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इमरजेंसी के बीज 1947 से दबे पड़े थे…!

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इमरजेंसी के बीज 1947 से दबे पड़े थे...!
इमरजेंसी के बीज 1947 से दबे पड़े थे…!

इमरजेंसी के बीज 1947 से दबे पड़े थे…! 15 अगस्त 1947 को भारत, दरअसल आधा ही अंग्रेजों से हस्तगत हुआ था. बाकी का आधा, ब्रिटिश हक का था ही नहीं, वह रजवाड़ों की भूमि थी. तकनीकी रूप से रजवाड़े ‘ब्रिटिश पैरामाउंसी’ के अंडर अवश्य थे, पर यह पैरामाउंसी सीमित थी यानी विदेश, रक्षा, संचार मामले दिल्ली से अंग्रेज डील करते. बाकी मसले यानी पुलिस, न्याय, शिक्षा, विकास, रेवेन्यू,और प्रशासन के दूसरे अंग, रजवाड़े खुद देखते. और इसका मतलब क्या था ??

मतलब ये कि कमाई, खजाना, स्टेट की इनकम पर राजा का अधिकार था. उनकी अकूत दौलत, शानो शौकत, महल, हवाई जहाज, बीवियों, कुत्तों की बड़ी संख्या का राज, टैक्स का यही धन था. इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट, जो ब्रिटिश पार्लियामेंट ने पास किया था, उसके 3 प्रमुख तत्व थे –

  1. इंडियन सबकॉन्टिनेंट से ब्रिटेन हट जायेगा.
  2. ब्रिटिश शासित हिस्से, (1) भारत और (2) पाकिस्तान बनेंगे.
  3. राजवंशो पर ब्रिटिश पैरामाउंसी खत्म होगी, पर वे स्वतंत्र नहीं रह सकेंगे, उन्हें भारत या पाकिस्तान से मिलना होगा.

रजवाड़ो पर लागू होने वाला यह तीसरा बिंदु, बेलॉजिक था. ब्रिटेन से उनकी पैरामाउंसी की संधि थी. ठीक…! वह अपनी पैरामाउंसी त्याग दे, पर किसी दूसरे के साथ जाने को फोर्स कैसे कर सकता है ?? जो छोटे राज्य थे, इनलैंड थे, वे तो ज्यादा गड़बड़ कर नहीं सकते थे, पर जो समुद्र तट, या सीमावर्ती थे, बड़े थे, धनी थे…उनके दिमाग में स्वतंत्र रहना एक वायबल ऑप्शन था.

उन्होंने सर उठाया तो जूनागढ़, कश्मीर, हैदराबाद हुआ. ट्रावनकोर भी हो जाता, कुछ दूसरे राज्य भी, पर उन्हें समझा लिया गया. ज्यादातर राजाओं की चिंता थी- शानो शौकत कैसे बरकरार रहेगी. खजाने पर कितना हक रहेगा, पॉवर क्या बची रहेगी, ऑटोनॉमी कितनी रहेगी. भारत- पाकिस्तान, दोनों के नेता, रजवाड़ों को ललचाने, फुसलाने, धमकाने की प्रतिस्पर्धा कर रहे थे. तमाम फार्मूले…अलग अलग राजा, अलग अलग वादे. प्रिवीपर्स इसी क्रम में आया.

प्रिवीपर्स संवरिन गांरटी थी. भारत में अपना राज्य मिला दीजिए, और ऐश कीजिए. साल में करोड़ों (आज के मूल्य में खरबो) यूं ही मुफ्त में खाते में जमा हो जाएंगे. ये सही था गुरु !!!! राजे, महाराजे चटपट विलय पत्र साइन करने लगे. इस तरह भारत बना, जैसा कि आज आप देखते हैं.

नेहरू तक सब ठीक चला. पैसे टाइम से मिल जाते. पॉवर के लिए नेता बनकर, चुनाव लड़ने और मंत्री गवर्नर बनने का रास्ता तो था ही, रजवाड़े मजे में थे. पर 1967 के बाद, यानी इंदिरा के वक्त मामला बिगड़ गया. राजमाता विजयाराजे की मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री से ठन गई.

सीएम डीपी मिश्रा, इंदिरा गांधी के पट्ट वफादार थे लेकिन राजमाता, इंदिरा को पप्पू…या ज्यादा मशहूर फ्रेज में कहें, तो ‘गूंगी गुड़िया’ समझती थी. बाकी का देश भी तो यही समझता था. बेफिक्र विजयाराजे ने डीपी की सरकार गिराई, संघी सरकार बना दी.

वैसे भी आरएसएस, हिन्दू महासभा तो रजवाड़ो की गोद में ही खेली बढ़ी थी. नैचुरल ऑप्शन थी. दिल्ली में संसद पर साधुओं का हमला हुआ, यह इंदिरा को डराने के लिए था. फिर संयुक्त विधायक दल का खेल राजस्थान में भी हुआ.

विजयाराजे ने एक अघोषित रजवाड़ा एसोसिएशन बना लिया था. यह एसोशिएशन कांग्रेस की जड़ खोदने में लगी थी. ऑपरेशन कमल की देश भर में सुगबुगी फैलने लगी. हर जगह विधायक खरीदे गए. और विधायक खरीदने के पैसे कहां से आये ?? जरा गेस कीजिए.

प्रिवीपर्स का पैसा, प्राइवेट बैंक बनाकर, तमाम धंधों में ब्याज पर चलाया जाता. वह धन बढ़ता जाता. रजवाड़े निजी रूप से, और बैंकों में इन्वेस्ट करके अकूत दौलत पर बैठे थे. तो सरकार, जो अरबों रुपये रजवाड़ो को देती, वही पैसा घूमकर, लोकतांत्रिक सरकारों को उखाड़ने में लग रहा था.

1969 में इंदिरा ने दो निर्णय लिए –

  1. प्रिवीपर्स खत्म
  2. बैंक नेशनलाइज

रजवाड़े रातोंरात लुट गए. कंगाल हो गए. यह धन कायदे से उनका कॉन्स्टिट्यूशनल राइट था. रजवाड़े कोर्ट गए. जीत गए, तो इंदिरा ने संविधान संशोधन लाया. सम्पत्ति का अधिकार ही स्ट्राइक ऑफ कर दिया. अब कोर्ट कुछ नहीं कर सकती थी. पर रजवाड़े कर सकते थे…

वे जनता को बरगला सकते थे. अपने राजनीतिक प्यादों के माध्यम से…पर उनकी कोई राजनीतिक स्वीकार्यता नहीं थी. नया नेता चाहिए था. वह मिला- गुजरात में मेस के दाम 2 रुपये बढ़ने से. जेपी बियाबान से बाहर आये. नेता हुए. अवसर दिखा तो रजवाड़े ताकत बटोर उनके पीछे खड़े हुए. वे जेपी की फाइनांशियल पॉवर बने, और संघ मसल पॉवर…बाकी का एंटी कांग्रेस विपक्ष भी जुड़ गया.

बेरोजगारी-महंगाई के नाम पर तोड़फोड़ आंदोलन का उद्योग हुआ. इसकी जड़ काटने का फरसा, 25 जून 1975 को चला. जब रेडियो बोला- ‘राष्ट्रपति महोदय ने आफतकाल की घोषणा की है.’

  • मनीष सिंह

परिशिष्ट : क्या आप जानते हैं – इमरजेंसी के दौरान कानून लाकर राजवाड़े और नवाबों को मिलने वाली प्रिवी पर्स राशि पर पाबंदी लगाकर इंदिरा गांधी ने भारतीय आम जनमानस को बहुत बड़े टैक्सबोझ से बचाया था. यदि ऐसा ना किया होता तो हमारे पूर्वज कभी भी हमें ऐसी जिंदगी नहीं दे पाते जिस तरह की हम अभी जी रहे हैं.

प्रिवी पर्स के अंतर्गत कुल 565 स्टेटस को जनता द्वारा जमा किए हुए टैक्स के पैसों में से पैसा मिलता था. यह राशि 23 लाख से लेकर 5000 सालाना तक थी. कुल 565 स्टेटस, जिसमें –

  1. ₹50,000 से अधिक तक की राशि प्राप्त करने वाले कुल स्टेटस 102
  2. ₹50,000 से लेकर 20,000 तक की राशि प्राप्त करने वाले कुल स्टेटस 300
  3. बाकी अन्य 20,000 से लेकर 5000 तक की राशि प्राप्त करते थे.

नीचे 10 ऐसे स्टेट के नाम दिए जा रहे हैं जो राशि प्राप्त करने में टॉप 10 में शामिल रहे थे –

  1. हैदराबाद – 26 लाख रुपये प्रति वर्ष/आज के हिसाब से 780 करोड रुपए
  2. मैसूर – 22.5 लाख रुपये प्रति वर्ष/आज के हिसाब से 675 करोड रुपए
  3. ट्रावनकोर – 18 लाख रुपये प्रति वर्ष/आज के हिसाब से 540 करोड रुपए.
  4. बड़ौदा – 17.5 लाख रुपये प्रति वर्ष/आज के हिसाब से 525 करोड रुपए
  5. पाटियाला – 17 लाख रुपये प्रति वर्ष/ आज के हिसाब से 510 करोड रुपए
  6. ग्वालियर – 17 लाख रुपये प्रति वर्ष/ आज के हिसाब से 510 करोड रुपए
  7. जयपुर – 15 लाख रुपये प्रति वर्ष/ आज के हिसाब से 450 करोड रुपए
  8. भोपाल – 11 लाख रुपये प्रति वर्ष/ आज के हिसाब से 330 करोड रुपए
  9. जोधपुर – 10.5 लाख रुपये प्रति वर्ष/ आज के हिसाब से 315 करोड रुपए
  10. इंदौर – 10 लाख रुपये प्रति वर्ष/ आज के हिसाब से 300 करोड रुपए

यह सब फोकट की मिलने वाली राशि पर पाबंदी लगने के बाद सारे राजे महाराजे और नवाब इंदिरा से नाराज हो गए थे और मूर्ख जनता को इंदिरा गांधी के खिलाफ भड़का कर संघी सरकार को सत्ता में लाए. उसी तरह आज भी कॉरपोरेट की ताल पर वर्तमान सत्ता नाच कर गोबर खाने वालों को मूर्ख बना रही है.

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ROHIT SHARMA

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