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कहां रुकेगा भारत का पीछे खिसकता लोकतंत्र ?

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कहां रुकेगा भारत का पीछे खिसकता लोकतंत्र ?
कहां रुकेगा भारत का पीछे खिसकता लोकतंत्र ?
चन्द्रभूषण

देश में आम चुनाव की गहमागहमी है लेकिन दुनिया में भारतीय लोकतंत्र का बैकस्लाइड (पीछे खिसकना) चर्चा का विषय बना हुआ है. हाल में इस मामले को लेकर एक अलग ही हल्ला उठ गया, जब आयरलैंड के प्रमुख अखबार द आइरिश टाइम्स ने भारत में ‘बैकस्लाइडिंग डेमोक्रेसी’ को लेकर एक संपादकीय टिप्पणी छापी और वहां स्थित भारतीय राजदूत ने इसकी काट में लिखे अपने लेख में भारत के ‘भ्रष्ट वंशवादी शासन’ से मिली राहत को भारतीय प्रधानमंत्री की अजेय लोकप्रियता का राज बता दिया.

प्रधानमंत्री आम काटकर खाना पसंद करते हैं या चूसकर, इस तरह के सिलेब्रिटी सवालों से बने चौथे खंभे वाले इस युग में राजदूत भी संभवत: सोच-समझकर ही रखे जा रहे हैं ! अमेरिका और यूरोप के लिए भारत एक बड़ा बाजार है और चीन के बरक्स इसका रणनीतिक महत्व भी दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है. ऐसे में यह चिंता तो छोड़ ही दी जाए कि लोकतांत्रिक मानकों पर भारत के लगातार नीचे जाने से देश को कोई आर्थिक नुकसान उठाना पड़ सकता है.

लेकिन गांधी और नेहरू के देश के रूप में, कम संसाधनों के बावजूद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत ने दुनिया के लोकतांत्रिक दायरे में जो इज्जत बनाई है, वह जांच संस्थाओं की पक्षधरता, मीडिया घरानों और स्वयंसेवी संस्थाओं पर छापेमारी, विपक्षी नेताओं की लगातार गिरफ्तारियों, हिरासत में हो रही बहुप्रचारित मौतों और धार्मिक अल्पसंख्यकों की घेरेबंदी से बर्बाद होती जा रही है.

फ्लॉड और पार्शियली फ्री

दुनिया भर में लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थिति पर नजर रखने वाली प्रतिष्ठित गैर-सरकारी संस्थाओं की नजर में भारत की स्थिति पिछले कुछ सालों में बद से बदतर होती गई है. लंदन स्थित इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (EIC) ने भारत को एक ‘फ्लॉड डेमोक्रेसी’ (गड़बड़ लोकतंत्र) माना है और 2016 से 2023 के बीच प्रकाशित उसके अध्ययनों में भारत का स्थान 27वें से गिरकर 53वां हो गया है.

कुछ समय पहले EIC ने सूचना जारी की कि भारतीय अधिकारियों ने उसके जिम्मेदार लोगों से संपर्क किया और उनसे आग्रह किया कि अपने निष्कर्ष निकालने के लिए वे उन्हीं आंकड़ों और तथ्यों का इस्तेमाल करें, जो भारत सरकार द्वारा आधिकारिक रूप से जारी किए गए हैं. संस्था की ओर से इस बारे में साफ मना कर दिया गया, लेकिन यह बात सामने आने से भारत की छवि थोड़ी और खराब हुई. अमेरिकी थिंकटैंक ‘फ्रीडम हाउस’ की ओर से भारत को ‘पार्शियली फ्री डेमोक्रेसी’ (आंशिक रूप से उन्मुक्त लोकतंत्र) घोषित किया गया है. अमेरिका में इस संस्था को मूल्यगत दृष्टि से एक ऊंचा मुकाम हासिल है.

इसके भावों का अनुगमन करते हुए कुछ अमेरिकी अधिकारियों ने पहले अवमानना के मामले में गुजरात की एक अदालत द्वारा राहुल गांधी को दो साल की सजा सुनाए जाने के बाद उनकी संसद सदस्यता निलंबित करने और फिर आबकारी नीति में भ्रष्टाचार के आरोप में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के खिलाफ एहतियाती बयान जारी किए तो भारत सरकार की ओर से अमेरिकी राजदूत से जवाब तलब कर लिया गया. शायद यह सख्ती देखकर ही अमेरिकी सरकार ने लोकतांत्रिक मानकों पर भारत की गिरावट को तूल न देने का रवैया अपनाया है.

इस तरह का तीसरा बड़ा नाम स्वीडन के वी-डेम इंस्टीट्यूट का है, जिसने कुछ ज्यादा ही तीखा रवैया अपनाते हुए भारत को लोकतांत्रिक देशों में भी शामिल नहीं किया है और इसे ‘इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी’ (चुनाव करा लेने वाली निरंकुश व्यवस्था) करार दिया है. इसमें कोई शक नहीं कि चीन की एकदलीय कम्युनिस्ट प्रणाली की तुलना में भारत को एक तरह का लोकतंत्र ही माना जाता है. पिछले कुछ वर्षों से निवेश के मामले में भारत को चीन से ज्यादा तरजीह देने का यह एक बड़ा तर्क भी है.

लेकिन दोनों देशों में एक खास फर्क यह है कि चीन अपने निचले लोकतांत्रिक दर्जे में काफी लंबे समय से स्थिर पड़ा है, जबकि भारत इस मामले में अपने ऊंचे मुकाम से बहुत तेजी से नीचे आया है. आगे जैसे लक्षण हैं, ‘एक देश एक चुनाव’ की व्यवस्था वाले सारे संविधान संशोधन यहां अमल में उतारे जा सके, तो संसाधनों की कमी से हिले विपक्ष का रहा-सहा ढांचा भी खत्म होने के कगार पर पहुंच जाएगा.

मदर ऑफ डेमोक्रेसी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रवैया इस पूरे हल्ले को लेकर हमले और बचाव की दोहरी रणनीति वाला दिख रहा है. हाल में सत्ता की करीबी न्यूज एजेंसी एएनआई के साथ एक बातचीत में उन्होंने भारतीय लोकतंत्र पर चिंता जाहिर करने वाले पश्चिमी बौद्धिकों और संस्थाओं को अज्ञानी बताया, साथ ही कहा कि उनकी सरकार भारत को ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ मानते हुए इसे और व्यापक बनाने के लिए काम कर रही है.

पश्चिम की दलीलों की काट करने के लिए उन्होंने बताया कि जिस देश में पांच लाख ग्राम पंचायतों में मुखिया और सदस्य चुने जाते हों, उसके लोकतंत्र को कमजोर भला कौन समझदार व्यक्ति कहेगा ? यह भी कि शायद ही देश का कोई राजनीतिक दल ऐसा हो जिसकी किसी न किसी राज्य में सरकार न हो, या सरकार में किसी न किसी रूप में उसकी भागीदारी न हो. दूसरी तरफ, डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत की स्थिति सुधारने के लिए भी उनकी कोशिशें जारी हैं.

इसमें एक तरह की कोशिश का जिक्र ऊपर आ चुका है. यानी लोकतंत्र की कसौटियां बनाने और उनपर विभिन्न देशों को आंकने वाली संस्थाओं से संपर्क करके सीधे उन्हें मैनेज करने का प्रयास करना. उद्योग-व्यापार से जुड़े बहुत सारे इंडेक्सेज में ऐसी कोशिशें कारगर हो चुकी हैं. आईएमएफ जैसी संस्थाएं भी भारत के आधिकारिक आंकड़ों को अपने आंकड़े की तरह जारी करने के लिए तैयार हो जाती हैं. लेकिन जब कोई बात बिल्कुल ही उनके हिसाब से बाहर होने लगती है तो उनकी ओर से ऐसा बयान भी आता है कि हम खुद आंकड़े नहीं जुटाते, यह भारत का अपना आंकड़ा है.

शाह जी की करामात

लोकतंत्र से जुड़े मानकों के मामले में इस तरह की कोशिशें कामयाब नहीं हो पा रही हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि जो चीजें राजनीति में इतनी फायदेमंद साबित हो रही हैं और विदेशों में हिंदुत्व वाला एनआरआई जनाधार भी जिनसे इतना खुश है, मोदी सरकार उनसे ज्यादा दूर जाती हुई नहीं दिखना चाहती. बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से विभिन्न मंत्रालयों को डेमोक्रेसी इंडेक्स का ध्यान रखने के जो निर्देश चुपचाप भेजे गए हैं, उनकी सबसे ज्यादा उपेक्षा अमित शाह के गृह मंत्रालय द्वारा की गई है, जबकि इंडेक्स में नीचे खींचने वाले ज्यादातर मामले इस मंत्रालय से ही जुड़े हैं.

कश्मीर में बात-बात पर इंटरनेट बंद करना, वहां विधानसभा चुनाव कराना तो दूर, ऐसी कोई संस्था आगे वहां होगी भी या नहीं, इसपर सन्नाटा खींच लेना, पत्रकारों समेत बहुत बड़ी तादाद में लोगों को जेल में डाल देना गृह मंत्रालय का ही कमाल है. अल्पसंख्यकों की असुरक्षा, मणिपुर हिंसा और जांच एजेंसियों के दुरुपयोग तक भारतीय लोकतंत्र को घुन खाई चीज बताने वाले और भी कितने ही मामले इस मंत्रालय से जुड़े हैं लेकिन दूसरी ओर, मोदी सरकार को सबसे ज्यादा उत्तेजना पैदा करने वाले हनकदार चुनावी मुद्दे भी गृह मंत्रालय ही मुहैया करा रहा है.

परसेप्शन मैनेजमेंट

गौर से देखें तो लोकतंत्र की समस्याओं को स्वीकारने और सुधारने का यहां कोई मामला ही नहीं है. भारत का सफल राजनीतिक मुहावरा ज्यादा से ज्यादा गड़बड़ी करने और सत्ता पर पकड़ मजबूत करने में उसका फायदा उठाने का है. ऐसी राजनीति यहां पहले भी होती रही है लेकिन एक समय के बाद लोगों की जीवन स्थितियों से जुड़ा कटु यथार्थ उन्हें इससे दूर जाने के लिए विवश कर देता रहा है.

यह पहला मौका है जब देश ‘परसेप्शन मैनेजमेंट’ के सामने हथियार डालता दिख रहा है. इक्कीसवीं सदी में रूस से शुरू हुई यह राजनीतिक बीमारी भारत में और भी गहरी डायग्नोसिस की मांग करती है. जमीन पर अच्छा काम करने वालों को कोई ट्रैक्शन नहीं मिल रहा. उनकी बात दूर तक नहीं पहुंच रही और कहीं पहुंच भी रही है तो समुदायों के बीच नफरत पैदा करने वाली या गैर-जरूरी सूचनाओं की भीड़ में अगले ही दिन लोग उसे भूल जा रहे हैं.

इसके विपरीत, पूरी तरह हवा-हवाई, पौराणिक बातें करने वाले, सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाले, दिन-रात झूठ बोलने वाले लोगों को देश का बड़े से बड़ा मंच सहज ही उपलब्ध हो जा रहा है. ऐसे में विपक्ष अगर एक-दो चुनाव जहां-तहां जीत भी जाए तो लोकतंत्र से खेलने वाली शक्तियां उसे खिलौना बना छोड़ेंगी.

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