गौर है. आर्थिक सर्वेक्षण में देश भर के पचास प्रतिशत डिग्रीधारियों के किसी लायक नहीं होने की बात कही गई है. यानी इसमें देश भर में फैले विश्वविद्यालयों, अन्य शैक्षणिक संस्थानों के साथ ही तमाम आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी आदि के साथ ही बीएचयू, जेएनयू, डीयू, हैदराबाद युनिवर्सिटी आदि जैसे नामचीन संस्थान भी शामिल हैं.
सरकार ने अपनी रिपोर्ट में औसत निकाल कर आंकड़े प्रस्तुत किए हैं. थोड़ी गहराई से सोचें तो आईआईटी, आईआईएम, जेएनयू आदि से निकलने वाले नौजवानों में ऐसी संख्या आनुपातिक रूप से कम होगी जिन्हें किसी लायक नहीं कह सकें, बनिस्पत बिहार, यूपी आदि के सामान्य संस्थानों से निकलने वालों के.
यानी, मन थर्रा उठता है अगर यह सोचा जाए कि देश भर के पचास प्रतिशत ‘किसी लायक नहीं’ बन पाने वालों में बिहार के विश्वविद्यालयों से निकलने वाले बच्चों का अनुपात क्या होगा !? इनमें बिहार जैसे पिछड़े राज्यों में अवस्थित निजी विश्वविद्यालयों या अन्य निजी संस्थानों से निकलने वाले बच्चों का अनुपात क्या होगा ?
कोई रिपोर्ट अगर जारी हो और सच से पर्दा उठ सके तो पता चले कि बिहार, उत्तर प्रदेश आदि में अवस्थित अधिकतर सरकारी और निजी शैक्षणिक संस्थान प्रतिभाओं की कत्लगाह बन कर रह गए हैं. देश के ऐसे नौजवान, जो डिग्री हासिल करने के बाद नियोक्ताओं के शब्दों में ‘किसी नौकरी के लायक’ नहीं होते, आनुपातिक रूप से उनकी सबसे अधिक पैदावार हिंदी पट्टी के इन इलाकों में ही होती है.
अपने समाज में यह दारुण सत्य हम खुली आंखों से देख भी सकते हैं. इससे भी अधिक निराशा की बात यह है कि इस स्थिति को सुधारने की कोई प्रशासनिक इच्छा शक्ति तो नहीं ही दिखाई जा रही, राजनीतिक इच्छा शक्ति का भी घोर अभाव है. लगता ही नहीं कि बिहार जैसे भयानक बेरोजगारी से ग्रस्त निर्धन राज्य के राजनीतिज्ञों को अपने विश्वविद्यालयों की दशा-दिशा से कोई मतलब भी है.
सबकी आंखों के सामने हमारे अधिकतर विश्वविद्यालय सर्वाधिक भ्रष्ट सरकारी ऑफिसों में शुमार हो चुके हैं, जहां दिन रात नियम कानूनों की खुलेआम हत्या होती है, होती ही रहती है. जहां शिक्षा की गुणवत्ता पर सिर्फ मुंह जबानी बातें होती हैं, होती ही रहती हैं, जहां के नामांकित छात्र इस देश के सबसे अधिक अभागे छात्रों में शुमार हैं और जहां से निकलने वाले अधिकांश ग्रेजुएट सच में किसी काम के लायक नहीं होते.
यह सब कोई कुछेक व्यक्तियों, कुछेक समूहों की कारस्तानी नहीं, बिहार के अधिकतर विश्वविद्यालयों में प्रतिभाओं की, उत्साहों की, शैक्षणिक गुणवत्ता की, निष्ठाओं की, नियमों की, कानूनों की बाकायदा संस्थानिक हत्या होती है और यह सब कोई लुक छिप कर नहीं, खुला खेल फर्रुखाबादी की तर्ज पर होती है.
बिहार सरकार को चाहिए कि वह केंद्र सरकार की तर्ज पर कोई विशेष सर्वेक्षण करवाए जिससे हम जान सकें कि हमारे राज्य के संस्थानों से निकलने वाले कितने प्रतिशत ग्रेजुएट किस लायक बन पा रहे हैं.
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