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जनता का स्टील कारखाना : विशाखापत्तनम में निजीकरण के खिलाफ जारी संघर्ष की एक अनूठी दास्तान

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विशाखापत्तनम स्टील प्लांट की कहानी केवल उसके मजदूरों की कहानी नहीं है. उनका प्रतिरोध, उनकी आकांक्षाएं और उनके द्वारा जीती गई लड़ाइयां एक बड़े संघर्ष का हिस्सा हैं. सार्वजनिक क्षेत्र को बचाने, नवउदारवाद से टक्कर लेने और राष्ट्रीय आधुनिकीकरण की परियोजना को साकार करवाने की लड़ाइयां इस व्यापक संघर्ष का हिस्सा हैं. इस डोज़ियर में शामिल किया गया हर कोलाज तीन अलग तरह की तस्वीरों से बना है.

मजदूरों द्वारा ली गई तस्वीरों से स्टील प्लांट के अंदर का दृश्य दिखाया गया है; वे तस्वीरें जहां सड़क पर हो रहे प्रदर्शनों में बच्चे, बुजुर्ग और समाज के विभिन्न हिस्सों से लोग शामिल हैं; और वे ऐतिहासिक और प्रासंगिक तस्वीरें जो इस संघर्ष के बड़े संदर्भ को दर्शाती हैं. एक साथ देखने पर ये कोलाज विशाखापत्तनम के लगातार जारी पीढ़ीगत संघर्ष पर प्रकाश डालते है, जो हमें कारखाने के फर्श से सड़कों पर ले आते हैं और भारत से बाहर दुनिया तक ले जाते हैं.

इस डोजियर में शामिल तस्वीरें आंध्र प्रदेश स्थित समाचार पत्र ‘प्रजाशक्ति’ के कुनचेम राजेश ने तथा विशाखापत्तनम स्टील प्लांट के मजदूरों ने उपलब्ध कराईं, जिनसे ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की आर्ट टीम ने कोलाज बनाए हैं. यह डॉजियर मुख्यत: सी. नरसिंगा राव (भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (CITU) की आंध्र प्रदेश कमेटी के सचिव) के साथ किये गये साक्षात्कार पर आधारित है.

इसके अलावा जे. अयोध्या राम (स्टील प्लांट कर्मचारी संघ के अध्यक्ष), यू. रामास्वामी (स्टील प्लांट कर्मचारी संघ के आयोजन अध्यक्ष) और डी. आदि नारायना (विशाखा स्टील मजदूर संघ के महासचिव) से प्राप्त बहुमूल्य जानकारी डॉजियर को साकार करने में उपयोगी रही. हमने यह लेख ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के वेबसाइट से प्राप्त किया है, जिसे हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं.

जनता का स्टील कारखाना : विशाखापत्तनम में निजीकरण के खिलाफ जारी संघर्ष की एक अनूठी दास्तान
जनता का स्टील कारखाना : विशाखापत्तनम में निजीकरण के खिलाफ जारी संघर्ष की एक अनूठी दास्तान

तीन दशक पहले जब पूरा देश नवउदारवादी तूफान की गिरफ़्त में आया, तब उसकी सबसे पहली मार देश के सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों पर पड़ी..इस तूफान का बीज बोया था अंतरराष्ट्रीय पूंजी और भारतीय बड़ी पूंजी के गठबंधन ने, जिसकी नजरों में सरकारी स्वामित्व वाले सार्वजनिक उपक्रम हड़पने–लायक सम्पत्ति और संसाधनों का अकूत स्त्रोतमात्र थे. ऐसे सैकड़ों सार्वजनिक उपक्रम मौजूद थे जिनका निजीकरण करके उन्हें बड़ी पूंजी की सम्पत्ति–क्षुधा का ग्रास बनाया जा सकता था. इनमें बंदरगाह, जलपरिवहन एवं नौकानिर्माण उद्योग, हवाईअड्डे, वायुपरिवहन, रेलपरिवहन, तेल एवं गैस निष्कर्षण उद्योग, पेट्रोरसायन शोधक उद्योग, दूरसंचार नेटवर्क, पूरे देश में फैला रेल नेटवर्क, भारी मशीनरी और इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों का निर्माण करने वाले उपक्रम, होटल, सार्वजनिक बैंकों का विशालकाय नेटवर्क और स्टील कारखाने शामिल थे.

तीस सालों के इस नवउदारवादी दौर के दरम्यान बड़ी पूंजी की नुमांइदगी करते हुए भारतीय राज्य ने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के खिलाफ अनवरत एक घातक अभियान चलाया है. लेकिन, यह अभियान नवउदारवादी धड़े के लिये ना तो आसान रहा है और ना ही उनकी उम्मीदों पर पूरी तरह से खरा उतरा है. यूनियनकृत कामगार वर्ग निजीकरण के हर छोटे–बड़े कदम के खिलाफ अपनी पूरी ताकत झोंक कर लड़ा है. इन लड़ाइयों के हिस्से में असफलताओं के मुकाबले सफलताएं ज्यादा आयीं हैं. हालांकि भारत सरकार बहुत सारे सार्वजनिक उपक्रमों का या तो निजीकरण कर चुकी है या उनको बंद कर चुकी है, लेकिन कई उपक्रम – विशेषकर स्टील कारखानों जैसे बड़े उपक्रम, कामगारों के संघर्ष के बल पर सार्वजनिक क्षेत्र में बचे रहे हैं. भारतीय राज्य की मध्यस्तता में चल रहा भारतीय कामगार वर्ग और बड़ी पूंजी के बीच का यह संघर्ष, नवउदारवाद के खिलाफ जारी संघर्ष और उसमें मिलने वाली सफलताओं का एक अनुकरणीय उदाहरण है.

विशाखापत्तनम स्टील कारखाने की कहानी इस अदम्य संघर्ष का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है. भारत सरकार ने आधिकारिक रूप से इस कारखाने का नाम राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड (RINL) रखा है. लेकिन भारत के दक्षिणपूर्वी आंध्र प्रदेश में बंगाल की खाड़ी के तट पर बसे शहर विशाखापत्तनम में मौजूद इस कारखाने को प्रदेश के लोग प्यार से विशाखा स्टील के नाम से पुकारते हैं. यह कारखाना प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्र में एक गौरवशाली स्थान रखता है. विशाखा स्टील के जन्म की कहानी सार्वजनिक उद्यमों की भारतीय समाज से गहरे जुड़ाव की कहानी है और यह इसके अब तक बचे रहने के कारणों पर भी प्रकाश डालती है.

जनता की इच्छाशक्ति के बल पर 1982 में अस्तित्व में आया यह स्टील कारखाना निजीकरण के कई प्रयासों से बचते हुए, अनेकों चुनौतियों को मात देते हुए अपने अस्तित्व को बचाने में सफल रहा है. अलग–अलग कालखंडों में व्याप्त राजनीतिक और आर्थिक वातावरणों के अनुसार सरकारों ने कारखाने के निजीकरण हेतु अनेकों हथकंडे अपनाये हैं. जब कारखाना नाजुक हालत में होता है तो वो विनिवेश, कारखाने के अलग–अलग विभागों का निजीकरण करने और कारखाने की सम्पत्तियों को बेचने की कोशिश करते हैं. जब कारखाना मजबूत स्थिति में होता है तो वो कारखाने को संसाधनों से महरूम करने, नीतिगत हमले, अनुमति नहीं देने और महत्वपूर्ण व्यावसायिक फैसलों में देरी करने जैसे तरीके अपनाते हैं. इन सभी हथकंडों को कारखाने के मजदूर, इसे बनवाने के लिए संघर्ष कर चुकी जनता और सहयोगी आंदोलनों के साथ मिलकर पराजित करते आये हैं.

जनभावना से उपजा जनता का स्टील कारखाना

दो सदियों के भीषण शोषण और संसाधनों की लूट के बाद भारत ब्रिटेन की औपनिवेशिक गुलामी से आज़ाद हुआ और 1947 में अपनी आज़ादी की उद्घोषणा की. नवनिर्मित राज्य के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों की सूची में तीव्र आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण शामिल थे. भारत के सामने पिछड़ापन, सर्वव्याप्त निर्धनता, नाजुक विदेशी विनिमय स्थिति, तकनीकी पिछड़ापन जैसी अपराजेय प्रतीत होने वाली चुनौतियां मौजूद थीं. इन सबके बावजूद भारत ने अर्थव्यवस्था के विस्तार और आधुनिकीकरण के लिये आवश्यक भारी उद्योगों की स्थापना करके औद्योगीकरण की एक महत्वाकांक्षी परियोजना की आधारशिला रखी. भारत ने सोवियत संघ व अन्य देशों की मदद से स्टील कारखाने, तेल शोधक कारखाने, खदानें, विद्युत संयंत्र और भारी मशीनरी, इलेक्ट्रिक उपकरणों, रक्षा उपकरणों तथा दवाईयों का निर्माण करने वाले उद्योगों की स्थापना की. इनमें से लगभग सभी उपक्रमों को सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के तौर पर शुरू किया गया था.

इन परियोजनाओं के तहत स्टील कारखानों की स्थापना आर्थिक विकास की दिशा में एक उल्लेखनीय उपलब्धि थी. भारत के विशाल रेलवे नेटवर्क, पत्तनों के निर्माण, भारी मशीनरी के निर्माण और लाखों एकड़ सूखे खेतों तक नहर के पानी की पूर्ति को सुनिश्चित करने वाली सिंचाई की विशाल परियोजनाओं के लिये स्टील एक बेहद जरूरी अवयव था. स्टील उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करना भारत के आधुनिकीकरण की परियोजना का एक खास हिस्सा था. भारतीयों के लिये लोहा और कार्बन के मिश्रण से बने स्टील का अर्थ एक धातु तक सीमित नहीं रह गया था. स्टील के कारखाने आज़ाद भारत की आकांक्षाओं का प्रतीक बन गये थे.

भारत के लौह सम्पन्न उत्तरी और पूर्वी भागों में लगे स्टील के कारखानों को दक्षिणी भारत के लोग हसरत और ईर्ष्या भरी निगाहों से देखते थे. नया भारत बनाने के लिए हज़ारों एकड़ की जमीन में फैले और लाखों टन स्टील का उत्पादन करने वाले स्टील के सार्वजनिक कारखाने, उनके लिए मंदिरों से कमतर नहीं थे. स्टील के कारखानों की स्थापना से बड़े स्तर पर रोज़गार का सृजन होता था और स्टील कारखानों के इर्द–गिर्द सहायक उद्योग पनपते थे. यही कारण है कि आंध्र प्रदेश के लोग स्टील का एक कारखाना अपने प्रदेश में लगते देखना चाहते थे.

1965 में, एक आंग्ल–अमेरिकी समूह ने दक्षिण भारत में स्टील कारखाना लगाने के लिये उपयुक्त जगह की तलाश की. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व वाली तब की भारत सरकार ने इस समूह की अनुशंसा के आधार पर विशाखापत्तनम में भारत का पहला तटीय स्टील कारखाना लगाने की अपनी मंशा की घोषणा की. इस घोषणा से तत्कालीन अविभाजित आंध्र प्रदेश में, खासकर आधुनिक औद्योगिक नौकरियों की चाहत रखने वाले युवाओं के बीच, खुशी की लहर दौड़ गयी.

विशाखापत्तनम एक बंदरगाह के किनारे बसा बेहद व्यस्त शहर था. लेकिन यह देश के सबसे पिछड़े और ग़रीब इलाकों में गिने जाने वाले इलाके में स्थित था. विशाखापत्तनम आंध्र प्रदेश के जिस उत्तरी हिस्से की गोद में स्थित था, वो क्षेत्र मुख्यत: वनवासी जनजातियों का निवास स्थान था और निर्धनता से ग्रसित था. वो क्षेत्र भूख, बीमारियों और कुपोषण से पीड़ित था जहां अक्सर हज़ारों लोग बुखार की महामारी का ग्रास बनते थे. उस समय विशाखापत्तन में कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग मौजूद थे, लेकिन ज्यादातर उद्योगों का स्वामित्व निजी हाथों में था. इन उद्योगों की मदद से उस क्षेत्र के लोगों को निर्धनता से मुक्ति दिला पाना संभव नहीं था. एक एकीकृत स्टील कारखाना लगने से बड़े स्तर पर रोजगार का सृजन होता और विकास की संभावना प्रबल होती. यह उम्मीद ही प्रदेश के लोगों के दिलों में खुशी का संचार कर रही थी.

लेकिन यह खुशी जल्द ही निराशा और आक्रोश में तब तब्दील हो गयी जब धन की कमी का हवाला देकर इंदिरा गांधी 1966 में स्टील कारखाना लगाने के वायदे से मुकर गयीं. बदलते रुखों और मृग–मरीचिका होते वादों के बीच ही केंद्र सरकार ने स्टील कारखाने की स्थापना के मुद्दे पर दक्षिणी भारत के राज्यों के बीच फूट डालने की कोशिश की. भेदभाव और उपेक्षा के एहसास से असंतुष्ट आंध्र प्रदेश के लोगों की प्रतिक्रिया रोषपूर्ण थी और उन्होंने स्टील कारखाने के लिये संघर्ष की रणभेरी फूंक दी.

विशाखा उक्कु, अंध्रुला हक्कु

स्टील कारखाने के लिये संघर्ष छेड़ने से पहले भी आंध्र प्रदेश के लोगों का इतिहास आधुनिकता के लिये समर्पित राजनैतिक आंदोलनों की अगुवाई करने का रहा है. कृष्णा नदी पर नागार्जुन सागर बांध के निर्माण की मांग को लेकर 1955 में आंध्र प्रदेश के लोगों द्वारा लड़ा गया सफल आंदोलन इसका एक उदाहरण है. बांध के पानी से संभव हुई सिंचाई से लाभान्वित गांवों में आये बदलाव को देख चुके आंध्र प्रदेश के लोगों को नया स्टील कारखाना भी ऐसे ही बदलाव के सर्जक के रूप में दिखा. उन्होंने एक बार फिर इस नयी परियोजना के लिये अपनी लड़ाई छेड़ दी.

1966 में आंध्र विश्वविद्यालय, आंध्र मेडिकल कॉलेज, अन्य कॉलेजों और हाई स्कूलों के विद्यार्थी सड़कों पर उतर आये. इस चिंगारी से नये स्टील कारखाने की मांग करने वाला आंदोलन शहर में आग की तरह फैल गया. जल्दी ही पूरा आंध्र प्रदेश इस आंदोलन की आग में धधकने लगा. हर तरफ युवा और विद्यार्थी सड़कों पर प्रदर्शन करने लगे. सड़कें ‘विशाखा उक्कु, अंध्रुला हक्कु’ (विशाखा स्टील आंध्र के लोगों का हक है) के नारों से गुंजायमान हो उठीं.

आंध्र प्रदेश में कम्युनिस्टों की मजबूत उपस्थिति थी. उन्होंने इस आंदोलन का पुरजोर समर्थन किया. उस समय राज्य की विधानसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कुल मिलाकर इक्यावन सदस्य थे और वो राज्य में मुख्य विपक्षी ताकत थे. कम्युनिस्टों का यह दृढ़ विश्वास था कि समाज में प्रगतिशीलता को शिथिल करने के लिये जिम्मेदार पिछड़ापन और सामंती शोषण को तोड़ने के लिये औद्योगीकरण नितांत आवश्यक है. उन्हें इस बात का भी भान था कि भारतीय जनता का खून चूस रहे पूंजीवादी–ज़मींदारी शोषण के खिलाफ एक सशक्त साझे संघर्ष की अगुवाई करने में सक्षम एक संगठित और मजबूत कामगार वर्ग के उद्भव के लिये औद्योगीकरण अति महत्वपूर्ण है. इस समझ के आधार पर उन्होंने अपनी पूरी राजनैतिक और सांगठनिक ताकत आधुनिक उद्योगों के लिये समर्पित इस आंदोलन के पीछे लगा दी. उनके हस्तपेक्ष ने लोगों की स्वत:स्फूर्त भावनाओं को एक शक्तिशाली राज्यव्यापी आंदोलन का रूप देने में अहम भूमिका निभायी.

स्टील कारखाने की शीघ्र स्थापना की माँग को लेकर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे टी. अमृत राव के समर्थन में विद्यार्थी जोरदार ढ़ंग से लामबंद हुए. कम्युनिस्टों के हस्तक्षेप से विद्यार्थियों की लामबंदी ने शीघ्र ही ज्यादा संगठित रूप अख्तियार कर लिया. कम्युनिस्टों की प्रबल उपस्थिति ने विद्यार्थियों की लामबंदी को बल प्रदान किया और कम्युनिस्टों के नेतृत्व में पहले से ही संगठित किसानों और मजदूरों तक आंदोलन को पहुंचाया. जल्द ही लोग बड़ी संख्या में आंदोलन से जुड़ने लगे.

लोगों की अवज्ञा से क्रुद्ध केंद्र सरकार ने आंदोलन का दमन करने के लिये भारतीय सेना को उतार दिया. केंद्र सरकार के इस कदम ने आग में घी का काम किया. आंदोलनरत् लोगों को लगा कि भारतीय सेना को उनके खिलाफ उतारकर केंद्र सरकार उनके साथ देश के दुश्मनों जैसा बर्ताव कर रही है. सेना, जिसका कर्तव्य देश की सरहद की हिफ़ाज़त करना है, उसे अपने ही देश के लोगों के खिलाफ उतार दिया गया था. जब विशाखापत्तनम में सेना की उपस्थिति के खिलाफ बड़ी संख्या में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया तब सेना ने उनके ऊपर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं. नौ साल का एक बच्चा भी सेना की गोलियों का शिकार हुआ. गोली लगने के बाद खून से लथपथ बच्चा पानी के लिए तड़पता चिल्ला रहा था. सेना ने उन प्रदर्शनकारियों के ऊपर गोलियां चलायीं जिन्होंने उस बच्चे तक पहुंचने की कोशिश की और नौ और लोगों की जान ले ली. इन मौतों की खबर पूरे प्रदेश भर में फैल गयी और लोग पहले से भी भारी तादाद में सड़कों पर उतरकर पूरे प्रदेश के कस्बों और शहरों में विरोध प्रदर्शनों और भूख हड़तालों में शमिल होने लगे. जिला–दर–जिला प्रशासन ठप्प पड़ने लगा. सड़क और रेल परिवहन थम गया. आंदोलन को दबाने के लिये राज्य ने हिंसा के स्तर को बढ़ा दिया, जिसमें 32 लोग मारे गये और हज़ारों लोग घायल हुए. इन मौतों, चोटों, बड़े पैमाने पर कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियों और पुलिस की हिरासत में यातनाओं के बाद भी आंदोलन को दबाया नहीं जा सका. दमन जितना भीषण हुआ उसके जवाब में लोगों का संकल्प भी उतना ही ज्यादा दृढ़ होता गया. मजदूरों ने सरकारी विभागों की बिजली आपूर्ति रोक दी, संचार ठप्प कर दिया और सार्वजनिक सूचना प्रसारण को बंद कर दिया. बंदियों और हड़तालों के सिलसिलों से पूरा प्रदेश ठहर सा गया. प्रदेश की विधानसभा में विपक्ष के 51 कम्युनिस्ट सदस्यों समेत 67 विधानसभा सदस्यों ने अपना इस्तीफा देकर सरकार के ऊपर दबाव बढ़ा दिया.

शुरूआती महीनों के दौरान सड़कों पर होने वाले स्टील कारखाने का संघर्ष अन्य रूपों में तब तक चलता रहा जब तक कि इंदिया गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने लोगों की इच्छाशक्ति के सामने घुटने नहीं टेके. केंद्र सरकार को अंतत: विशाखापत्तनम में स्टील कारखाना लगाने की मांग को स्वीकार करना पड़ा और चुने हुए स्थान पर 1971 में आधारशिला रखने को राजी होना पड़ा. हर्षोल्लास में चूर आंध्र प्रदेश के लोग इस बात से अनभिज्ञ थे कि यह जीत उनके संघर्षों की शुरूआत मात्र थी. उनको नहीं पता था कि जिस स्टील कारखाने की परिकल्पना और जिसका जन्म उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर हुआ है, उस कारखाने के अस्तित्व को बचाये रखने के लिये भी उनके अनवरत संघर्ष, समर्थन और एकजुटता की आवश्यकता पड़ेगी.

नवउदारवाद की घातक मार

अगले कई सालों तक तेन्नेती विश्वनाथम जैसे प्रमुख नेताओं द्वारा चलाये जा रहे अथक अभियान के बाद भी केंद्र सरकार कारखाने के निर्माण को अधर में लटकाती रही. लेकिन 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (जिसे आमतौर पर कांग्रेस के नाम से संबोधित किया जाता है) की पराजय और जनता पार्टी सरकार के गठन से कारखाने के निर्माण की प्रक्रिया को गति मिली. नयी सरकार कारखाना बनाने के लिये राजी हुई और इसके लिये दस बिलियन रुपये की धनराशि का आवंटन किया. कारखाने के निर्माण के लिये सोवियत संघ के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर हुआ. लेकिन इस सकारात्मक परिस्थिति का जल्द ही पटाक्षेप होना था. 1980 के दशक के शुरू होते ही सरकार की लगाम कांग्रेस के हाथों में दोबारा आ गयी. राजीव गांधी 1984 से लेकर 1989 तक प्रधानमंत्री रहे. आकार में पहले से काफी बड़ी हो चुकी भारत की बड़ी पूंजी अधिकाधिक आर्थिक ताकत हासिल करने और देश की सम्पत्ति में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने को आतुर थी. मुख्य राजनीतिक धड़ों के ऊपर इसका प्रभाव बढ़ता जा रहा था. इसके प्रभाव और पश्चिमी पूंजी के दबाव में भारत आत्मनिर्भरता और सार्वजनिक क्षेत्र की अगवानी वाले विकास के मार्ग को त्यागकर नवउदारवाद और निजीकरण के रास्ते पर चल पड़ा.

विशाखा स्टील शायद नवउदारवाद का दंश झेलने वाला सार्वजनिक क्षेत्र का पहला उपक्रम था. राजीव गांधी की सरकार ने इसके अस्तित्व में आने से पहले ही इसको ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश शुरू कर दी थी. सत्ता के गलियारों में आयात के उदारीकरण की हिमायत का बोलबाला था और सरकार ने इस नवजात कारखाने से साफ शब्दों में कह दिया था कि उसकी जरूरत नहीं है क्योंकि भारत अंतरराष्ट्रीय बाजार से हर चीज का, जिसमें स्टील भी शामिल था, आयात काफी सस्ते दामों पर कर सकता था. यह वो दौर था जब स्टील के अतिउत्पादन से जूझ रहे अमेरिका और यूरोप के स्टील उद्योग भारत जैसे विकासशील देशों के बाजारों में अपने अतिरिक्त स्टील को खपाना चाहते थे. स्टील को कम दाम पर खपाने के लिये भारत एक आकर्षक विकल्प था. भारत सरकार ने भी आत्मनिर्भरता हासिल करने का लक्ष्य त्यागकर देश को अंतरराष्ट्रीय पूंजी और इसके अधीनस्थ बाजारों की अस्थिरता के हवाले कर दिया. ये बाज़ार, जहां चीजें कभी तो कौड़ियों के भाव बिकती हैं और कभी क़ीमतें आसमान छूने लगती हैं, देश को अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने देते.

विशाखा स्टील परियोजना पर 17 बिलियन रुपये खर्च कर चुकने के बाद भी राजीव गांधी सरकार इसको बंद करने की तैयारी करने लगी. कारखाने के जनसरोकारी अधिकारियों को इसका भान था कि यह कदम उन लोगों को आक्रोशित करेगा जिन्होंने इस कारखाने की स्थापना के लिये संघर्ष किया है और इसके लिये अपनी जमीनें दी हैं. इन अधिकारियों ने एक दूसरा विकल्प पेश किया. वास्तविक डिजाईन के तहत विशाखा स्टील की ब्लास्ट भट्ठियों और स्टील मेल्ट शॉप के पास प्रतिवर्ष 34 लाख टन स्टील उत्पादन की क्षमता होती. स्टील को आई–बीम जैसे उच्च मूल्य वाले उत्पादों में बदलने के लिये कई स्टील मिलें होतीं और विशाखा स्टील के विशेष इस्तेमाल के लिये गंगावरम के पास एक आबद्ध बंदरगाह होता. वास्तविक डिजाईन में विशाखा स्टील के लिये बैलाडीला (जोकि तब के मध्य प्रदेश में और वर्तमान में छत्तीसगढ़ में स्थित है) में लौह अयस्क की आबद्ध खदान का भी प्रावधान था.

दूसरे विकल्प के तहत विशाखा स्टील की उत्पादन क्षमता को वास्तविक डिजाईन की तुलना में भारी मात्रा में कम किया जाना था. सरकार सिर्फ 30 लाख टन प्रतिवर्ष से भी कम उत्पादन की क्षमता वाले कारखाने के निर्माण की अनुमति दे रही थी. इसके अतिरिक्त, सरकार तैयार उत्पादों की संख्या और कारखाने में काम करने वाले मजदूरों की संख्या में भी भारी कटौती कर रही थी. इसके अलावा नए डिजाईन में आबद्ध बंदरगाह और आबद्ध खदान का प्रावधान भी नहीं था.

इसका परिणाम यह होता कि स्टील कारखाना अपनी सर्वोत्कृष्ट क्षमता के अनुसार उत्पादन नहीं कर पाता और एक प्रतिकूल आर्थिक स्थिति में रहता. कारखाने को कच्चा माल और तैयार माल के परिवहन के लिये ऊंची कीमत चुकानी पड़ती. आबद्ध खदान न होने के कारण कारख़ाने को लौह अयस्क खुले बाजार से खरीदना पड़ता और उसके लिये चार से दस गुना ज्यादा लागत वहन करनी पड़ती. चूंकि स्टील उत्पादन में लौह अयस्क पर आने वाली लागत कुल लागत का तकरीबन एक चौथाई हिस्सा होती है, इसलिये आबद्ध खदानों का होना या ना होना एक स्टील कारखाने के अस्तित्व का निर्धारण कर सकता है.

स्टील कारखाना एक दीर्घकालिक परियोजना होती है. इसकी परिकल्पना को आकार देने, उसका निर्माण करने और उसे चालू करने में सालों लग जाते हैं. इसको आर्थिक रूप से सक्षम बनाने में और भी ज्यादा समय लगता है. स्टील का बाजार, एक तरफ़ तो निवेश के महौल पर निर्भर होता है और चक्रीय परिवर्तनों के प्रति बेहद संवेदनशील होता है. दूसरी तरफ, स्टील का उत्पादन कई तरह की भट्ठियों के चलने पर निर्भर होता है. इसी कारण से, स्टील के उत्पादन को आसानी से बाजार की मांग के अनुसार समायोजित नहीं किया जा सकता. इसके अलावा, भट्ठियों की खास भौतिक संरचना के कारण उनके ठंडा होने और वापस गर्म होने के दौरान ताप का दबाव उनके ढ़ांचों को क्षति पहुंचाता है, इसलिये बाजार की चढ़ती–उतरती मांग के अनुसार उत्पादन में समायोजन लागत को बढ़ाता है.

एक भट्ठी अपनी पूरी क्षमता पर कच्चे लोहे का उत्पादन करे या फिर उससे थोड़ी कम क्षमता पर करे, इससे उसके संचालन पर आने वाली लागत पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. इसलिए बाजार में उछाल और स्टील उत्पादों की ऊंची कीमतों के दौरान स्टील उत्पादन की प्रति टन लागत कम रहती है. वहीं जब बाजार में सुस्ती होती है और स्टील की कीमतें नीची रहती हैं तब स्टील के प्रति टन उत्पादन की लागत बढ़ जाती है. हालांकि यह परिघटना ज्यादातर भारी उद्योगों में पायी जाती है, लेकिन स्टील उद्योग में यह ज्यादा गंभीर होती है.

यही कारण था जिसकी वजह से भारत सरकार ने निजी और सार्वजनिक, दोनों ही क्षेत्रों में एकीकृत स्टील कारखानों के लिए शुरू से ही आबद्ध खदानों के आवंटन की नीति बनायी थी ताकि स्टील कारखाने अपनी आवंटित आबद्ध खदानों से खुद का लौह अयस्क निकाल सकें. समृद्ध भारतीय खदानों से कम लागत पर उच्च गुणवत्ता का लौह अयस्क प्राप्त करने की क्षमता स्टील कारख़ानों के मुनाफे के स्तर को बचाती है और अनिश्चित बाजार में उनको जिंदा रखने में सहायक होती है. विशाखा स्टील तब सार्वजनिक क्षेत्र के ऊपर नवउदारवादी हमले का शिकार होने वाली पहली कंपनी बनी जब इसको आबद्ध खदानों के आवंटन से महरूम कर दिया गया. इसकी वजह से विशाखा स्टील को खुले बाजार से ऊंची कीमतों पर लौह अयस्क खरीदने पर मजबूर होना पड़ा जबकि इसके प्रतिद्वंदियों के पास अपनी निजी खदानें थीं.

इसके अलावा, सरकार ने कारखाने के निर्माण को पूरा करने के लिये आवश्यक धनराशि को देने में देरी की. इस देरी की वजह से कारखाने को शुरू होने में अनुमान से ज्यादा समय लगा और निर्माण की लागत में भी वृद्धि हुई. सरकार कारखाने के निर्माण के लिये समुचित धनराशि देने से इंकार करती रही, जिसके कारण निर्माण कार्य तकरीबन एक दशक तक चलता रहा. निर्माण कार्य को पूरा करने के लिये विशाखा स्टील को बड़ी धनराशि उधार लेनी पड़ी. जबकि अन्य सभी सार्वजनिक क्षेत्र के स्टील कारखानों के निर्माण का खर्च पूर्णत: सरकार द्वारा वहन किया गया था. इस वजह से 1992 में जब कारखाने का संचालन शुरू हुआ तब तक कारखाने के ऊपर 37 बिलियन रुपये का क़र्ज़ लद चुका था.

जब कारखाने ने काम करना शुरू किया तब भारतीय अर्थव्यवस्था एक गंभीर संकट से गुजर रही थी और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक के दिशा–निर्देशन में नवउदारवादी वैश्वीकरण की परियोजना देश में जोर–शोर से चल रही थी. भारतीय वित्त बाजार को नियंत्रण मुक्त किया जा रहा था जिसकी वजह में 1990 के दशक के दौरान ब्जाय दर काफी ऊंची रही. शुरू होने के साथ ही कारखाने को ब्याज की भारी रकम चुकाने के लिये मजबूर होना पड़ा. इससे 1990 के दशक के दौरान भारत और विदेशों में व्याप्त प्रतिकूल आर्थिक माहौल के कारण कारखाने को होने वाला अल्प मुनाफा भी ब्याज चुकाने में चला जाता था.

कारखाने की भट्ठी प्रति वर्ष 34 लाख टन कच्चा लोहा पैदा करने की क्षमता रखती थी. कारखाने में कच्चे लोहे को स्टील बनाने वाली स्टील मेल्ट शॉप की क्षमता इतनी नहीं थी कि वो कारखाने में बने सारे कच्चे लोहे को स्टील बना सके. इस वजह से कारखाने को अपनी भट्ठियों में बनने वाले कच्चे लोहे के एक बड़े हिस्से को स्टील बनाने की बजाय बेचना पड़ता था. चूंकि कच्चा लोहा बेचने से मिलने वाले मुनाफे का स्तर स्टील बेचकर अर्जित होने वाले मुनाफे से काफी कम होता है, इस कारण स्टील मेल्ट शॉप की उत्पादन क्षमता का कम होना कारखाने की आर्थिक सक्षमता की राह में एक बड़ी बाधा थी.

आबद्ध खदानों के अभाव और स्टील मेल्ट शॉप की कम क्षमता की वजह से मुनाफे का स्तर कम होने के बावजूद भी विशाखा स्टील में बने स्टील की प्रति टन लागत पूरे देश में सबसे कम थी. यह कारखाने के मजदूरों और इंजीनियरों के समर्पण की वजह से संभव हो पाया था, जिन्होंने उत्पादन प्रक्रियाओं को सुधारा और उत्पादन बढ़ाने और लागत को कम रखने के तरीके ईजाद किये. लेकिन इतनी मेहनत के बाद भी कारख़ाने पर बड़ा क़र्ज़ा होने के कारण, स्टील उत्पादन में लगने वाले प्रत्येक सौ रुपये पर साठ रुपये की क़र्ज़ भुगतान लागत जुड़ जाती थी. इसलिए जब कारखाने ने काम करना शुरू किया तो पहले ही साल उसे 5.6 बिलियन रुपये का घाटा उठाना पड़ा और अपने शुरूआती दस सालों के दौरान वह लगातार घाटे में रहा.

जीतों की शुरूआत

जनसंघर्ष के माधयम से अस्तित्व में आने और विशाखापत्तनम के मजदूर आंदोलनों के भीतर कम्युनिस्ट आंदोलन का प्रबल प्रभाव होने के कारण विशाखा स्टील के मजदूर शुरू से ही जुझारू थे. उन्हें शुरूआती दौर में ही अहसास हो गया था कि जब तक उनका संघर्ष वृहद जन आंदोलनों से नहीं जुड़ेगा और अपने उद्योग के साथ–साथ देश की आर्थिक आज़ादी एवं विकास की एक वैकल्पिक परिकल्पना का हिस्सा नहीं बनेगा, तब तक उसका लंबे समय तक बने रहना मुश्किल होगा. यही परिकल्पना विशाखा स्टील को कमजोर करने, बर्बाद करने, या उसका निजीकरण करने की हर कोशिश के खिलाफ संघर्ष का आधार बनी.

शुरूआती वर्षों से ही कारख़ाने के मज़दूर, वामपंथी भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (CITU) के नेतृत्व में, कारखाने के लिये तीन मुख्य मांगों को लेकर लगातार संघर्षरत् रहे –

  1. सरकार क़र्ज़ का पुनर्गठन करके उसको सरकारी इक्विटी में तब्दील करे.
  2. सरकार कारखाने को लौह अयस्क की आबद्ध खदानें आवंटित करे.
  3. सरकार कच्चे लोहे को स्टील बनाने वाली स्टील मेल्ट शॉप की क्षमता बढ़ाकर उसको कच्चा लोहा बनाने वाली भट्ठी की क्षमता के बराबर लाये.

पहला कदम कारखाने के ऊपर से क़र्ज़ के बोझ को हल्का करता. अन्य दो कदमों से मुनाफे का स्तर बढ़ता और विशाखा स्टील लाभ कमाने वाली एक सक्षम उपक्रम बन जाती.

सरकार ने मज़दूरों की अतिरिक्त स्टील मेल्ट शॉप की माँग का प्रयोग अपने निजीकरण के एजेंडे को भुनाने के लिये किया. सरकार ने एक निजी कंपनी के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर कर लिया. इसके तहत निजी कंपनी को विशाखा स्टील कारखाने के भीतर 1.5 टन की क्षमता का स्टील मेल्ट शॉप लगाने की अनुमति मिलती. कच्चा पिघला लोहा विशाखा स्टील की भट्ठियों से सीधा निजी कंपनी की स्टील मेल्ट शॉप में जाता. इसके बाद निजी कंपनी तैयार स्टील को बाजार में बेचकर भारी मुनाफा कमाती. इसके नतीजतन, लौह अयस्क उत्पादन और सिन्टर प्लांटों, कोक ओवनों, वायु पृथक्करण संयंत्रों, ताप विद्युत केंद्र और ब्लास्ट भट्ठियों को चलाने जैसे जटिल और खतरनाक कामों का बोझ विशाखा स्टील के सिर पर पड़ता. इसके उपरांत विशाखा स्टील को लौह अयस्क के लिये कम कीमत मिलती और निजी कंपनी का कम निवेश और उच्च मुनाफे वाले हिस्से पर अधिकार हो जाता. यह विशाखा स्टील का पेट काटकर निजी कंपनी की जेब मोटी करने की एक रणनीति थी.

इसके प्रतिक्रियास्वरूप, 1994 में, CITU ने सभी मजदूरों, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं और यहां तक कि कारखाने के अधिकारियों को इकट्ठा करके एक कार्यशाला आयोजित की और कारखाने के चोरी–छुपे निजीकरण की खिलाफत करने का आह्वान किया. विशाखा स्टील पर निजी स्वार्थ के अतिक्रमण का विरोध करने के लिये मजदूर कारखाने में अपने कार्यस्थलों पर मौजूद रहते हुए हड़ताल पर उतर गये. सरकार को घुटने टेकने पड़े और 1997 में विशाखा स्टील को अपनी खुद की स्टील मेल्ट शॉप स्थापित करने की अनुमति देनी पड़ी.

एक कठिन परीक्षा और निर्णायक विजय

कई प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरे होने के कारण 1998 आते–आते विशाखा स्टील के ऊपर 46 बिलियन रुपयों का नुकसान लद गया था. इससे सरकार को विशाखा स्टील का निजीकरण करने का एक आसान बहाना मिल गया. मीडिया ने भी इस बात को नज़रांदाज़ कर दिया कि सरकार की हानिकारक नीतियों ने ही विशाखा स्टील की इन आर्थिक समस्याओं को जन्म दिया है और निजीकरण के समर्थन में प्रचार की मुहिम छेड़ दी. परिस्थिति को उपयुक्त आंकते हुए तब की भारतीय जनता पार्टी की सरकार भारतीय और विदेशी कॉर्पोरेशनों के बीच कारखाने के लिये ग्राहक खोजने लगी. खरीद को आकर्षक बनाने के लिये भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने कारखाने का क़र्ज़ माफ करने की भी पेशकश की. जो सरकार सालों तक क़र्ज़ का पुनर्गठन करने और यहाँ तक कि ब्याज दर कम करने तक को राजी नहीं हुई थी, वही सरकार अब विशाखा स्टील को निजी देशी और विदेशी कंपनियों को बेचने के लिये उसका सम्पूर्ण क़र्ज़ माफ करने को तैयार हो गयी थी. आक्रोशित मजदूरों ने इस कदम की जोरदार मुख़ालफ़त की.

सरकार के इशारों पर काम करने वाले कारखाना प्रबंधन के कुछ लोगों ने मजदूरों के बीच फूट डालने की कोशिश की. उन्होंने मजदूरों को यह समझाने की कोशिश की कि अगर कारखाने को भारत के सबसे बड़े कंपनी–समूह टाटा जैसी कोई ‘अच्छी कंपनी’ खरीद लेती है तो उनका भविष्य सुरक्षित हो जायेगा. मजदूरों और कामगार यूनियनों का एक बड़ा तबका इस प्रचार के झांसे में आ गया. इसकी भनक लगते ही भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (CITU) से संबद्धित मजदूर और कार्यकर्ता तुरंत हरकत में आ गये. उन्होनें कई हफ्तों तक एक अभियान चलाया और कारखाने के हर हिस्से में गये, बैठकें आयोजित कीं और मजदूरों से मुख़ातिब हुए. उन्होंने मजदूरों को बताया कि पूंजीवादी कंपनियों को तमगा भले की ‘अच्छी’ कंपनी का मिले या ‘बुरी’ कंपनी का मिले, उनका सर्वोच्च ध्येय मुनाफा कमाना ही होता है. देश, देशवासियों या मजदूरों का हित उनके लिये सर्वोपरि नहीं होता है. वो मजदूरों को यह समझाने में सफल रहे कि ‘अच्छे पूंजीपति’ तर्क का इस्तेमाल मजदूरों को गुमराह करके उनको अपने ही हितों के खिलाफ मोड़ने और कारखाने के लिये संघर्ष करने वाले प्रदेश के लोगों की आकांक्षाओं का गला घोंटकर निजीकरण का समर्थन कराने के लिये किया जा रहा है.

शीघ्र ही अपने बीच एकता स्थापित करके मजदूरों ने सन् 2000 की शुरूआत में कारखाने की बिक्री के विरूद्ध संघर्ष छेड़ दिया और सड़कों पर उतर आये. शहर के लोगों ने हड़तालों का समर्थन किया. मजदूरों के समर्थन में विरोध–प्रदर्शन और भूख हड़तालें आयोजित करने के लिये विद्यार्थी, युवा और महिलाएं मैदान में उतर आये. पट्टि शेषैय्या और बैरागी नायडू जैसे प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी अनिशचितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे, और जब सरकार टस से मस नहीं हुई तो हज़ारों कार्यकर्ताओं और आम जनता के सैलाब के साथ गले में पत्थर डालकर समुद्र की तरफ चल पड़े. वो तब भी अडिग रहे जब पुलिस ने उनके ऊपर लाठी चार्ज किया और कार्यकर्ताओं तथा स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार कर लिया. पुलिसिया दमन से बावजूद भी संघर्ष विभिन्न रूपों में चलता रहा और हर कदम पर लोग आंदोलन से जुड़ते गये. विरोध प्रदर्शनों का स्तर और व्यापकता इतनी ज्यादा थी कि नेताओं को गिरफ्तार करने के पश्चात भी पुलिस आंदोलन को दबा पाने में असमर्थ रही. जब चुनाव प्रचार के लिये प्रदेश के मुख्यमंत्री शहर में आये तब मजदूरों ने शहर के सभी मार्गों को अवरुद्ध कर दिया. मजदूरों का सामना करने से बचने के लिये मुख्यमंत्री ने सभास्थल पर पहुंचने के लिये हेलीकॉप्टर का सहारा लिया, लेकिन वहां भी उनको प्रदर्शनकारी मजदूरों का सामना करना पड़ा. मुख्यमंत्री के क्रोध का कोपभाजन बनने से बचने के लिये प्रदेश प्रशासन ने सभास्थल पर मौजूद मजदूरों और जनता के ऊपर पुलिसिया हिंसा का कहर बरपाया. पुलिसिया हिंसा के शिकार लोगों के सर फूटे, हाथ–पैर टूटे और खून बहा. भूख हड़ताल पर बैठे लोगों को भी नहीं बख्शा गया और उनको भी बुरी तरह पीटा गया.

पुलिसिया हिंसा ने विशाखा स्टील के मुद्दे को केंद्र में ला दिया. लोग दुगुनी ताकत से कारखाना मजदूरों के समर्थन में उतर गये. प्रदेश की तत्कालीन सत्ताधारी तेलुगु देशम पार्टी (TDP) और भारतीय जनता पार्टी, जिनका केंद्र में गठबंधन था, को मार्च 2000 के स्थानीय निकाय चुनावों में करारी शिकस्त मिली. लोगों के गुस्से ने तेलुगु देशम पार्टी को सबक सिखाया और उसने निजीकरण को लेकर अपनी पहले की नीति बदल ली. जब कॉर्पोरेटों को अहसास हुआ कि कारखाना मिलने के बाद भी उनको कार्यस्थल पर मौजूद हड़तालकारी मजदूरों के अलावा आक्रोशित जनता का सामना करना पड़ेगा, तब उनके उत्साह पर भी पानी पड़ गया. इन सभी घटनाओं ने तेलुगु देशम पार्टी के समर्थन पर निर्भर भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को मजदूरों की मांगों को मानने पर विवश कर दिया. अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने कारखाना बेचने के फैसले को वापस लिया और कारखाने की पूंजी के पुनर्गठन के लिये हामी भरी.

एक उम्मीदभरा दशक

सन् 2000 में हासिल हुई जीत के बाद मजदूरों को आगामी एक दशक तक निजीकरण के खिलाफ लड़ने की जरूरत नहीं पड़ी. इसका एक कारण यह भी था कि 2004 से 2009 के दौरान संसद में कम्युनिस्ट पार्टियों की मौजूदगी ने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के लिये निजीकरण के खिलाफ रक्षा कवच का काम किया. सन् 2004 के आम चुनाव के बाद कांग्रेस की अगुवाई वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) को सरकार बनाने और चलाने के लिये वामपंथ के समर्थन की जरूरत थी, इसलिये कांग्रेस निजीकरण से बचती रही.

निजीकरण की दो कोशिशों को मात देने के बाद स्टील की वैश्विक मांग में उछाल आने की वजह से विशाखा स्टील के मुनाफे के स्तर में वृद्धि हुई और उसकी सक्षमता बढ़ी. कारखाने की स्टील मेल्ट शॉप की उत्पादन क्षमता बढ़ाने का लाभ विशाखा स्टील को मिला. वैश्विक आर्थिक विकास के स्तर में बढ़ोत्तरी की वजह से स्टील की माँग में भारी इजाफा आया और विशाखा स्टील के उच्च गुणवत्ता वाले स्टील की मांग बढ़ी. कारखाने ने भारी मुनाफा अर्जित किया और अपने सारे कर्जों को चुकता कर दिया. सन् 2004 आते–आते विशाखा स्टील के पास इतना मुनाफा हो गया था कि कारखाने का विस्तार किया जा सके.

कारखाने के मजदूरों ने सरकार से मांग की कि वो कारखाने को अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने की अनुमति प्रदान करे. कॉर्पोरेट लॉबी के दबाव में आकर UPA सरकार अनुमति देने में आना–कानी करती रही लेकिन वाम दलों के जवाबी दबाव की वजह से सरकार को अंतत: 2006 में अनुमति देने पर मजबूर होना पड़ा. आने वाले सालों में अपनी धनराशि और बैंकों से लिये क़र्ज़ की मदद से 2006 से 2015 के दौरान विशाखा स्टील ने अपनी स्टील उत्पादन क्षमता को 34 लाख टन प्रतिवर्ष से बढ़ाकर 73 लाख टन प्रतिवर्ष कर लिया. इस दौरान स्टील की लगातार बढ़ती मांग कारख़ाने की सफलता का मुख्य कारण रही.

इस संदर्भ में, इस बात को रेखांकित किया जाना जरूरी है कि निजीकरण की कोशिशों के खिलाफ लड़ने के अलावा विशाखा स्टील के मजदूर कारखाने को एक तकनीकी और वित्तीय रूप से सक्षम इकाई के रूप में विकसित करने के प्रति समर्पित रहे हैं. इसके लिये वो कारखाने की उत्पादन क्षमता को बढ़ाने और आबद्ध खदान के आवंटन की मांगों को लेकर लड़े हैं और कारखाने की तकनीकी समस्याओं को सुलझाने के लिये भी कृतसंकल्पित रहे हैं. जब भी कारखाने में कोई तकनीकी समस्या आयी है, चाहे वो कोक ओवन हों, विद्युत केंद्र हों, स्टील मेल्ट शॉप या फिर कहीं और, मजदूरों और कामगार यूनियनों ने सघन अध्ययन करके विश्लेषण किया है और समाधान निकालकर समस्याओं का निराकरण किया है.

एक पुनर्जागृत खतरा :  निजीकरण की तीन रणनीतियां

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सन् 2009 में दोबारा लोकसभा चुनाव जीत गया. इस चुनाव में संसद में कम्युनिस्ट पार्टियों की ताकत घट गयी. UPA के पहले कार्यकाल में वाम दलों की सशक्त मौजूदगी से सार्वजनिक क्षेत्र को मिलने वाली सुरक्षा UPA के दूसरे कार्यकाल में नहीं रही, इसकी वजह से विशाखा स्टील का निजीकरण करने के प्रयास फिर से किये जाने लगे.

पहला प्रयास सन् 2010 में हुआ. सन् 2010 में सरकार ने विशाखा स्टील को सार्वजनिक् क्षेत्र के नवरत्नों में शुमार किया. नवरत्न का दर्जा विशाखा स्टील को कारखाने के परिचालन सम्बन्धी फैसलों के लिये 10 बिलियन रुपये तक की राशि खर्च करने के लिये सरकार की अनुमति की बाध्यता से आज़ाद करता था. इससे विशाखा स्टील को अपनी आवश्यकतानुसार बिना सरकार की अनुमति लिये विस्तार करने का विकल्प मिल गया लेकिन सरकार ने एक शर्त रखी.

सरकार की शर्त ये थे कि नवरत्न का दर्जा हासिल करने के लिये विशाखा स्टील को आगामी दो सालों के भीतर अपने दस प्रतिशत शेयरों को बाजार में बेचना होगा. सन् 2012 में जब प्रारंभिक सार्वजनिक प्रस्ताव (Initial Public Offering, जिसके तहत कंपनी के शेयरों को जनता को पहली बार बेचा जाता है) के माध्यम से कंपनी के दस प्रतिशत शेयरों को बेचने की प्रक्रिया शुरू हुई तब कारखाने के सभी 36,000 मजदूर जुलाई में एक दिवसीय हड़ताल पर चले गये. उन्होंने आने वाले समय में होने वाली हड़तालों का खाका भी घोषित कर दिया. मजदूरों के संघर्ष के परिणामस्वरूप सरकार को विशाखा स्टील के शेयरों की बिक्री को रद्द करना पड़ा.

सरकार की दूसरी तरकीब – कारखाने का अलग–अलग चरणों में धीमी गति से निजीकरण करना – भी समानांतर रूप से जारी थी. ऐसा ही एक प्रयास सरकार ने 1990 के दशक में किया था जब सरकार ने विशाखा स्टील से जुड़े ताप विद्युत केंद्र और वायु पृथक्करण संयंत्र का निजीकरण करने की योजना बनायी थी. विशाखा स्टील को चलाने के लिए दोनों ही आवश्यक हैं. ताप विद्युत केंद्र कारखाने के लिये बिजली पैदा करता है और ब्लास्ट भट्ठियों के लिये उच्च दाब वाली हवा का उत्पादन करता है. वायु पृथक्करण संयंत्र स्टील के उप्तादन के लिये आवश्यक गैसों का उत्पादन करता है. इन संयंत्रों का निजीकरण करने से कारखाने के ऊपर आर्थिक बोझ बढ़ता और कारखाने को बिजली और ऑक्सीजन जैसी गैसों की आपूर्ति के लिये निजी कंपनियों को ऊंची कीमत चुकाने के लिये मजबूर होना पड़ता.

1990 के दशक में मजदूर ताप विद्युत केंद्र और वायु पृथक्करण संयंत्र के निजीकरण के प्रयासों को रोकने में सफल रहे थे. लेकिन 2010 में सरकार एयर लिकिद नाम की एक फ्रांसीसी कंपनी से कारखाने में दो नये वायु पृथक्करण संयंत्रों का निर्माण कराने में सफल रही. वायु पृथक्करण संयंत्रों को बनाने और चलाने की जिम्मेदारी के अलावा इन संयंत्रों का स्वामित्व भी एयर लिकिद के हाथों में था. एयर लिकिद के पृथक्करण संयंत्रों की डिजाईन में मौजूद खामियों की वजह से सन् 2012 में परीक्षण के दौरान ही उच्च दाब का ऑक्सीजन पाइप फट गया. इसमें 19 मजदूरों और अधिकारियों की जलकर मृत्यु हो गयी. इस दुर्घटना के दस साल पूरे हो जाने के बाद भी अभी तक पृथक्करण संयंत्रों ने काम करना शुरू नहीं किया है. एयर लिकिद को लगता है कि वायु पृथक्करण संयंत्रों को चलाने से अर्जित मुनाफा समुचित नहीं है. वहीं पुराने वायु पृथक्करण संयंत्र – जिनका डिजाईन सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी भारत हैवी प्लेट ऐंड वेसल्स (BHPV) ने तैयार किया था– कारखाने के भीतर सक्षमता से काम करते रहे हैं. यह फर्क निजीकरण की अनेकों हानियों का सिर्फ एक उदाहरण पेश करता है.

सरकार की तीसरी और सबसे सफल युक्ति रही है सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को अनुमति देने में देरी करना और अनुमति नहीं देकर उनके विकास की राह में बाधा खड़ी करना ताकि निजी स्टील कंपनियां बाजार पर अपना आधिपत्य जमा सकें. इसका एक उदाहरण तब मिला जब विशाखा स्टील ने सीमलेस पाइप बनाने के लिये मिल स्थापित करने की कोशिश की. सीमलेस पाइप का बाजार उच्च मूल्य वर्द्धन वाले बाजार में शामिल है. मिल स्थापित करने का काम शुरू हो जाने के बाद भी सरकार ने विशाखा स्टील के ऊपर दबाव बनाकर मिल का काम रुकवा दिया. यह बाजार में आधिपत्य रखने वाले बड़े निजी उत्पादकों को फायदा पहुंचाने के लिये किया गया था. पिछले दो दशकों के दौरान ऐसे ही कई बार विशाखा स्टील को अपने उत्पादों की संख्या में इजाफा करने की अनुमति नहीं दी गयी.

मोदीराज

सन् 2000 की शुरूआत से लेकर सन् 2010 तक के दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था ऊंचे विकास दर के साथ बढ़ती रही. इस विकास का सबसे ज्यादा फायदा भारत के बड़े कॉर्पोरेशनों को मिला..उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र की टेलीकॉम कंपनियों के संसाधनों के गैरज़िम्मेदाराना उपयोग, सार्वजनिक क्षेत्र के गैस ब्लॉकों से गैस के अवैध निष्कर्षण, खदानों के शोषण आदि माध्यमों से सार्वजनिक संसाधनों का दोहन किया और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का अरबों रुपया क़र्ज़ लेकर डकार गये. इस दौरान सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की जमीनों को निजी कंपनियों को आवंटित करती रही. आटोमोबाईल उत्पादकों को लाभ पहुंचाने के लिये भारतीय रेल की अनदेखी करती रही और कॉर्पोरेशनों को टैक्सों में भारी रियायत देती रही. इस प्रक्रिया ने दूसरों का खून चूसकर पूंजी की बेतहाशा वृद्धि को सुनिश्चित किया. भारत के बड़े पूंजीपति विशालकाय कॉर्पोरेशनों में तब्दील हो गये और हर क्षेत्र में व्यापक प्रभाव डालने लगे.

कॉर्पोरेटों के बढ़ते प्रभाव और कॉर्पोरेशनों से भाजपा को मिलने वाली अथाह धनराशि ने सन् 2014 से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को सत्ता में बनाये रखने में अहम भूमिका निभायी है. इनके सत्ता हासिल करने के बाद कॉर्पोरेशनों की लूट कई गुनी बढ़ी ताकत के साथ जारी रही है. कॉर्पोरेशनों के हितों को आगे बढ़ाने के प्रति पूर्णत: कृत संकल्पित मोदी सरकार ने अपने निरंकुश शासन में बहुत सारी सार्वजनिक सम्पत्तियों को चुनिंदा कॉर्पोरेशनों के हवाले कर दिया है, इनमें सबसे बड़े कॉर्पोरेशन के मालिक मोदी के मुख्य दानदाता गौतम अडानी हैं. मोदी राज के दौरान अडानी का कुल धन 1600 प्रतिशत बढ़ा है. कॉर्पोरेशनों के हवाले की गयी सार्वजनिक सम्पत्तियों में कीमती बंदरगाह, हवाई अड्डे, स्टील कारखाने, रेलवे लाईनें, खदानें, और पूरे देश में फैले भारतीय खाद्य निगम (FCI) के भंडारणगृह और भंडारण सम्बन्धी बुनियादी ढ़ांचे शामिल हैं.

आज की तारीख में, अडानी समूह गंगावरम बंदरगाह को चलाता है और इसका मालिक भी है. यह वही बंदरगाह है जिसको विशाखा स्टील बनाने वाली थी और अपने आबद्ध बंदरगाह के तौर पर चलाने वाली थी. लेकिन अपनी ही 2,800 एकड़ जमीन पर बने अडानी के निजी बंदरगाह का इस्तेमाल करने के लिये विशाखा स्टील को भारी कीमत चुकानी पड़ती है. सरकार की नीतियां कितनी असंगत हैं यह इस तथ्य से भी जाहिर होता है कि एक ही शहर में मौजूद विशाखा स्टील प्लांट को सम्पत्ति कर देना होता है, जबकि मोदी सरकार ने अडानी के बंदरगाह को सम्पत्ति कर देने से छूट दे रखी है.

POSCO के साथ गुप्त समझौता

मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही विशाखा स्टील बारंबार निजीकरण की प्रत्याशी के रूप में खबर में आती रही है. मोदी ने कई बार कहा है कि ‘कारोबार करना सरकार का कारोबार नहीं है’ और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बेचना उनका सर्वोपरि एजेंडा है. मोदी के दूसरे शासनकाल में शुरू की गयी राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (National Monetisaton Pipeline, NMP) इसी सोच का एक उग्र रूप है. NMP हर सार्वजनिक आधारभूत संरचना, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की जमीनें और सम्पत्तियां शामिल हैं, को 2025 तक बेचने या पट्टे पर देने का लक्ष्य रखती है.

2019 में सरकार ने ऑटो ग्रेड स्टील बनाने के लिये दक्षिण कोरियाई स्टील कंपनी POSCO के साथ मिलकर एक संयुक्त उद्यम के तहत रोलिंग मिल लगाने की पेशकश की. मिल को विशाखा स्टील की 3,000 एकड़ जमीन पर लगाया जाना था. इस संयुक्त उद्यम में विशाखा स्टील को अल्प हिस्सेदारी प्राप्त होनी थी. सरकार का दावा था कि इससे दोनों पक्षों का फायदा होगा. लेकिन मजदूर यह नहीं समझ पा रहे थे कि बाजार में 300 बिलियन का मूल्य रखने वाली 3,000 एकड़ जमीन – जिसका इस्तेमाल विशाखा स्टील भविष्य में अपने विस्तार के लिये कर सकती थी– को देने से उन्हें क्या लाभ मिल रहा था. पहले अपनायी गयी तरकीबों की तरह इस बार भी विशाखा स्टील के सिर पर सबसे ज्यादा जटिल और खतरनाक काम मढ़े जा रहे थे. लौह अयस्क खरीदना, कोक ओवन, ऑक्सीजन संयंत्र और अन्य भट्ठियां चलाने का काम विशाखा स्टील को करना था जबकि POSCO को मूल्य श्रृंखला का सबसे लाभदायक हिस्सा प्राप्त होना था. इसके अलावा, विशाखा स्टील की मेल्ट शॉप से स्टील को POSCO की मिलों में भेजने से विशाखा स्टील की अपनी मिलों में स्टील की आपूर्ति में कमी आती, जिससे उनको बंद होने पर बाध्य होना पड़ता. असली मकसद स्पष्ट था: विशाखा स्टील को POSCO के हाथों में देने का रास्ता तैयार करना.

विशाखा स्टील की जमीन पर POSCO का कारखाना लगाने की अनुमति देने से सरकार को रोकने के लिये मजदूर एक बार फिर हड़ताल पर चले गये. कामगार आंदोलन खड़ा करने के अलावा उन्होंने राज्यस्तर पर एक व्यापक अभियान चलाया. विशाखापत्तनम की सड़कों पर स्कूटर रैली आयोजित हुई जिसमें हज़ारों की संख्या में लोगों ने हिस्सा लिया. दिसम्बर 2019 में कई गांवों और कस्बों से गुरजते हुए प्रदेश की राजधानी अमरावती में खत्म होने वाली मोटरसाईकिल रैली में भी लोगों ने बढ़–चढ़कर हिस्सा लिया. कामगार यूनियनों और छात्र यूनियनों ने आंध्र प्रदेश के दूसरे शहरों और गांवों में अभियान चलाकर विशाखा आंदोलन के निर्माण के लिये हुए संघर्षों और 1966 में शहादत को प्राप्त हुए बत्तीस शहीदों की स्मृतियों को जीवंत किया. भाजपा को छोड़कर पक्ष–विपक्ष की हर पार्टी को मजदूर आंदोलन का समर्थन करने के लिये मजबूर होना पड़ा.

जब गणतंत्र दिवस (26 जनवरी, 2021) के दिन आंदोलनरत् किसानों ने राष्ट्रीय राजधानी के भीतर कूच किया तब पूरा देश उनकी तरफ टकटकी लगाये देखता रहा. सबका ध्यान किसानों पर केंद्रित था, लेकिन उसके अगले ही दिन सरकार की आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी ने विशाखा स्टील को पूरी तरह से बेचने का फैसला कर दिया. हालांकि उन्होंने इसकी तुरंत घोषणा नहीं की. अपना फैसला लेने के बाद मोदी सरकार विशाखा स्टील के निजीकरण का आधार तैयार करने में जुट गयी.

भाजपा सरकार ने 2019 में, विशाखा स्टील की स्थापना के तीन दशकों के बाद, झारखंड में एक आबद्ध खदान इस उम्मीद में आवंटित की कि POSCO विशाखा स्टील को खरीद लेगी. POSCO की नज़र भारत के समृद्ध और उच्च गुणवत्ता वाले लौह अयस्क पर थी. भारत में आबद्ध खदानों के साथ स्टील कारखाने लगाने से POSCO को दक्षिण एशिया में अन्य जगहों पर स्थित अपने कारखानों के लिये सस्ता लौह अयस्क मिल जाता. जब स्टील मजदूरों ने POSCO की चाल पर पानी फेर दिया तब सरकार ने प्रतिशोध में कदम उठाते हुए विशाखा स्टील को प्राप्त आबद्ध खदान का आवंटन रद्द कर दिया. विडंबना ये है POSCO के पास भारत में एक भी स्टील कारखाना नहीं होने के बावजूद उड़ीसा में आवंटित आबद्ध खदाने हैं. एक भी स्टील कारखाना नहीं होने के बावजूद POSCO ने अपने नाम हुई आबद्ध खदानों के आवंटन को बरकरार रखा है. इससे ठीक उल्टी स्थिति विशाखा स्टील की है. विशाखा स्टील को आबद्ध खदान आवंटित तो हुई, लेकिन इससे पहले कि विशाखा स्टील खदान से लौह अयस्क का एक दाना भी निकाल पाती, सरकार ने आवंटन को रद्द कर दिया.

सन् 2022 आते–आते विशाखा स्टील के ऊपर जमा क़र्ज़ बढ़कर 220 बिलियन रुपये हो गया था. ज्यादातर क़र्ज़ 2006 से 2015 के बीच कंपनी के विस्तार की वजह से जमा हुआ था. एयर लिकिद की दुर्घटना के अलावा 2014 में आये हुदुद चक्रवात के कारण विलंब हुआ और विस्तार की लागत में बढ़ोत्तरी हुई. जब विस्तार का फायदा मिलने ही वाला था तब स्टील उद्योग कोविड-19 महामारी की चपेट में आ गया. अन्य स्टील उत्पादकों की तरह ही विशाखा स्टील भी महामारी के आने के बाद से मांग में आयी गिरावट के कारण मंदी का सामना कर रही है. अगर विशाखा स्टील को 2019 में आवंटित आबद्ध खदानों का आवंटन सरकार ने रद्द नहीं किया होता तो लौह अयस्क की कम लागत ने महामारी के दौरान घाटे का सामना करने में विशाखा स्टील की मदद की होती.

जब संकट के बादल छंटने लगे और मांग में सुधार आने लगा तब विशाखा स्टील के सामने एक नयी मुसीबत आ खड़ी हुई. अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयला आपूर्ति में गिरावट आ गयी और यूक्रेन युद्ध की वजह से यह मुसीबत और ज्यादा गहरी हो गयी. इसके परिणामस्वरूप, ऑस्ट्रेलिया से आयातित कोक बनाने के लिये प्रयोग में आने वाले कोयले की कीमत आसमान छू रही है. इसकी प्रति टन कीमत लौह अयस्क की कीमत को भी पार कर गयी है. इस वजह से, भारत के अन्य स्टील कारखानों की तरह ही विशाखा स्टील की कार्यशील पूंजी की जरूरतें बढ़ गयीं हैं.

सरकार ने विशाखा स्टील के लिये क़र्ज़ की ऊपरी सीमा 270 बिलियन रुपये तय कर रखी है. विशाखा स्टील क़र्ज़ लेकर इस सीमा का 80 प्रतिशत हिस्सा पहले से ही पार कर चुकी है और अपनी कार्यशील पूंजी की जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रही है. इस कारण स्टील के बाजार में सुधार आने के बाद भी कारखाना अपनी क्षमता से कम स्तर पर उत्पादन कर रहा है. 2021-22 में कारखाने ने अपनी 7.3 मिलियन टन की क्षमता के मुकाबले सिर्फ 5.2 मिलियन टन स्टील का उत्पादन किया.

कार्यशील पूंजी की कमी की जिस समस्या से विशाखा स्टील जूझ रही है वो समस्या सरकार की ही पैदा की हुई है. अपने तीन दशकों के कार्यकाल में विशाखा स्टील ने क़र्ज़ चुकाने की अपनी काबिलियत को कई बार साबित किया है. विशाखा स्टील कभी भी बैकों से लिये क़र्ज़ का ब्याज या मूलधन चुकाने में विफल नहीं हुई है जबकि बहुत सारी निजी स्टील कंपनियों (जैसे भूषण स्टील और एस्सार स्टील) ने भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से क़र्ज़ लेकर तेज रफ़्तार से अपना विस्तार किया है और कुल मिलाकर एक ट्रिलियन से भी अधिक राशि बैकों को वापस करने में विफल रहीं हैं.

विशाखा स्टील की क़र्ज़ लेने की ऊपरी सीमा बढ़ाने से इंकार करना सरकार की विशाखा स्टील को कमजोर करने और इसकी बिक्री के खिलाफ आमलोगों के विरोध को कम करने की एक युक्ति है. इन कुत्सित प्रयासों के बावजूद भी विशाखा स्टील ने 2021-22 में 7.4 बिलियन रुपये का शुद्ध मुनाफा अर्जित किया.

अपनी समस्याओं से जूझते हुए भी विशाखा स्टील और इसके मजदूर 2021 की गर्मियों में महामारी की मार से पीड़ित लोगों को राहत प्रदान करने से पीछे नहीं हटे. इलाज और ऑक्सीजन की कमी से रोज हज़ारों लोग दम तोड़ रहे थे. सरकारी अस्पताल मरीजों से भर चुके थे और निजी अस्पताल कोविड-19 के मरीजों का इलाज करने से मना कर रहे थे. लोग सड़कों पर पड़े सांस लेने के लिये संघर्ष कर रहे थे. ऐसे समय में विशाखा स्टील उन उद्योगों में शामिल था जो ऑक्सीजन की आपूर्ति करने के लिये आगे आये. विशाखा स्टील ने आंध्र प्रदेश के अस्पतालों के अलावा पूरे देश में ऑक्सीजन की आपूर्ति की. महामारी की वजह से स्टील की मांग में आयी गिरावट की समस्या का सामना करने के बाद भी इसके ऑक्सीजन संयंत्र अस्पतालों को ऑक्सीजन पहुंचाने के लिये लगातार काम करते रहे.

आगे की राह

संसद के दोनों सदनों में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद ऐसा लगता है कि मोदी को लगने लगा है कि उनको प्रदेश के लोगों की भावनाओं को तवज्जो देने की जरूरत नहीं है. लेकिन मोदी सरकार के खिलाफ किसानों की भव्य जीत ने विशाखा स्टील के मजदूरों को सिखा दिया है कि इनकी हठधर्मिता को मात देने वाली एक मजबूत और सतत् लामबंदी की बदौलत मोदी सरकार को पीछे हटने पर मजबूर किया जा सकता है. किसान आंदोलन और इसकी जीत ने मजदूरों में ऊर्जा का संचार किया है और उनके विश्वास को दृढ़ किया है कि वो जीत सकते हैं– क्योंकि उन्हें हर हाल में जीतना ही है.

इस संदर्भ में किसान–मजदूर एकता महत्वपूर्ण शक्ल अख्तियार कर लेती है. बहुत सारे स्टील मजदूर किसान परिवारों से ताल्लुक रखते हैं. उन्होंने आंदोलन के पहले दिन से ही किसानों का समर्थन किया. समर्थन के अनेकों उदाहरणों में से एक उदाहरण है स्टील कारखाने के मजदूरों के एक प्रतिनिधिमंडल का दिल्ली जाकर आंदोलनरत् किसानों से मिलना. यह प्रतिनिधिमंडल किसानों से जनवरी 2021 में मिला और स्टील मजदूरों से एकत्रित की गयी धनराशि को आंदोलनरत् किसानों के सुपुर्द किया. कामगार आंदोलन ने आंदोलनरत् किसानों के साथ समन्वय बनाकर हड़तालें और अन्य साझी कारवाइयों को, जिसमें एक सफल राष्ट्रव्यापी बंद शामिल है, अंजाम दिया. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, और खासकर विशाखा स्टील के निजीकरण का विरोध करने के लिये किसान आंदोलन के नेतृत्व को रजामंद करने में इन आपसी कारवाइयों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. अप्रैल 2021 में राकेश टिकैत, अशोक धावले, और अन्य प्रमुख किसान नेता विशाखापत्तनम आये और एक जनसभा में स्टील मजदूरों की लड़ाई को अपना समर्थन दिया. इस घटना ने पूरे राज्य, और विशेषकर किसानों का ध्यान अपनी तरफ खींचा. इसने सार्वजनिक क्षेत्र और विशाखा स्टील को बचाने की लड़ाई के आयाम को व्यापक रूप दिया और कारखाने के निजीकरण के खिलाफ जनभावना को पुख्ता किया.

विशाखा स्टील के निर्माण के लिये अपनी जमीनें देने वाले परिवार मजदूरों के साथ मिलकर अभी भी लड़ रहे हैं. विशाखा स्टील बनाने के लिए लगभग 22000 अकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया गया था. तकरीबन 16,000 परिवारों ने अपनी ज़मीनें दी थीं. ज़्यादातर परिवारों ने ज़मीनें अपनी मर्ज़ी से दी थीं, क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि स्टील कारख़ाना उनके बच्चों के लिए रोज़गार लाएगा. कामगार यूनियनों के साथ मिलकर इन परिवारों के लोगों ने अपने लिये रोजगार सृजन के लिये सालों तक लड़ाई लड़ी है और 8,000 रोजगारों का सृजन करवाया है. वो अभी भी नयी भर्तियों के लिये संघर्षरत् हैं. निजीकरण के खिलाफ चल रहे वर्तमान संघर्ष में वो राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 16 पर अनिश्चिलकालीन धरने पर बैठे मजदूरों के साथ बैठे हुए हैं. उनके अनुसार इन जमीनों को कॉर्पोरेशनों के हाथों बेचना वास्तविक उद्देश्य और लोगों के साथ किये गये वादों के साथ धोखा करने के समान होगा. यह अनिश्चिलकालीन धरना 21 फरवरी 2021 से चल रहा है और 500 दिनों से ज्यादा की दहलीज पार कर चुका है.

कामगार यूनियनों ने विशाखा स्टील को बचाने की लड़ाई को प्रदेश के चप्पे–चप्पे पर पहुंचाने के लिये अनिश्चिलकालीन धरने के अतिरिक्त एक विशाल अभियान छेड़ रखा है. उन्होंने कारखाने के निजीकरण के खिलाफ एक बयान के समर्थन में एक करोड़ हस्ताक्षर इकट्ठा करने का लक्ष्य निर्धारित किया है. यूनियनकृत आंगनबाड़ी (ग्रामीण बालविकास केंद्र) कार्यकत्रियों ने, जो प्रदेश के लगभग हर गाँव में मौजूद हैं, स्टील मजदूरों को अपना समर्थन दिया है. उन्होंने हर उस गांव से कम से कम दस हस्ताक्षर इकट्ठा करने की शपथ ली है जहां वो काम करती हैं. मई 2022 तक प्रदेश के 60 लाख लोगों ने हस्ताक्षर कर दिया था. विशाखापत्तनम के मेयर और नगर निगम के निर्वाचित सदस्य हस्ताक्षर करने वाले पहले लोगों में शामिल थे. गांवों में हस्ताक्षर अभियान अभी भी जारी है.

तीन दशक के निर्बाध संघर्षों ने विशाखा स्टील के मजदूरों को अनुभवी राजनीतिक लड़ाकों में तब्दील कर दिया है. आज की तारीख में मजदूरों को विश्वास है कि वो अपने पथ पर टिके रह सकते हैं, दबाव का सामना कर सकते हैं और निजीकरण के खिलाफ चल रही लड़ाई को जीत सकते हैं. प्रदेश के अलावा पूरे देश में विभिन्न तरह के लोगों और संगठनों से मिलने वाला अपार जनसमर्थन इंगित करता है कि वो सही दिशा में जा रहे हैं.

Endnotes

  1. Shutdown protests in India entail a shutdown of business establishments, government offices, and most services (including road transport) except for the most essential services such as hospitals and media. Those who call for the protest often try to enforce the shutdown by blocking roads and by urging people to keep establishments and offices closed.
  2. Ch. Narasinga Rao (secretary of the Andhra Pradesh State Committee of CITU), J. Ayodhya Ram (president of the Steel Plant Employees Union), U. Ramaswamy (organising secretary of the Steel Plant Employees Union), and D. Adi Narayana (general secretary of the Visakha Steelworkers’ Union), in discussion with the authors, 2022.
  3. Ch. Narasinga Rao, Visakha Ukku Andhrula Hakku Mahodhyamam [Visakha Steel Is the Andhra People’s Right] (Vijayawada: CITU, 2021).
  4. Ch. Narasinga Rao, Visakha Ukku Andhrula Hakku Mahodhyamam.
  5. Ch. Narasinga Rao, Visakha Ukku Andhrula Hakku Mahodhyamam.
  6. Ch. Narasinga Rao, Visakha Ukku Andhrula Hakku Mahodhyamam.
  7. Rashtriya Ispat Nigam Limited / Visakhapatnam Steel Plant, Annual Report (various years), Visakhapatnam, www.vizagsteel.com.
  8. Navratna (meaning ‘nine jewels’) is a status given by the Government of India to central public sector enterprises (CPSEs) in the country on the basis of criteria such as profitability and size. There are also two other categories – Maharatna (‘grand jewel’) for CPSEs that are bigger and more profitable than Navratna companies, and Miniratna (‘small jewel’) for CPSEs that are smaller and less profitable than Navratna companies.
  9. Utpal Bhaskar, ‘Power Finance Corp Set to Be India’s 11th Maharatna CPSE’, Mint, 20 September 2021, https://www.livemint.com/companies/news/power-finance-corp-set-to-be-india-s-11th-maharatna-cpse-11632161171972.html.
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  13. Ch. Narasinga Rao et al., discussions.
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  14. Parliament of India, Rajya Sabha. ‘Cost of Production of Steel in CPSEs’. Question by Rajya Sabha MP G.V.L. Narasimha Rao and answer by Faggan Singh Kulaste, Minister of State in the Ministry of Steel, unstarred question no. 159 for answer on 18 July 2022. New Delhi: Rajya Sabha Secretariat, July 2022.
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  16. Rukhaiyar, Ashish. ‘60 Listed Firms Disclose ₹75,000 Cr. Default’. The Hindu, 9 January 2020. https://www.thehindu.com/business/60-listed-firms-disclose-75000-cr-default/article30526706.ece.
  17. Telangana Today. ‘Visakhapatnam RINL Dispatched over 11,900 MT Oxygen So Far’. Telangana Today, 5 May 2021. https://telanganatoday.com/visakhapatnam-rinl-dispatched-over-11900-mt-oxygen-so-far.

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