Home कविताएं प्रतिध्वनियां

प्रतिध्वनियां

0 second read
0
0
75

ज़रा सा जो याद रह जाता है
वह होता है
ढेर सारा प्यार

वही प्यार
जिसे मेरे नंगे पैरों को
घास भूमि ने दिया
झुरमुट में थक कर सोते हुए
मुझे हरी शाख़ों के पंखों ने दिया
जलती हुई आंखों को
ओस कणों ने दिया
रतजगा के बाद

बारूद, पसीने और गर्द में लिपटे
मेरे क्षत विक्षत शरीर को
और निराश मन को
तुम्हारी कोमल यादों ने दिया

प्यार
भूख से मृयमान आदमी के लिए
बस एक टुकड़े रोटी में
समा सकती है
और प्यास से आकुल आदमी के लिए
एक घूंट पानी में भी

कांटे चुभे पैरों में
कृष्ण की छुअन में भी
और जल, जंगल और ज़मीन
बचाते हुए
चौथी दुनिया के लड़ाकुओं के
खुले आसमान के ख़ेमे के उपर
उतरती हुई रात की छुअन में भी है प्यार

कहीं भी ढूंढने की ज़रूरत नहीं है प्यार को

जब भी तुम घृणा में
प्रतिस्पर्धा में
और दमनकारी युद्ध में नहीं होते हो

अपने छोटे छोटे
लड़खड़ाते हुए कदमों से
प्यार करता है अभिसार
एक छोटे बच्चे की तरह जिसने
अभी अभी सीखा है चलना

और जिसके लिए तुम्हारा होना
बेहद ज़रूरी है दोस्त

2

मैं अगर कह भी दूं कि
अल्लाह उनको जन्नत नसीब करें
फिर भी इससे कहां साबित होता है कि
अल्लाह और जन्नत वाक़ई में हैं

मैं अगर किसी को स्वर्गीय
कह भी दूं तो
इससे कैसे साबित होता है कि
दिवंगत नारकीय जीव नहीं था

दरअसल
मेरे कहने, सुनने और मानने से
कुछ नहीं होता

संभावनाओं का संसार
असीमित होता है

पुरानी कहावत में
अंधेरे में पड़ी रस्सी
साँप जैसी ही लगती है

मुझे तो ये भी नहीं मालूम कि
मैं तुम्हें ये सब क्यों बता रहा हूँ

मुझे तो ये भी नहीं मालूम कि
इस आवर्ती समय में
तुम निद्रा और मैथुन के सुख से विरक्त होकर
मेरे पीछे पीछे चंदन वन की सैर पर हो या नहीं

कितना मालूम है मुझे
तुम्हारे बारे

या कितना मालूम है तुम्हें मेरे बारे

तुम्हारे और मेरे बीच
कुछ शब्द ही तो हैं

अड़हूल के फूल जैसे
टहनियों से टपकते हुए शब्द

प्रार्थना को शब्द देते अड़हूल

जो खिलते हैं अहले सुब्ह
पूजा की थाली में सजने के लिए
और मुर्झा जाते हैं
दिन के दूसरे पहर में

श्रद्धा के भोग का श्राद्ध
एक तटस्थ भंगिमा है दोस्त

तुम्हें और मुझे बीताते हुए समय का दोस्त

3

अब कविता लिखने का
मन नहीं करता है
दुनिया के सारे शब्द
जीवन के किसी एक क्षण को
एक विशेष भंगिमा में ढाल कर
अमरत्व देने का सामर्थ्य खो चुके हैं

ध्वनियों के मकड़ जाल से परे
वितृष्णा का उदय
अंटार्कटिका की रातों की रोशनी सा

रंगीन होने के वावजूद
पत्थरों की अक्षुण्ण आत्माओं को समाहृत नहीं करतीं हैं

जितना लिखा जा सकता था
उससे कहीं ज़्यादा लिखा जा चुका है
अब सिर्फ़ सुनने का समय है
प्रतिध्वनियां

यौवन के गीत मुंह चिढ़ाते हुए
शर्मसार करतीं हैं मुझे
शफक की लाल रोशनी बन कर
यौवन के विद्रोही तेवर
लुंठित हैं रणक्षेत्र में बिछे ध्वजों की तरह

एक अहेतुक काम वासना
मुझे पलट कर देखने को बाध्य करता है
पास में लेटी हुई उस स्त्री की तरफ़
जो मेरे स्खलित पुरुषार्थ से निश्चिंत हो कर
समा गई है गहरी नींद के गोंफ में
हाराकिरी नाभी नाल से

जीवन के उच्छेदन की दूसरी प्रक्रिया है
जबकि जीवन भर मैंने लिखे हैं
उन घर से उजड़े हुए लोगों की कहानियां
जिन्हें बाध्य किया गया था
बार बार हाराकिरी करने के लिए

आज उस औरत को मुझसे शिकायत है कि
मैंने उसकी आंखों की पुतलियो को नोच कर
थमा दिया है उसके हाथों में
दुनिया को मेरे नज़रिए से देखने के लिए

जबकि सच तो ये है कि
मेरी सारी लड़ाई
एक अंधे के नज़रिए से दुनिया को देखने की रही है

निरपेक्षता की चाह
नपुंसकता की अद्भुत अभिव्यक्ति है
इसलिए अब मैं महज़ एक संग तराश हूं
मेरा काम है पत्थरों के रूह से संवाद करना
और उनके दर्द और ख़ुशियों को
शब्दों की छेनी से तराश कर
एक सांचे में ढालना

एक दिन मैं टांक दूंगा
मेरे द्वारा तराशे हुए सारे सांचों को
आसमान पर चांद तारों की तरह
एक दिन तुम ढूंढ लोगे अपना रास्ता
सहरा से बाहर आने का
इन्हीं टंके हुए सितारों के सहारे
और पा जाओगे अपना मुक़ाम

  • सुब्रतो चटर्जी

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
G-Pay
G-Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
  • गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध

    कई दिनों से लगातार हो रही बारिश के कारण ये शहर अब अपने पिंजरे में दुबके हुए किसी जानवर सा …
  • मेरे अंगों की नीलामी

    अब मैं अपनी शरीर के अंगों को बेच रही हूं एक एक कर. मेरी पसलियां तीन रुपयों में. मेरे प्रवा…
  • मेरा देश जल रहा…

    घर-आंगन में आग लग रही सुलग रहे वन-उपवन, दर दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर-छाजन. तन जलता है…
Load More In कविताएं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…