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नरेंद्र मोदी भारत का प्रधानमंत्री बने रहने का नैतिक हक खो चुके हैं

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नरेंद्र मोदी भारत का प्रधानमंत्री बने रहने का नैतिक हक खो चुके हैं
नरेंद्र मोदी भारत का प्रधानमंत्री बने रहने का नैतिक हक खो चुके हैं
हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

जो सरकार थी वह एनडीए सरकार नहीं थी, भाजपा सरकार भी नहीं थी, वह ‘मोदी सरकार’ थी. अब नौबत है कि मोदी सरकार तो नहीं ही बननी है, भाजपा सरकार भी नहीं बननी है, बनेगी तो ‘एनडीए सरकार’ बनेगी. मोदी सरकार अपने अहंकार और अपनी नाकामियों के गड्ढों में जा गिरी है. नरेंद्र मोदी चाहे जितना गाल बजा लें, वे भारत का प्रधानमंत्री बने रहने का नैतिक हक खो चुके हैं. उन्हें इस्तीफा दे कर ध्यान, योग आदि में खुद को लगाना चाहिए. नाटक वाला ध्यान नहीं, असली वाला ध्यान. लेकिन, ध्यान लगाना इतना आसान भी तो नहीं. दिमाग में जब हजार खुराफातें चल रही हों तो ध्यान लग ही नहीं सकता.

अभी तो बैंकों को रसातल में पहुंचा कर उन्हें प्राइवेट हाथों में सौंपने का कार्पोरेट का ‘टास्क’ अधूरा ही पड़ा है, उधर रेलवे, हवाई अड्डे, बंदरगाह आदि भी पूरी तरह कहां कब्जा सके हैं वे लोग ! कई जगह कई पेंच फंसे पड़े हैं. मुक्त अर्थव्यवस्था के नाम पर अभी कितने खेल करने बाकी हैं. ऐसे दौर में, जब अमेरिका और यूरोप में मुक्त आर्थिकी से उपजी अराजकताएं वैचारिक चुनौतियों की जद में हैं, भारत में मोदी जी उसका झंडा उठाए शान से घूम रहे हैं, जितना बन पड़ रहा है, उल्टा पुल्टा कर रहे हैं, राष्ट्रीय साधनों और संसाधनों का कारपोरेटीकरण कर रहे हैं.

अभी बहुत काम बाकी है, इसलिए, नैतिकता गई भाड़ में. फिर से प्रधानमंत्री बन जाने के समर्थन में हजार तर्क ढूंढ लेंगे. मोदी सरकार न सही, भाजपा सरकार भी न सही, एनडीए सरकार के नाम पर राज करेंगे. राज ही क्यों, भारत को ‘नए दौर’ में ले जाने का टास्क पूरा करेंगे. नायडू को ‘हैंडल’ कर लेना कार्पोरेट आकाओं के लिए कोई बड़ी बात नहीं होगी. नीतीश कुछ टेढ़े जरूर हैं लेकिन अब वे नीतीश कुमार रहे ही कहां ! अब तो पता ही नहीं चलता कि उनकी तरफ से फैसले कौन सी चौकड़ी ले रही है. उस चौकड़ी के इरादे और निष्ठाएं संदिग्ध प्रतीत होती हैं.

राहुल गांधी की वैचारिक चुनौतियां बेशक राहों में रोड़े अटकाएंगी. लेकिन, कोई बात नहीं. भांड़ की जमात में तब्दील हो चुके एंकर एंकरानियों की भीड़ है न. वे नैरेटिव्स गढ़ेंगे, जैसे गढ़ते रहे हैं. वैचारिक बातें करने वालों को बदनाम करेंगे, विकास विरोधी ठहराएंगे. फेसबुक जैसे मंच इसी तरह वैचारिक विमर्शों की रीच को प्रतिबंधित करेंगे, लिखने वालों को हतोत्साहित करेंगे. हिन्दी अखबार वाले फालतू की खबरों से पन्ने भरेंगे, जरूरी खबरों से पब्लिक को दूर रखने की हर कोशिश करेंगे.

मोदी की चमक दिन प्रति दिन अब फीकी पड़ती जाएगी लेकिन, तब भी, उनकी प्रायोजित लोकप्रियता और उनके वाग्जाल का लाभ उठा कर कॉर्पोरेट अपने मंसूबे साधते रहेंगे. वे मोदी को निचोड़ेंगे, गाड़ेंगे और एक ‘मजबूत नेता’ की कृत्रिम छवि में कैद कर नैतिक मानकों पर निहायत ही कमजोर, गरीब विरोधी नेता के रूप में इतिहास में दर्ज करवाएंगे.

अब तक के राज में मोदी ने आम करदाताओं की चाहे जितनी फजीहतें की हों, देश का चाहे जो हाल किया हो, खुद मोदी की फजीहत नहीं हुई, अब होगी. अतीत में अपनी ही खड़ी की गई आर्थिक समस्याओं से निपटने में उनकी सफलता निहायत ही संदिग्ध है. उनसे बातें चाहे जितनी ले लो, सब्जबाग चाहे जितनी गढ़वा लो, गंभीर आर्थिक चिंतन उनके या उनके थिंक टैंक के बस का नहीं. तो, आर्थिक चुनौतियों के मद्देनजर मोदी जी अब आलोचकों और विरोधियों के निशाने पर अधिक रहेंगे और देश उनकी राजनीतिक फजीहतों का साक्षी बनेगा.

तब भी, उनकी विवशता होगी कि वे आर्थिक उलट पुलट करते रहेंगे. उनकी यही प्रासंगिकता है. इसके लिए साथियों, सहयोगियों के साथ सौदेबाजियों के दौर चलते रहेंगे. नीतीश के सलाहकार बिहार के विकास के नाम पर कुछ खुली सौदेबाजी करेंगे, अपने विकास के लिए कुछ बंद कमरे के खेल करेंगे, बारह सांसदों की उपयोगिता की अंतिम बूंद तक निचोड़ते रहेंगे.

फर्जी आंकड़े अखबारों में, न्यूज चैनलों में विकास की गाथा के रूप में हमारे सामने आते रहेंगे. जैसे, चुनाव ‘जीतने’ के बाद मोदी जी ने कहा ‘हमारी सरकार ने 25 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकाला है.’ अब कह दिया तो निकाला होगा, कौन गिने इतनी मुंडियां, वह भी गरीबों की. इतिहास में मोदी भारत के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जो राजनैतिक नैतिकता के नए प्रतिमान गढ़ते हैं, भले ही नकारात्मक अर्थों में. उनकी अपनी नैतिकता है.

तो, अगर मोदी जी प्रधानमंत्री बनते हैं, जो कि वे बनेंगे ही, वे बने बिना मानेंगे नहीं, कार्पोरेट प्रभु उन्हें बनवाए बिना मानेंगे नहीं. अगर थोड़ी भी गुंजाइश है तो कोई क्यों माने ? यहां तो एनडीए की जीत के नाम पर बड़ी गुंजाइश है, उन्हें बनना ही चाहिए.

वैसे भी, दस वर्षों में अर्थव्यवस्था की और देश की भावात्मक एकता की जो ऐसी की तैसी मोदी सरकार ने करवाई है, एनडीए सरकार के रूप में उसका प्राप्तव्य भोगना होगा. जनता ने इस बार लड़ाई लड़ी है, मुकम्मल नहीं लड़ी. वक्त तो लगता ही है लेकिन, संतोष है कि सत्ता परिवर्तन भले न हो रहा हो, अहंकार टूटा है और राजनीतिक परिवर्तन की ओर देश मुड़ चुका है.

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ROHIT SHARMA

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