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भगवा घृणा उद्योग के फल : सामाजिक विभाजन और आरएसएस

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जगदीश्वर चतुर्वेदी

नागपुर के घृणा उद्योग का उत्पादन जोर से चल रहा है. श्रृंखलाबद्ध ढंग से वे मसले फेंक रहे हैं और भारत के दिलों में दरार पैदा कर रहे हैं. देश बांटने से भी ज्यादा भयानक है दिलों को बांटना. इस काम में नागपुर कंपनी को सफलता तो मिली है.

पंजाब में आतंकवाद के दौर में ‘पंजाब केसरी’ अखबार की प्रेस कौंसिल ने तीखी आलोचना की थी और कहा था यदि पंजाबी का यह अखबार आतंकवाद की खबर देना बंद कर दे तो 75फीसदी आतंकवाद तुरंत खत्म हो जाए. उस समय सबसे घटिया कवरेज इसी अखबार का होता था. इन दिनों वही हथकंडा टीवी चैनलों ने अपना लिया है. वे अब खबर नहीं देते बल्कि सामाजिक किलर और विभाजनकारी का काम कर रहे हैं. संविधान की जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं.

सामान्य नागरिकसेंस भी अब नहीं बचा. किसी अपराध की खबर मिली और लगे चिल्लाने ‘पकडो पकडो.’ कहीं इस तरह की अति उन्मादी हरकतों से देश चलता है. यही हाल रहा तो देश की पुलिस और अदालतें असंख्य झूठे मामलों से भरी होंगी. सावधान मित्रों, नागरिक विवेक से काम लो.

मीडिया का काम था खबर देना लेकिन देख रहे हैं अब मीडिया पुलिसिया और माफिया हरकत कर रहा है, किसे पकड़ा जाए और किसे न पकड़ा जाए यह बता रहा है. विजय माल्या-ललितमोदी को न पकड़ा जाए और जाकिर-नक्सल-रेसनलिस्ट-डेमोक्रेसी के ईमानदार नागरिकों को पकड़ा जाए.

मीडिया यदि पुलिसिया हरकतें करेगा तो जनता मीडिया पर हमले भी करेगी. आतंकवाद की खबर लो, पुलिस एजेंट की भूमिका अदा मत करो मीडिया वालो. कश्मीर पर घृणा फैलाकर कश्मीर को क्यों आतंकियों के हवाले करने में लगे हो ?

हमने कुछ समय पहले लिखा था- ‘आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद श्रीनगर में जिस तरह का बंद हुआ, वह चिन्ता की बात है. यह आम जनता को ज़बरिया आतंकवादियों के पीछे गोलबंद करने की कोशिश है. इस बंद को सत्तारूढ़ पीडीपी ने अप्रत्यक्ष समर्थन देकर यह साबित कर दिया है कि वे आतंकियों से अपने को अलग नहीं कर पाए हैं.

पीडीपी और भाजपा गठबंधन के चुनाव जीतने के बाद राज्य में आतंकी घटनाओं में बडी संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है. कश्मीर में आतंकी घटनाओं में आई बाढ़ से अपने को भाजपा अलग नहीं कर सकती. बुरहान बानी की मौत के प्रतिवाद में इस तरह का बंद पहले कभी नहीं देखा गया. कई इलाक़ों में कर्फ़्यू लगा है, इंटरनेट -मोबाइल सेवाओं पर पाबंदी है, सड़कें सूनी हैं, यहां तक कि रेल भी बंद है. अमरनाथ यात्रा स्थगित है. असल में यह आरएसएस की आतंकवाद के प्रति मित्रता नीति का कुफल है.

देश की आम जनता में साम्प्रदायिक सद्भाव पैदा करने के लिए ज़रूरी है कि साम्प्रदायिक दंगों में मारे गए लोगों का राष्ट्रीय स्तर पर शहीद स्मारक बनाया जाय, साथ ही दंगा प्रभावित शहर में दंगे में मारे गए लोगों की याद में शहीद स्मारक बनाया जाय, जिसमें मारे गए लोगों के नाम हों. ये स्मारक समाज में साम्प्रदायिक हिंसाचार के प्रति सजग करने में प्रतीकात्मक तौर पर बड़ी भूमिका निभा सकते हैं.

मैंने अपने छात्र जीवन में वैचारिक विभाजन के आधार पर सामाजिक विद्वेष को नहीं देखा, जबकि जेएनयू में पढ़ता था. व्यापक स्तर पर सघन वैचारिक जंग होती थी लेकिन छात्रों में विचारधारात्मक विभाजन नहीं था, लेकिन मौजूदा दौर बेहद खतरनाक है. इसने युवाओं को बांट दिया है. इस समय पुराने जेएनयू वाले मित्र भी बंटे हैं. युवा आपस में बंटे हैं, युवाओं का अपने से बड़ों यानी अभिभावकों से विचारधारात्मक टकराव है.

इस स्थिति में लगातार कंजरवेटिव और आक्रामक विचारों की ओर रूझान बढ़ रहा है. स्थिति की भयावहता का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि गृहिणी महिलाएं बड़ी संख्या में जो पहले उदारमना होती थीं उनमें राष्ट्रवाद, मोदीवाद टाइप संकीर्ण विचारधाराएं आ गयी हैं. वे राजनीति नहीं जानतीं, लेकिन राष्ट्रवाद के पक्ष में हैं. कहने का अर्थ है राजनीतिविहीन लोगों को विचारधारात्मक विभाजन तेजी से अपनी गिरफ्त में ले रहा है. फलतः पृथकतावादी और साम्प्रदायिक ताकतें खुलकर घरेलू औरतों का दुरूपयोग कर रही हैं.

विश्वविद्यालयों में उदार मूल्यों को मूलाधार बनाकर जो व्यापक सामाजिक एकता या छात्र एकता विकसित हुई थी, आज वह पूरी तरह से गायब है. विश्वविद्यालयों में विचारधारात्मक विभाजन सबसे ज्यादा है और उसमें कंजरवेटिव मूल्यों पर एकता बढी है. मूल्यहीन चीजों पर एकता बढ़ी है, इसने विश्वविद्यालय स्नातकों के सामाजिक स्तर का अवमूल्यन किया है.

हमने छात्रों के साथ मूल्यों के विघटन के सवालों पर बातें करना बंद कर दिया है. इन दिनों कैंपस का समूचा परिवेश स्थानीय नफरत की राजनीति का अखाड़ा बनकर रह गया है. इसके बहाने बड़े नीतिगत अकादमिक सवालों से युवाओं का संबंध तोड़ने में आरएसएस सफल रहा है.

भारत के युवा जिनकी उम्र 17 से 22 साल के बीच है, वे सबसे ज्यादा विचारधारात्मक विभाजन के शिकार हैं. इनमें उदार मूल्यों के प्रति एकता कम और अनुदार और प्रतिगामी मूल्यों के प्रति आकर्षण बढ़ा है.

भारत का मध्यवर्ग आज विचारधारा के आधार पर जितना विभाजित है, उतना पहले कभी नहीं था. पहले कुछ मसलों पर मध्यवर्ग में एकता थी, लेकिन इस समय हर विषय पर मोदी समर्थक, संघ समर्थक, कांग्रेस समर्थक, वाम समर्थक आदि के विचारधारात्मक विभाजन को सीधे देखा जा सकता है. मध्यवर्ग में हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा एकता की धुरी है और वही उसकी विचारधारा है. इससे देश के विकास में बाधा पहुंच रही है.

विचारधारा के आधार पर समाज का विभाजन काफी पहले शुरू हो गया था, संभवतः आपातकाल के बाद इस तरह की प्रक्रिया के बीज पड़े जिनको 1990-91 के बाद जमकर फलने-फूलने का मौका मिला. इस समय तो विचारधारा के आधार पर सामाजिक विभाजन पूरे चरम पर है. यह सामाजिक कमजोरी का लक्षण है. इसी कमजोरी का मोदी-आरएसएस लाभ उठा रहे हैं.

भारत के शिक्षित मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा आज भी मध्यकालीन मनोदशा और बर्बरता में रसमगन है. शिक्षितों के पास एक भी यूरोपीय मूल्य नहीं हैं, फिर कैसे महान बनोगे. मेरे देश के छात्र अभाव, असुरक्षा और प्रतिकूल वातावरण में बड़ी कठिनाईयों में पढ़ते हैं. पता नहीं हमारे देश की सरकार को यह ज्ञान कब होगा कि छात्र देश की शक्ति, ऊर्जा और सर्जना का आधार हैं. किसी भी देश को जानने का आईना हैं छात्र.

मोदी के शासन में आने के बाद से आरएसएस ने छात्रों के एक बड़े वर्ग में हिन्दू राष्ट्रवाद की लहर पैदा की है, यह नए किस्म का राष्ट्रवाद है. यह जन प्रचलित धारणाओं से एकदम भिन्न है. यह देशी कारपोरेट कंपनियों, माफिया और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गुलामी के जयगान से ओतप्रोत राष्ट्रवाद है.

इसके माने हैं असंवैधानिक सत्ता के आतंक की अनुभूति. असंवैधानिक आतंक का प्रसार. शिक्षा का पूर्ण निजीकरण. सरकारी शिक्षा संस्थानों में आतंक का राज, छात्रों-शिक्षकों के लोकतांत्रिक हकों पर निरन्तर हमले. ऐसी अवस्था में छात्र समुदाय की यह जिम्मेदारी है कि शिक्षा के क्षेत्र में मोदी सरकार के हमलों के खिलाफ अपने को एकजुट संघर्ष के लिए तैयार करे.

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