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आरएसएस की पाठशाला से : गुरूजी उवाच – 1

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तपते हुए रेगजारों से हमने, रास्ते निकाले हैंं, राह के हिमालय तक हमने तोड़ डाले हैं

देखना है साथियों जीत किसकी होती है, एक तरफ अन्धेरें हैं, एक तरफ उजाले हैंं

[यूंं तो आरएसएस 1925 में स्थापित हो चुका था, पर चौथे दशक में उसके संस्थापक हेडगवार की मृत्यु के बाद, उसको वट-वृक्ष बनाने का श्रेय यदि किसी को जाता है तो वह हैं एम. एस. गोलवलकर, जिनको उनके नाम से जानने वालों के मुकाबले उनके उप-नाम “गुरूजी” से जानने वालों की तादात कई गुना ज्यादा है. यह श्रेय उन्हें देश के जन मानस में, “हिन्दू नस्लीय-राष्ट्रवाद” की अवधारणा पर उनके चिंतन, अध्ययन, मनन, विश्लेषण के बाद “हिंदुत्व” की नींव रखने और उस नींव पर “हिन्दू साम्राज्य” खड़ा करने के, वैचारिक दर्शन के प्रभावशाली प्रस्तुतिकरण के कारण दिया जाता है. हालांकि “हिन्दू नस्लीय राष्ट्रवाद” की “गुरूजी” की अवधारणा, सावरकर के हिंदुत्व की अवधारणा पर ही आधारित है.

गुरु जी, आमजन मानस के मन मस्तिष्क पर अमिट छाप उकेरने वाले, प्रभाव उत्पादक प्रखर वक्ता के रूप में जाने जाते हैं. वक्ता ही नहीं बिना लाग-लपेट के, सीधे-सपाट और स्पष्टता उनके लेखन में भी स्पष्ट झलकती है. विचारों को प्रकट करना, वैचारिक समर्थकों को संगठित करना, अपने संगठन का प्रचार प्रसार कर उसका विस्तार करना आदि-आदि की स्वतंत्रता हमें अपने लोकतांत्रिक, धर्म तटस्थ राज्य के संविधान से प्राप्त हुई, गुरूजी उसके मुखर आलोचक रहे हैं. इतने कि सत्ता-प्राप्ति के बाद उसे बदल देने की बात मजबूती से करते रहे हैं.

“गुरूजी उवाच” लेख माला उन्हीं आलोचनाओं और वैचारिक स्थापनाओं को आमजन को समझ आ सकने वाली भाषा में उस तक पहुंंचाना उद्देश्य है. लेखमाला में पाठकों की रूचि बनी रहे इस उद्देश्य से वर्तमान की बातें भी जहांं उपयुक्त समझा, उनको भी जोड़ा है. प्रस्तुत है वरिष्ठ पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक विनय ओसवाल के द्वारा आर.एस. एस. के वैैैचारिक धरातल की पड़ताल करती पहली श्रृृंंखला ]  

आरएसएस की पाठशाला से : गुरूजी उवाच - 1

हिन्दू जन वो “विराट पुरुष” है जिसके माध्यम से सर्वशक्तिमान ने अपनी सामर्थ को व्यक्त किया है. गुरु जी स्वीकार करते हैं- “यद्यपि हमारे पूर्वजों ने कभी अपने को “हिन्दू” नाम से सम्बोधित नहीं किया.” पर गुरूजी यहांं ये नहीं बताते कि पूर्वजों ने अतीत में इस धरती पर बसने वालों को, किस नाम से सम्बोधित किया था ? और उस नाम को आगे चल कर छोड़ क्यों दिया गया ? और इस भूमि, जिसे महान भारत राष्ट्र बता कर हमें हमारी नसों में गर्व के स्पंदन का एहसास कराया जाता है, को “हिन्दू” नाम किसने दिया ? कब दिया ? ये तो मैं शुरुआत कर रहा हूंं, आगे चल कर पाठक जानेगें कि गुरूजी का चेतन ऐसे भ्रमों से बुरी तरह जकड़ा हुआ है.

चांंद और सूरज इस विराट पुरुष की “आंंखें”, सितारे और आकाश की रचना उसकी “नाभि” से, “सिर” से ब्राह्मण, “भुजाओं” से क्षत्रीय, “जंघा” से वैश्य, और “पाऊंं” से शूद्र उत्पन्न हुआ. यानी वह विराट पुरुष हम “हिन्दुओं” का भगवान् है. और “राष्ट्र” की हमारी अवधारणा के मूल में उसी ईश्वर की दिव्य दृष्टि है. पाठकों के लिए यहांं यह जानना रुचिकर होगा कि गुरूजी ने बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय से जीव विज्ञान विषय की शिक्षा प्राप्त की थी और वही शिक्षण कार्य भी किया था. भले ही ईश्वर ने भारत भूमि पर चार वर्ण वाले समाज की रचना की हो, पर तथ्यों के अन्वेषण में गहरी रूचि रखने वाला, आज का युवा, इस तथ्य को तर्क की कसौटी पर जरूर कसना चाहेगा. मै अपने देश के युवाओं से अनुरोध करना चाहूंंगा कि वे अपनी कसौटी का प्रयोग “गुरूजी उवाच” लेख माला की समाप्ति से पहले नहीं करें. हृदय के पटल पर इस विराट पुरुष जो ईश्वर स्वरूप है, कि सूरत, सूरदास की काली स्याही से अंकित कर लें, जिससे जीवन के इस सफ़र में जब पकौड़े तलने, पनवाड़ी की दूकान खोलने आदि के कठिन दौर आये तो इसी विराट स्वरूपा ईश्वर का स्मरण करें, आपको सफलता मिलेगी. गुरूजी कहते हैं, “ईश्वर की इसी दिव्य दृष्टि से संतृप्त, अद्वितीय अवधारणाओं वाले चिंतन से इस धरा पर विभिन्न सांस्कृतिक विरासत विकसित हुई.

जातिवाद के इसी बीज के प्रति पवित्र आस्था के चलते, गुरूजी ने हमेशा यह मानने से इन्कार किया कि ‘जातिवाद (छुआ-छूत), हिन्दुवाद का कोढ़/अभिशाप है, या यह हिन्दूओं की एकता में बड़ी बाधा है.’ इस मान्यता के ठीक विपरीत, सत्ता की भूख से अकुलाये गुरूजी के वैचारिक वंश की वर्तमान पीढी के वंशज, इस मान्यता को झुठलाने पर आमादा हैं. वो मानते हैं कि जातिवाद (छुआ-छूत) हिन्दूवाद का अभिशाप है और हिन्दूओं के एक मुश्त वोट प्राप्त करने में बड़ी बाधा है. गुरूजी की गद्दी के वर्तमान उत्तराधिकारियों के निर्देश पर, भाजपा अपने  पदधारियों को गांंव-गांंव जाकर दलितों के साथ रात बिताने और उनके साथ बैठ कर भोजन करने की गुहार जोरों से लगा रही है.

पुरा देश, भाजपा के शीर्ष नेताओं को, बाबा साहब के चरणों में पुष्प अर्पित करने, दलितों को भुलावे में डालने, भाजपा की डोलियांं उठावा, सत्ता के दरवाजे पहुंचाने की जुगत भिड़ाते, बड़ी तन्मयता से, देख रहा है. बाबा साहब के चरणों में लोटने की घटनाओं में ये बाढ़, अचानक आई तो मानी जा सकती है, पर अकारण नही.

भारत की संविधान सभा ने नवम्बर, 1947 में भारतीय राजतंत्र को स्वतंत्र घोषित करते हुए घोषणा की कि भारतीय राजतन्त्र में आमजन के मौलिक अधिकार सुनिश्चित करते हुए प्रत्येक वयस्क नागरिक को मताधिकार दिया गया है. तो इस घोषणा पर गुरूजी (गोलवलकर) ने इसकी निंदा की और संविधान सभा द्वारा हर भारतीय नागरिकों को दिए गए इन अधिकारोंं को, कुत्ता-बिल्लियों को देने के दिया गया अधिकार बता, लोकतंत्र का उपहास उड़ाया (Cited in H.D. Malaviya, The Danger Of Right Reaction, A Socialist Congressman Publication, 1965, page 14).

विदित है कि भारतीय समाज के सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आर्थिक, और सम्मान के मामलों में, दलितों की अवस्था कुत्ता-बिल्लियों जैसी ही रही है. क्या आज भाजपा की पीठ के पीछे खड़ी वही आरएसएस, करोडपतियों के मानिंद कुत्ता-बिल्लियों को अपने बगल में सुलाने और कारों में सैर सपाटे कराने का अभिनय करती नहीं दिख रही है ?

विडम्बना, इसी वर्ष, 2018,मार्च महीने की 20 तारीख को सुभाष काशी नाथ महाजन बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र मामले में, अनुसूचित जाति-जनजाति उत्पीड़न निवारण क़ानून, 1989 को बेअसर कर दिया. यूं तो मामला महीने भर से से ज्यादा अखबारों की सुर्खियांं बनता रहा है और अभी भी निबटा नहीं है. पर मूल विवाद जो सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा उसकी जड़ क्या है, संक्षेप में बताना जरूरी समझता हूँ-

महाराष्ट्र के कराड जिले में सरकारी कॉलेज के प्रधानाचार्य, सतीश भिषे (सामान्य जाति वर्ग) की कथित गैर-कानूनी कारगुजारियों की शिकायत, स्टोर कीपर, भास्कर गायकवाड (अनुसू० जाति वर्ग) ने पत्र के माध्यम से प्रदेश सरकार तक पहुंचा दी. इससे चिढ़ कर गायकवाड की वार्षिक गोपनीय आख्या में एक स्टोर से सम्बन्धित अनियमितताओं के हवाले दर्ज कर दिये गए. दर्ज हवाले जब दूसरे अधिकारी के संज्ञान में आये तो उसने एक कदम आगे बढ़़ कर कुछ जातिसूचक टिप्पणियांं भी दर्ज कर दी. जब गायकवाड को इसकी जानकारी हुई तो उसने दर्ज टिप्पणियों को झूठा और दलित का अपमान करने की नियत से किया गया बता सम्बन्धित थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी. चूंकि टिप्पणियांं करने वाले अधिकारी प्रथम श्रेणी के अधिकारी थे तो पुलिस ने अभियोग चलाने की अनुमति उनके उच्चाधिकारी (सुभाष महाजन, निदेशक, कार्यवाहक, तकनीकी शिक्षा) से मांगी, जो नहीं मिली. वर्ष 2011 में लगभग चार वर्ष बाद, पुलिस ने समरी रिपोर्ट जिसका मतलब, मामला बनाता भी है और नहींं भी बनता है, की रिपोर्ट लगा दी. गायकवाड़ की पीड़ा है कि इस पर कृत कार्यवाही की जानकारी उसे न तो पुलिस ने ही दी और न ही न्यायालय ने. जब उसे इस समरी रिपोर्ट के बारे में वर्ष 2016 के प्रारम्भ में पता चला तो उसने एक एफआईआर, महाजन के खिलाफ भी दर्ज करा दी. महाजन ने बॉम्बे हाईकोर्ट में एफआईआर को रद्द करने हेतु प्रार्थना पत्र डाला. हाईकोर्ट ने महाजन की दलीलों को ठुकरा दिया. तब महाजन सुप्रीम कोर्ट पहुंचे, और सुप्रीमकोर्ट में जो हुआ वो तो सब को मालुम है. यहांं यह जानना रुचिकर होगा कि केंद्र सरकार के वकील ने, महाजन के इस कथन कि, “जातिगत विद्वेषवश, ऐसे मामले फर्जी तौर पर दर्ज किये जाते हैं, और अधिकांंश मामलों में आरोपी बरी हो जाते हैं,” पर अपनी सहमती व्यक्त की थी. गायकवाड़ के मामले की सुनवाई को सरकार की पुनर्विचार याचिका के साथ नत्थी कर दिया गया है. वर्ष 2007, यानी 11 साल से गायकवाड़ न्याय पाने के लिए भटक रहा है, पर अभी तक उसके मामले का फैंसला नहीं हुआ है.

सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च के फैसले के बाद, अप्रैल माह के शुरुआत में देश के बड़े हिस्से में इसी जातिवाद की जकड़ से मुक्ति पाने को सड़कों पर उतर, आक्रोश व्यक्त करने वाले दलितों को  बड़े पैमाने पर भाजपा शासित राज्यों समेत अलग-अलग राज्यों की पुलिस ने अपना निशाना बनाया. मोदी जी सही कहते हैं, अगर बाबा साहब न होते तो वो प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर न होते. मैंं समझता हूंं, मोदी जी भाग्यशाली हैं, काश बाबा साहब न होते तो वो प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर न होते.

गुरूजी ने अपनी पुस्तकों में विस्तार से इस बात की चर्चा की है कि जिन लोगों की रूचि हिन्दुओं का विनाश देखने में है, वो समाज के ढांचें में जाति व्यवस्था, अंधविश्वास, महिलाओं की स्थिति, अशिक्षा आदि हर तरह की सच्ची-झूठी कमियों के लिए हिन्दुओं के सांस्कृतिक संगठन को जिम्मेदार ठहराते हैं.

गुरूजी का मानना था कि जातिवाद हिन्दू समाज के लिए बहुत उपयोगी है. सच तो यह है कि स्वतन्त्रता के बाद भी यानी भारतीय संविधान के लागू हो जाने के बाद भी आरएसएस और गुरूजी लगातार मनुस्मृति की अवधारणाओं को संंविधान में समाहित करने के लिए उसमें आवश्यक संशोधन की मांग करते रहे हैं. आरएसएस का लक्ष्य है, हिन्दुस्तान की राज्य व्यवस्था को मनुस्मृति के निदेशों के अनुरूप चलाना, न कि लोकतांत्रिक, धर्म-तटस्थ वर्तमान संविधान के अनुरूप. गुरूजी कहते हैं- “हमारे संविधान में आदिकालीन भारत में तैयार उस अद्वितीय संविधान का कोई हवाला नहींं है, जिसे सभ्य समझे जाने वाले यूनान के संविधान से हज़ारों साल पहले मनु ने तैयार कर दिया था. मनुस्मृति, जिसने विश्व को न सिर्फ जाग्रत किया और उसकी प्रशंसा पायी और जिसका स्वतःस्फूर्त अनुपालन आदरपूर्वक भी किया.” परन्तु हमारे संविधान निर्माताओं की निगाह में इन बातों का कोई महत्त्व नहीं. गुरूजी ऐसा कहते हुए उन देशों के नाम और काल का उल्लेख नहीं करते जिन्होंने अपने यहांं मनुस्मृति के कानूनों को लागू किया था.

[गुरूजी उवाच जारी . . . . . .]

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ROHIT SHARMA

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One Comment

  1. Mukesh kumar

    May 7, 2018 at 11:09 am

    Shandar alekh h

    Reply

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